सुख क्या है ? कैसे प्राप्त हो ?



सुख क्या है ? सुधी जनों का मत है कि सुख दो प्रकार का होता है | एक पाशव तो दूसरा मानवीय | आहार, निद्रा, भय, मैथुन से जो अनुकूल वेदना होती है, उसे पाशव सुख कहते हैं | यह सुख क्षणिक भी होता है, और अधः पतन का कारण भी | इसके विपरीत लक्ष्य सिद्धि से जो अनुकूल वेदना होती है, उसे मानव सुख कहते हैं | यह सुख चिरस्थाई भी होता है और उन्नतिकारक भी |

मनुष्य और पशु में अगर कोई भेद है तो केवल यह कि मनुष्य अपने जीवन में कोई लक्ष्य लेकर जीता है, जबकि पशु का जीवन लक्ष्यहीन होता है | लक्ष्य ही मनुष्य को पशुओं से अलग करता है | लक्ष्यहीन होना मनुष्य के अधःपतन की पराकाष्ठा समझी जा सकती है | जैसा मनुष्य का लक्ष्य होता है, वह बैसा ही बनता चला जाता है | उत्तम लक्ष्य से मनुष्य उत्तम, मध्यम लक्ष्य से मध्यम, अधम लक्ष्य से अधम और लक्ष्यहीन होने पर पशुवत हो जाता है | 

पशु केवल आहार, निद्रा, भय और मैथुन के लिए जीवन धारण करता है, अतः उसकी समस्त चेष्टाएँ केवल इन क्रियाओं हेतु ही होती हैं | किन्तु मनुष्य प्राण धारण करता है, अपनी लक्ष्य सिद्धि के लिए | यदि निराहार रहने से उसका लक्ष्य सिद्ध होता दीखता है तो वह उसे त्यागने हेतु प्रवृत्त हो जता है | उग्र से उग्र और कठिन से कठिन कार्य मनुष्य लक्ष्यसिद्धि के लिए करने को तत्पर हो जाता है | जैसे जैसे लक्ष्य नजदीक दिखाई देने लगता है, उसके सुख में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है | जब तक उसका लक्ष्य सिद्ध नहीं हो जाता, तब तक वह पूर्ण सुखी नहीं हो पाता | लक्ष्य सिद्ध हो जाने पर वह मानो कृतार्थ हो जाता है, उसके आनंद की सीमा नहीं रहती |

लक्ष्य तीन प्रकार के हो सकते हैं, तो उसी प्रकार उससे प्राप्त सुख भी तीन प्रकार के माने जा सकते हैं | जो सुख बुद्धि की प्रसन्नता से प्राप्त होता है, वह सात्विक सुख, जो सुख इन्द्रिय और विषय भोग से प्राप्त होता है, वह राजस सुख और जो प्रमाद से प्राप्त होता है, वह तामस सुख कहा जा सकता है | 

किन्तु ये सुख भी तभी प्राप्त होते हैं, जब मनुष्य को व्यवस्थित आजीविका प्राप्त हो | आजीविका कष्ट साध्य हो तो उसका सारा समय जीवन संघर्ष के गोरखधंधों में ही निकल जाता है | जिस मनुष्य को भोजन के लिए सारे दिन हड्डी तोड़ परिश्रम करना पड़े, वह तो पाशव सुख से भी बंचित हो जाता है | एक रस विहीन सूखे पत्ते जैसी उसकी स्थिति हो जाती है | पापी पेट सदा उनके होश उडाये रहता है |

विद्वानों का विद्या विलास और मूर्खों की निद्रा लोरियां तभी तक हैं, जब तक पेट भरा हुआ और शरीर ढका हुआ हो | भारत की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण भी कष्टसाध्य आजीविका ही है | सबको किसी न किसी प्रकार की चिंता है, कोई स्वतंत्र नहीं है, सबका पौरुष भी सुप्त हो गया है | जबकि भारत भूमि रत्नगर्भा है, उपजाऊ है, शस्यश्यामला षडऋतू वाली है | यहाँ के बासिन्दे मूर्ख भी नहीं हैं | वर्तमान योरोप के गुरू यूनान ने जिस देश से शिक्षा पाई हो, उस देश की संतान मूर्ख हो ही नहीं सकते | कमी है तो केवल योग्य रीति नीति की, देखें आगे आगे क्या होता है ?


एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें