मनोव्यथा
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अमर विस्मिल रोशन लाहिरी,
अमर आज़ाद प्रतापी आज.
अंग्रेज हुए थे कम्पित जिनसे,
छोड़ भागे थे तख्तोताज !
लेकिन सच में पूर्ण हुआ क्या,
जो देखा था सपना,
रोशनसिंह की पोती इंदू,
रोती मांगे हक अपना !
बेचारी विधवा की कुटिया,
सपा राज में जली,
भूखे पेट शयन करती थी,
बह भी आँखों खली !
जिन गुंडों ने आग लगाई,
वे थे सत्ताधारी,
मूक मीडिया, मौन तंत्र है,
रुदन करे लाचारी !
खुले आसमां नीचे बह तो,
रात बिता ही लेगी,
चित्रगुप्त की बही लेखनी,
कल बदला भी लेगी !
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काव्य सुधा
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