गांधी जी का कांग्रेस से त्यागपत्र !

1939 में गांधीजी के एक लेख का शीर्षक था “क्या भारत लड़ाकू देश है” | इस लेख के समापन में गांधीजी ने लिखा था कि, “गति ही जीवन का अंतिम ध्येय नहीं है | मनुष्य यदि अपने काम पर पैदल चलकर जाए, तो उसे चीजों को देखने समझने का ज्यादा अच्छा अवसर मिलता है, और वह अधिक सच्चा जीवन व्यतीत करता है |” यह लेख उन्होंने 25 सितम्बर 1939 को रेलगाड़ी में बैठकर जाते हुए लिखा था | इस पर एक पाठक ने व्यंग किया तो गांधी जी ने उसके जबाब में “न पाटी जा सकने वाली खाई” नामक लेख लिखा | लेख में उन्होंने लिखा कि “जिस जगह यह लिखा गया उसका उल्लेख मैं आसानी से टाल सकता था | पर मैं अपनी बात को ज्यादा बजन देना चाहता था | मेरे और मेरे आदर्श के बीच जो गहरी खाई है, उससे पाठकों को अवगत कराना चाहता था | “उन्होंने आगे लिखा कि “मैं संसार को अपनी निर्बलताएँ और असफलताएं भी बताना चाहता हूँ, ताकि मैं दंभ से बच जाऊं, और शर्म के कारण ही सही आदर्श को प्राप्त करने की यथाशक्ति साधना करूं | आदर्श और व्यवहार के बीच हमेशा एक ऐसी खाई रहती है जो कभी पाटी नहीं जा सकती | आदर्श को प्राप्त करना अगर संभव हो जाए तो वह आदर्श ही नहीं रहेगा | आनंद तो साधना में है, सिद्धि में नहीं |”

वे आगे लिखते हैं, “मुझे मोटर में या रेल में अथवा बैलगाड़ी में भी बैठकर मुसाफिरी करने में कोई आनंद नहीं आता | आनंद तो हमेशा पैदल चलने में ही आता है |रेल की एक एक पटरी उखाड़ ली जाये, मरीजों और अपाहिजों के अतिरिक्त सबको अपने काम पर पैदल चलकर जाना पड़े, तो मुझे इसका ज़रा भी दुःख नहीं होगा | मैं ऐसी सभ्यता की कल्पना करता हूँ, जिसमें मोटर का मालिक होना कोई श्रेय की बात नहीं मानी जायेगी और जिसमें रेल के लिए भी कोई स्थान नहीं होगा | संसार किसी समय जितना विशाल था, यदि वह फिर से उतना विशाल बन जाए तो मेरे लिए यह कोई दुःखद घटना नहीं होगी |”

इस लेख में गांधीजी ने अपनी पुस्तक “हिन्द स्वराज” का उल्लेख भी इस प्रकार किया, “इस छोटी सी पुस्तक को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि यह तथाकथित अज्ञान और अन्धकार के युग में पीछे लौटने का प्रयत्न नही है, बल्कि यह स्वैच्छिक सादगी, गरीबी और धीमेपन में सौन्दर्य को देखने का प्रयत्न है | इसे मैंने अपना आदर्श चित्रित किया है | मैं खुद इस आदर्श तक कभी पहुँचाने वाला नहीं, इसलिए देश से भी इस हद तक पहुँचने की अपेक्षा नहीं कर सकता | लेकिन आज लोगों में नित नई बस्तु प्राप्त करने की, आकाश में विचरण करने और अपनी आवश्यकताओं को निरंतर बढाते जाने की जो प्रवृत्ति दिखाई देती है, उसके प्रति मेरे मन में कोई मोह नहीं है | ये सब बातें हमारी अंतरात्मा का हनन करती हैं | मनुष्य की बुद्धि आज जिन चकरा देने वाली ऊंचाईयों को छूने का प्रयास कर रही हैं, उससे हम अपने सिरजनहार से दूर होते जा रहे हैं | उस सिरजनहार से जो हमारे उतना ही करीब है जितना कि नख उंगली के करीब होता है |”

1934 में गांधी जी ने अपनी भारत यात्रा पूर्ण करने के बाद वर्धा को अपना नया केंद्र बनाया | एक वर्ष बाद वर्धा से छः मील की दूरी पर स्थित सेवाग्राम में उन्होंने अपने आश्रम की स्थापना की | उसी समय अक्टूबर 1934 में उन्होंने, जिस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वे सर्वोच्च नेता और मार्गदर्शक थे, उसकी सामान्य सदस्यता से त्यागपत्र देने का महत्वपूर्ण निर्णय लिया | अपने त्यागपत्र के कारण का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा था कि, “अधिकाँश बुद्धिमान कांग्रेसी मेरे विचार और मेरी पद्धति से बाज आ गए हैं | उनको लगता है कि कांग्रेस के स्वाभाविक विकास में मैं सहायक नहीं अपितु अवरोधक हूँ |” यद्यपि बाद में उन्होंने कांग्रेस को आश्वासन दिया कि वे आवश्यक मार्गदर्शन व परामर्श देते रहेंगे | उसके बाद गांधीजी के परामर्श के अनुरूप कांग्रेस ने नियम बनाया कि उसके तीन चौथाई सदस्य ग्राम निवासी होंगे | कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित किया कि यदि गाँवों का पुनर्गठन और पुनर्रचना करनी है तो मृत अथवा मृतप्राय ग्रामोद्योगों को पुनर्जीवित और प्रोत्साहित करना पडेगा | उसके लिए अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की रचना करनी पड़ेगी |”

किन्तु दुर्भाग्य से स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद गांधीजी के राजकीय एवं आर्थिक विचारों को अव्यवहारिक मानकर भारत ने दूसरा ही रास्ता चुन लिया |

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