देख कबीरा रोया - 3 (आचार्य रजनीश)


गंगोत्री से गंगा चली सागर की ओर 
भारत के ऋषियों ने, भारत के संतों ने सपना देखा कि एक प्रथ्वी ऐसी हो, जहां सब बंधू हों | लेकिन शोषण से भरी पृथ्वी बंधुओं की पृथ्वी कैसे हो सकती है ? एक सपना देखा कि प्रत्येक आदमी की आत्मा समान है, बराबर है, किन्तु हर शरीर को समान अवसर और सुविधा नहीं मिलती, तब तक आत्मा की समानता का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है | अभी तो जीवन की समान जरूरतें भी उपलब्ध नहीं हैं | कितने गांधी झोपड़ों में मर जाते होंगे, कितने बुद्ध और महावीर शूद्रों के घर में जन्मते होंगे और क ख ग भी नहीं सीख पाते होंगे | हजारों वर्ष से भारत में शूद्र हैं, क्या एक भी शूद्र बुद्ध की हैसियत को उपलब्ध हुआ ? एक भी शूद्र राम बना ? एक शूद्र कृष्ण बना ? नहीं बन सका | क्या शूद्र के घर आत्माएं पैदा नहीं होतीं, प्रतिभाएं पैदा नहीं होतीं ?

स्वतंत्रता आ गई, किन्तु जब तक समानता न आये तब तक स्वतंत्रता सिर्फ धोखा होती है, काम चलाऊ होती है | जिनके पेट में रोटी नहीं, जिनके पास वस्त्र नहीं उनके लिए स्वतंत्रता का क्या अर्थ ? जब तक आर्थिक स्वतंत्रता न हो, तब तक राजनैतिक स्वतंत्रता आत्म प्रवंचना है | 


भारत का सारा मस्तिष्क अतीतोंमुखी है, पीछे की तरफ देखता है | किन्तु ध्यान रहे जीवन जाता है सदा आगे की तरफ | जीवन कभी पीछे की तरफ नहीं लौटता | अतीत में जाने का कोई द्वार ही नहीं है | और हम जब अतीत में जा नहीं सकते तो हम एक काम कर सकते हैं, अतीत की स्मृति कर सकते हैं, याद कर सकते हैं | जितनी हमारी दृष्टि अतीत से बंध जाती है, उतना ही हम आगे की तरफ देखने में असमर्थ हो जाते हैं | और यह भी ध्यान रहे कि चलना आगे है और देखते अगर पीछे रहें तो गड्ढे में गिरे बिना कोई उपाय नहीं रहेगा | गड्ढे में गिरना ही पडेगा | भारत सैकड़ों बार गड्ढे में गिरता रहा है, हजार बार गड्ढे में गिरा है | दुर्घटना की हमारी लम्बी कथा में और क्या है ? कितनी गुलामी – कितनी दीनता – कितनी दरिद्रता | लेकिन हमारी आदत पीछे देखने की कायम – बरकरार है | पीछे देखते हैं, आगे चलते हैं | गिरेंगे नहीं तो और क्या होगा ?

एक बड़े मजे की बात है, जिस पर हम कभी ध्यान ही नहीं देते | महावीर सुबह से शाम तक लोगों को समझाते हैं, हिंसा मत करो, हिंसा मत करो | अहिंसा, अहिंसा | इसका मतलब है कि उस समय के लोग हिंसक थे | यदि लोग अहिंसक होते तो क्या महावीर पागल थे जो उनको समझा रहे थे कि हिंसा मत करो | बुद्ध सुबह से शाम तक समझा रहे हैं कि चोरी मत करो, झूठ मत बोलो और बेईमानी मत करो, परस्त्रीगमन मत करो | किसको समझा रहे हैं ? लोग अगर अच्छे थे, समाज अगर शुद्ध था तो वे शिक्षाएं किसके लिए ? ये शिक्षाएं बताती हैं कि समाज कैसा रहा होगा ? वे ही शिक्षाएं हमें आज भी देनी पड़ रही हैं, इससे सिद्ध होता है कि समाज जैसा आज है, तीन हजार वर्ष पहले भी ऐसा ही था | समाज में कोई बुनियादी फर्क नहीं आया | शिक्षाएं उन्हें देनी पड़ती हैं जो शिक्षाओं के प्रतिकूल होते हैं | जिस दिन दुनिया में धर्म आ जाएगा, उस दिन धर्म की शिक्षा देने की जरूरत कम हो जायेगी | जिस गाँव में मरीज कम होंगे वहां डाक्टर बसने नहीं जायेंगे |

जीवन की खोज निरंतर अतीत से मुक्त होने की खोज है | किन्तु भारत है कि अतीत से चिपटा हुआ है | नितांत अतार्किक होकर | जैनों के 24 तीर्थंकर हैं | उनमें एक तीर्थंकर मल्लिनाथ हैं | दिगंबर कहते हैं, वह पुरुष हैं, श्वेताम्बर कहते हैं वह स्त्री है, मल्लीबाई | बड़ा मजा है | अजीब इतिहास लिख रहे हैं आप ? यह भी पक्का नहीं कि कि एक तीर्थंकर स्त्री है या पुरुष ? पक्का रहा होगा, लेकिन दिगम्बरों की मान्यता यह है कि स्त्री मोक्ष नहीं जा सकती तो फिर तीर्थंकर स्त्री कैसे ? महावीर की शादी हुई अथवा नहीं, महावीर को लड़की पैदा हुई या नहीं, इसमें भी झगड़े हैं | श्वेताम्बर कहते हैं कि शादी हुई, लड़की हुई, दामाद था | दिगंबर कहते हैं, यह कभी हुआ ही नहीं | तीर्थंकर जैसा आदमी और शादी करेगा ? वे तो बाल ब्रह्मचारी थे | एक ही महावीर को मानने वाले दो वर्ग |

हम अपनी धारणा थोपते हैं शास्त्रों पर, सिद्धांतों पर, महापुरुषों पर | हम पूजा कर रहे हैं या अत्याचार कर रहे हैं ? यह जो प्राचीनतावाद है, प्राचीन का मोह है, यह हम कब तोड़ेंगे ? सारा जगत आगे बढ़ता जा रहा है, भविष्योन्मुख है, हम अतीत के मोह में करीब करीब मर गए हैं | आदमी ज़िंदा हो तो मर सकता है, मर ही गया हो तो अब क्या करेगा ? मरने के लिए भी जिन्दगी चाहिए |

धर्म नहीं कहता कि पीछे जाओ | धर्म तो कहता है आगे और आगे | और अंत में अननोन, अज्ञात परमात्मा है, वहां चलना है | निकलती है गंगा हिमालय से, गंगोत्री से, पर गंगोत्री पर रुक नहीं जाती | अनजान पहाड़ों से, घाटियों में, वादियों में भागती है, दौड़ती है और एक दिन सागर के पास पहुँच जाती है | गंगोत्री की क्षीण सी धारा सागर के पास पहुँच कर, उसमें समा विराट हो जाती है | गंगोत्री में रुक जाती तो सागर नहीं हो सकती थी | जाना है आगे और आगे, भविष्य में वहां जहां अनंत का सागर है | जो पीछे रुक गए हैं, उन्होंने अपने हाथ से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है |

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