एक पहेली - जिन्दगी की दूकान
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"मैं" जिसे कहते न जानूं,कर्मफल सामान है |कौन क्रेता क्या खरीदे,जिन्दगी दूकान है |
जानता सच में नहीं,यह कौन सा व्यापार है,कौन व्यापारी बना,यूं कर रहा ब्यवहार है |
कौन क्रेता सामने है,दीखता बह भी नहीं,दुनिया की इस हाट में,दूकान इक ऐसी रही |
इस पहेली को समझना,इक यही उद्देश्य भर है ?खोलकर दूकान दिन भर,साँझ को जाना तो घर है |
सुप्रभात !!(कितना विचित्र है, ना हम बेचने बाले को जानते हैं, ना ही खरीदने बाले को | केवल इतना सुना है कि हम अपने कर्म फल की दूकान जमाये बैठे हैं | सामान की कीमत के रूप में सुख दुःख हमें प्राप्त होते हैं | बेचने बाले हम कौन हैं, खरीदने बाला वो कौन है, इस पहेली को सुलझाने का प्रयत्न युगों युगों से किया जाता रहा है |)
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काव्य सुधा
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