जरूरी है सभी धर्म के लोगों को छोटे परिवार के महत्व को समझना |


टाइम्स ऑफ इण्डिया के 22 जनवरी के अंक में महत्वपूर्ण खबर छपी कि भारत में एक दशक में मुसलमानों की आबादी 24 फीसदी बढ़ी और उनकी तुलना में हिन्दुओं की आबादी घटी है। इसी खबर को आज के कुछ हिन्दी अखबारों ने भी छापा है। जनसंख्या असंतुलन को लेकर हिन्दू संगठन विशेष रूप से विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) के कुछ नेता अपने भाषणों में कहते रहे हैं कि मुस्लिमों की तुलना में हिन्दू आबादी कम होना हिन्दू संस्कृति पर गंभीर संकट है | इस संकट का सामना करने के लिए हिन्दूओं को भी ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करना चाहिए। 

अखबारों में छपी खबरों के अनुसार देश की कुल जनसंख्या 18 प्रतिशत बढी है किन्तु देश में मुस्लिमों की आबादी 2001 से 11 के दौरान 24 प्रतिशत बढ़ी है। वहीं देश की कुल जनसंख्या में मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व 13.4 प्रतिशत से बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गया है । जनसँख्या के संतुलन में कोई भी परिवर्तन स्वाभाविक ही पारस्परिक अविश्वास को जन्म देगा | यह इसलिए भी होगा क्योंकि जनसँख्या के आधार पर पूर्व में भी भारत का विभाजन हो चुका है | यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि जनसंख्या का अनुपात सबसे अधिक आसाम, बंगाल जैसे सीमावर्ती राज्यों में बढ़ा है, यहाँ कभी भी पाकिस्तान के साथ जुड़ने की मांग उठने का भय हिन्दुओं के मन मस्तिष्क को प्रभावित करता रहेगा | 

सवाल उठता है कि बढ़ती हुई मुस्लिम आबादी को बेलेंस करने के लिए यदि हिन्दू भी ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने लगें तो क्या होगा ? क्या भारत की खाद्य समस्या, पेय जल समस्या, आवास समस्या, रोजगार समस्या और ज्यादा नहीं बढ़ जायेगी ? आबादी किसी भी धर्म, किसी भी जाति के लोगों की बढ़े देश के लिए समस्या ही है। इसलिए भारत सरकार को जनगणना पंजीयक के 2001-2011 के जनसंख्या आंकड़ों को गंभीरता से लेते हुए अपनी परिवार नियोजन नीति की समीक्षा करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मुस्लिम भी परिवार नियोजन साधनों को अपनाएं, छोटे परिवार के महत्व को समझें । 

सरकार को सभी धर्मों-हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन के गुरूओं, संतो, मुनियों को एक साथ बिठाकर देश की बढ़ती जनसंख्या से हो रही दिक्कतों के समाधान में उन्हें भी सहभागी बनाना चाहिए। जब तक सभी धर्म के लोग छोटे परिवार के महत्व को नहीं समझेंगे, तब तक ज्यादा बच्चे पैदा करने की होड़ नहीं रुक सकती । 


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