स्वामी विवेकानंद जी के उद्बोधनों में आये रोचक किन्तु मार्गदर्शक कथानक |



- एक धनी व्यक्ति का एक बगीचा था जिसमें दो माली काम करते थे | एक माली बड़ा सुस्त और कमजोर था, किन्तु वह जब भी मालिक को आते देखता तो झट उठकर खड़ा हो जाता और हाथ जोड़कर कहता – मेरे स्वामी का मुख कैसा सुन्दर है | और उसके सम्मुख नाचने लगता | दूसरा माली ज्यादा बातचीत नहीं करता था, उसे तो बस अपने काम से काम था | और वह बड़ी मेहनत से बगीचे में तरह तरह के फल तरकारी उगाता और स्वयम अपने सर पर रखकर मालिक के घर पहुंचाता | यद्यपि मालिक का घर बहुत दूर था | अब इन दो मालियों में से मालिक किसे अधिक चाहेगा ? बस ठीक इसी प्रकार यह संसार भी एक बगीचा है और इसके मालिक हैं शिव | यहाँ भी दो प्रकार के माली हैं – एक तो वह जो अकर्मण्य, सुस्त और ढोंगी हैं और कभी कभी शिव के सुन्दर नेत्र, नासिका तथा सुन्दर अंगों की प्रशंसा किया करते हैं | और दूसरा ऐसा जो शिव की संतान की, सारे दीन दुखी प्राणियों की और उनकी समस्त सृष्टि की चिंता रखता है | इन दो प्रकार के लोगों में से कौन शिव को अधिक प्यारा होगा ?

- एक तरुण सन्यासी वन में गया | दीर्घ काल की कठोर तपस्या के बाद एक दिन जब वह वृक्ष के नीचे बैठा था, टी उसके ऊपर कुछ सूखी पत्तियां आ गिरीं | उसने क्रोध में ऊपर देखा तो पाया कि एक कौए और बगुले की लड़ाई में यह पत्तियां गिरी हैं | उसकी क्रोधपूर्ण दृष्टि से वे बेचारी दोनों चिड़ियाँ भस्म हो गईं | अपने में यह शक्ति देखकर सन्यासी बड़ा खुश हुआ | कुछ दिन बाद वह एक गाँव में भिक्षा माँगने गया | एक दरवाजे पर जब उसने आवाज लगाईं – “माँ कुछ भिक्षा मिले” तब भीतर से आवाज आई –“ थोडा रुको बेटे” | सन्यासी ने मन में सोचा – “रे दुष्टा तेरा इतना साहस कि मुझे प्रतीक्षा कराये, तू मेरी शक्ति नहीं जानती” | तभी भीतर से आवाज आई – “ बेटा अपने की इता बड़ा मत समझ, यहाँ कोई कौए और बगुले नहीं हैं“| सन्यासी को बहुत अचम्भा हुआ | बहुत देर इंतज़ार के बाद दरवाजे से एक स्त्री बाहर निकली | सन्यासी उसके चरणों में गिर पडा और पूछा – “माँ तुम्हे यह सब कैसे मालुम हुआ ?” स्त्री ने उत्तर दिया – “बेटा न मैं योग जानती हूँ, न तपस्या | मैंने तुम्हे इसलिए रुकने को कहा था, क्योंकि मैं अपने वीमार पति की सेवा कर रही थी | यही मेरा कर्तव्य है | जब अविवाहित थी, तब माता-पिता के प्रति पुत्री का कर्तव्य निर्वाह किया, और विवाह के बाद पति के प्रति अपना कर्तव्य निर्वाह कर रही हूँ | कर्तव्य परायणता के कारण ही मुझे तुम्हारे मनोभाव भी ज्ञात हो गए और वन की घटना भी | यदि तुम्हे उच्चतर तत्व जानने की इच्छा है तो अमुक नगरके बाजार में दूकान करते व्याध से मिलो |

सन्यासी उस शहर में गया और उसने मोटे छुरे से मांस काटते व्याध को देखा | उसे लगा कि भला यह व्याध मुझे क्या शिक्षा देगा ? तभी व्याध ने सन्यासी से पूछा – “ महाराज, क्या उस स्त्री ने आपको मेरे पास भेजा है ? मैं जरा अपना काम खतम कर लूं, तब तक आप कृपया बैठ जाइये | अरुचि के साथ सन्यासी बैठकर इंतज़ार करने लगा | काम समाप्त कर व्याध ने रुपये पैसे समेटे और सन्यासी से कहा – “ चलिए महाराज, घर चलिए” | घर पहुंचकर व्याध ने सन्यासी को तो आसन दिया और खुद अपने माता-पिता की सेवा में लग गया | मातापिता को स्नान भोजन इत्यादि कराने के बाद वह सन्यासी के पास आया और पूछा – “मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?” सन्यासी ने उससे आत्मा तथा परमात्मा संबंधी प्रश्न पूछे और उनके उत्तर में व्याध ने उसे जो उपदेश दिए वे महाभारत में “व्याध गीता” के नाम से प्रसिद्ध हैं |

सन्यासी को बड़ा अचम्भा हुआ और उसने कहा – “इतने ज्ञानी होते हुए भी आप इस व्याध शरीर में रहकर इतना घिनौना काम क्यों कर रहे हैं ? व्याध ने उत्तर दिया – “वत्स कोई भी कर्तव्य गंदा नहीं होता, अपवित्र नहीं होता | बचपन से ही मैंने केवल यही व्यापार सीखा है | मैं गृहस्थ के नाते अनासक्त भाव से अपना कर्तव्य करता हूँ | मैं न योगी हूँ न सन्यासी | कभी संसार छोड़कर वन में भी नहीं गया | जो कुछ तुमने सुना, वह मुझे कर्तव्य पालन से ही प्राप्त हुआ है |

- व्यास ने अपने पुत्र शुकदेव को तत्वज्ञान की शिक्षा के लिए जनक के पास भेजा | जनक को जानकारी मिली कि व्यास पुत्र उनके पास शिक्षा हेतु आ रहे है, तो उन्होंने कुछ पूर्व व्यवस्था की | जब शुकदेव राजमहल के द्वार पर आये तो संतरी ने उनकी ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया | केवल एक आसन भर दे दिया | तीन दिन शुकदेव उस आसन पर भूखे प्यासे निर्विकार बैठे रहे | न कोई उनसे कुछ बोला, न किसी ने कुछ पूछा | इसके बाद अचानक मंत्री और बड़े बड़े अधिकारी वहां आये और आदरपूर्वक एक सुशोभित घर में लिवा ले गए | इत्रों से उन्हें स्नान कराया गया, सुन्दर वस्त्र पहनाये गए और आठ दिन तक उन्हें विलासिता में रखा गया | किन्तु शुकदेव के प्रशांत चहरे पर कोई परिवर्तन नहीं हुआ | बालक शुक विलास में भी वैसे ही थे, जैसे कि महल के द्वार पर उपेक्षित स्थिति में | इसके बाद उन्हें राजा के दरवार में लाया गया | वहां नाचगान आमोद प्रमोद चल रहे थे | राजा ने बालक शुक के हाथ में लबालब दूध से भरा एक प्याला दिया और उनसे कहा – “इसे लेकर दरवार की सात बार प्रदक्षिणा करो, पर ध्यान रहे एक बूँद भी दूध न गिरे” | संगीत की ध्वनी तथा सुंदरियों के नृत्य के बीच शुक ने सात परिक्रमा पूरी की, किन्तु एक बूँद भी दूध नीचे नहीं गिरा | प्रदक्षिणा उपरांत जब वे वापस राजा के सम्मुख उपस्थित हुए, तो जनक ने कहा – “वत्स, जो कुछ तुम्हारे पिता ने तुम्हे सिखाया है, तथा जो तुमने स्वयं सीखा है, मैं उसकी केवल पुनरावृत्ति भर कर सकता हूँ | तुमने सत्य को जान लिया है, अपने घर वापस जाओ “|

- हिमालय में भ्रमण करते समय एक पहाडी गाँव में स्वामी जी ठहरे | सायंकाल ढोल की ध्वनी होने पर लोगों ने बताया कि किसी मनुष्य पर देवता चढ़ा है | घर्बाले के आग्रह और कौतुहलवश वे देखने गए | एक घुंघराले बाल बाले व्यक्ति पर देवता चढ़ा मानकर आग में लाल कुल्हाड़ी से उसके शरीर व बालों को स्पर्श कराया जा रहा था | किन्तु उस व्यक्ति के चहरे पर या शरीर पर उसका कोई प्रभाव नहीं हो रहा था | स्वामी जी अवाक रह गए | तभी गाँव के मुखिया ने आकर प्रार्थना की कि वे उस व्यक्ति का देवता उतार दें | विवश स्वामी जी को उस व्यक्ति के पास जाना पड़ा | उन्होंने पहले शंका निवारण के लिए कुल्हाडी को स्पर्श किया | उनका हाथ झुलस गया | अपने दर्द को काबू में कर उन्होंने उस देवाताविष्ट मनुष्य के सर पर हाथ रखकर कुछ देर जप किया | वह व्यक्ति तो ठीक हो गया, किन्तु स्वामी जी को कुछ पल्ले नहीं पड़ा | बाद में उन्होंने लिखा – “There are more things in heaven and earth than dreamt of in your philosophy”. ‘प्रथ्वी और स्वर्ग में ऐसी अनेक घटनाए हैं, जिनका संधान दर्शनशास्त्रों ने स्वप्न में भी नहीं पाया |’

- एक गरीब मनुष्य ने देवता से वर प्राप्त किया था | देवता ने प्रसन्न होकर कहा – तुम ये पांसा लो | इस पांसे को तुम तीन बार तीन कामनाओं से फेंक सकते हो, वे तीनों कामनाएं पूरी हो जायेंगी | गरीब खुशी से झूमता हुआ अपनी पत्नी के पास पहुँचा और उसके साथ परामर्श करने लगा कि क्या वर मांगना चाहिए | स्त्री ने कहा – धन दौलत मांगो | किन्तु पति ने कहा – देखो, हम दोनों की नाक चपटी है, उसे देखकर लोग हमारी बड़ी हंसी करते हैं | अतएव पहली बार पांसा फेंककर सुन्दर नाक की प्रार्थना करनी चाहिए | दोनों में खूब वहस होने लगी | झुंझलाए पति ने पांसा फेंककर कहा कि हम लोगों को तो सुन्दर नाकें चाहिए और कुछ नहीं | और ये क्या दोनों के शरीर पर ढेरों नाकें उत्पन्न हो गईं | अब दोनों परेशान कि ये क्या विपत्ति आई | इस बार पांसा फेंककर कहा नाक चली जाएँ | और नाक चली गईं, पर अब एक भी नहीं बची | जो गाँठ की थी, बह भी गायब | दोनों बहुत परेशान | अब सोचा की अगर अच्छी नाक मांग भी ली, तो लोग देखकर पूछताछ करेंगे | अगर लोगों को पूरी बात पता चली तो सब मूर्ख कहकर मजाक बनायेंगे | इससे अच्छा है कि जैसी पहले थी, बैसी ही नाक मांग ली जाए | जैसे ही पुरानी नाक आई तो दोनों ने राहत की सांस ली और भगवान को धन्यवाद दिया कि हे प्रभु तुमने जो दिया है उससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता, वही सबसे अच्छा है |

- यूरोपवासियों के देवता ईसा उपदेश देते हैं कि किसी से वैर मत करो, यदि कोई तुम्हारे बाएं गाल पर चपत मारे तो दाहिना गाल भी घुमा दो, सारे कामकाज छोड़कर परलोक में जाने के लिए तैयार हो जाओ, क्योंकि दुनिया दो चार दिन में ही नष्ट हो जायेगी | और हमारे इष्ट देव ने उपदेश दिया है कि खूब उत्साह से काम करो, शत्रु का नाश करो और दुनिया का भोग करो | किन्तु सब उलटा पुलटा हो गया है | यूरोपियनों ने ईसा की बात नहीं मानी | सदा महारजोगुणी, महा कार्यशील होकर बहुत उत्साह से देश देशान्तरों के भोग और सुख का आनंद लूटते हैं और हम लोग गठरी-मोटरी बांधकर एक कौने में बैठकर रात दिन मृत्यु का ही आह्वान करते हैं और गाते हैं – नलिनीदलगतजलमतितरलम तद्वतजीवितमतिशयचपलम | कमल के पत्ते पर पडा हुआ जल जितना तरल है, हमारा जीवन भी उतना ही चपल है | यम के भय से हमारी धमनियों का रक्त ठंडा पड जाता है और सारा शरीर कांपने लगता है | इसीसे यम को भी हम पर क्रोध हो गया है और उसने दुनिया भर के रोग हमारे देश में घुसा दिए हैं | अब बताओ गीता का उपदेश किसने सुना ? यूरोपियनों ने | और ईसा की इच्छा के अनुसार कौन काम करता है ? श्री कृष्ण के वंशज | इसे अच्छी तरह से समझना होगा |



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