भक्ति सुधा |

(१) 

कबीर की साधना निश्छल, निर्मल ओ सफल
सब जग भया राम मय, मन में रहा न मल
मन चाहे तो दे बना मुझे पतन की खान
या फिर चाहे दे बढ़ा उत्थान के सोपान
मन जब निश्छल, शांत हो, गहे प्रभु का रूप
किन्तु चंचल, वृत्तिमय गिरा सके भवकूप
इसी लिए है विनय मन, हो जा अरे अचाह
वरना इन्द्रिय भंवर में भूल जाओगे राह
जब होतीं स्वच्छंद ये सम्मुख आये विनाश
संयम का संकल्प ही इस घोड़े की रास
मन हो जब निर्मल विमल, बने वासना हीन, 

मन आत्मा समरूप हो, प्रभु चरणों में लीन 

"स्व" से दूर निकल सके मन से बाहर मन
असद्वृत्तियाँ दूर कर,बन जाए उन्मन

मन के हारे हार है- मन के जीते जीत | 

पारव्रह्म को पाइए मन ही के परतीत | 

(२) 

मन बुराइयों का घर तो अच्छाइयां भी 'मन' की उपज प्यारे |
तो बुराइयों का कर निवारण औ भलाई की फसल उपजारे | 

जिनने मन को घेरा, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर को दूर भगाएं
करुना, दया, त्याग, तप, स्वाध्याय के साथ मन को प्रभु का घर बनाएं
मन ही है ईश साक्षात्कार का साधन, साधक और राही | 

रखें प्रभु को याद, देखें सर्वत्र प्रभु, मानें सब कुछ प्रभु का ही | 

असली कठिनाई तो हमारा अहम् है, जो पार जाने नहीं देता |
अंतस में फुफकारता, डसता, इश्वर को अपनाने नहीं देता | 

दूसरे दिखते अहंकारी, यही है पाखण्ड औ अहं का प्रभाव | 

दिखे हरिमय जगत, सर्वत्र राम ही राम, यही बने स्वभाव !! 

(३)

खुद से है गर मोह तो, प्रभु भक्ति में खोट, 

खुद को ऊपर मानते, तो घटघट वासी ओट

भक्ती मांगे न मिले, उपजे खुद ही आय

संशय ऊसर भूमि में , भक्ती उपजत नाय 

सिंचित श्रद्धा, दूर हो कुसंग खर पतवार

खाद मिले शुभ कर्म तो,भक्ती फसल अपार(४) 

श्रेय जो अच्छा है, प्रेय जो अच्छा लगता है, हेय जो अच्छा नहीं है | 

जो प्रभु को प्रेय, वह ही सदैव श्रेय
है हमें प्रेय वह हो सकता है श्रेय याकि हेय
इश्वर वही करता जो हमारे लिए श्रेय
अतः प्रभु को प्रिय, वही हो हमें प्रेय ! 

जो प्रभु को न भाये, वह हमें भी न सुहाए | 

अन्य बातों पर जाए न चित्त, चाहे कुछ प्रिय सामने आये | 

पर मन मनुहार से पसीजता नहीं
भटकता है, अटकता है, हर कहीं | 

मन जब इश्वर में लीन, होजाता विलीन
समाधिस्थ, जीव ओ शिव एकरूप तल्लीन ! 

मन उसकी प्रभुता स्वीकारे
उस प्रभु को ही कर्ता जाने
हम खिलौने उसके हाथ के
कर्मफल से विरक्ति ठाने ! 

यही तो है विराग प्रभु के प्रति "राग" 

मन में बस रहे उसका प्रेम अनुराग |
जब हुए विरागी तभी तो मिले ज्ञान 

परन्तु न हो ज्ञानी होने का भान
ज्ञान का भान दिलाता अभिमान 

रहे एक धुन, प्रभु गुण गान ! 

(५) 

उथला पानी खर्राता है
लहराता शोर मचाता है 

गहरा जल शांत, स्थिर और गंभीर 

स्वाध्याय भी गहरा तो बनाता धीर
पढ़ने से कहिं मुख्य है, अंतस में कितना रहता,
आचरण में उसका प्रमाण कितना दिखता |

स्वाध्याय का अर्थ चेतन से चेतन का मिलन
जड़ जगत से परे बनना स्वयं सच्चिदानंद घन
स्वाध्याय है तप का एक अंश, होता तापकारी 

है सदुपयोग हितकर, दुरूपयोग विनाशकारी
स्वाध्याय से मल हो विनष्ट, सार का रस निर्मल
असार संसार, सारभूत की भक्ती मिले अविचल

(६) 

शरीर के लिए भोजन या भोजन के लिए शरीर
रसना करती खट्टे मीठे चटपटे को अधीर | 

जिव्हा जब बक जाये तो जूते खाये कपाल
जिसे मिला जिव्हा संयम वही सच्चा फ़कीर || 

असंयमित वाणी जननी महाभारत की
दुखाती है दिल तो रुकावट परमारथ की | 

इससे अच्छा तो मौन जो वाणी का तप
बोलें तो एसा जो हरे दुःख शोक आतप || 

सहना ठीक वाग्वाण की चोट प्रत्येक, 

आवत गारी एक, लौटत होत अनेक | 

अतः खुद पर चले विषमय बोल पचायें, 

इतना ही नहीं, उनमें अमृत उपजायें | 

जगत में नहीं है कोई सर्व गुण निधान 

ना ही है कोई केवल दुर्गुणों की खान | 

युधिष्ठिर को जग में सभी गुनी दिखते
दुर्योधन को केवल दोषी दूषित मिलते | 

अन्यों के सत्व गुण को अपनाने का ढंग, 

सार सहेज असार विसारें यही सत्संग || 

(७) 

जब चित्त अहम से दूर, विवेक के साथ करता प्रभु गुणगान
प्रारम्भ होता ध्यान, धारणा, समाधि का प्रथम सोपान
जैसे घोड़े की सवारी मैं वल्गा, शिथिल नहीं चाहिए 

बैसे ही यम नियम की लगाम से भक्ती भावना पाइए
चित्त हो सांसारिक विषयों से दूर अनायास
सतत परमगुरु परमेश्वर के ध्यान का अभ्यास
जब मन हो क्षणभंगुर, विकारी वस्तुओं से परे
ध्यान में निर्गुण, निरंजन, अकाल पुरुष भरे
स्वाध्याय, विवेचन, पठन, पाठन, मनन, चिंतन
मधुकर वृत्ति से संगृहीत मधुर ज्ञान रस सिंचन 

शांत मन, संकल्प, विकल्प व्रत्तिमय रूप सुप्त
विषमता दूर सुख, दुःख आदि द्वन्द भी विलुप्त
चित्त स्थिर प्रभुचरण अंतःपटल पर धारित
वही "धारणा" समाधि पूर्व की स्थिति कारित
प्रभु की छवि का ध्यान ही धारणा के पूर्व नियम
ध्यान से धारणा, धारणा से समाधि का क्रम
ईशाश्रय पर पूर्णतः निर्भर असीम, अवर्णनीय, आनंद की अनुभूति
अस्तित्व शून्य मय, निर्मल, स्थिर, शांत, चित तत्व की स्थिति
सत तत्व के वोध के साथ, आनंद का प्रादुर्भाव अवर्णनीय
अतएव निर्मल, शांत अवस्था अकाम रूप सदैव गहनीय 

आवृत्ति, अभ्यास कार्य को बनाते सहज एवं सरल
जड़ को भी संस्कारित करता आवृत्ति में विद्यमान बल 

प्रभु नाम की आवृत्ति, विवेक और विचार की लहरियां
नाम का जप, उसके दर्शनों की अनुभूति की अठखेलियाँ
मन, सभी ओर से निर्विचार हो समाधिस्थ हो जाएगा
वही रहेगा, अस्तित्व उस महत्चेतना में खो जाएगा
प्रभु आनंदरुप सत चित हैं अतः जहां 'आनंद' भाव आया,
वहां 'सत' तथा 'चित' प्रभु स्वरुप भी स्वतः प्रगटाया
वही आनंद असंवेद्य हो योगी जन ध्यायें
यही परम समाधि, जिसमें उसके दर्शन पायें

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