व्यक्ति बड़ा या समाज ?


बुद्ध से जब पूछा गया कि वृक्ष सत्य है या वन ? उन्होंने उत्तर दिया, वन नहीं, वृक्ष सत्य है | व्यक्ति सत्य है, समाज नहीं | वस्तुतः व्यक्तिजनित व्यवस्था भी युग परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है | भारतीय मनीषा की मान्यता है कि राजा युग निर्माता होता है |

कृतंत्रेता युगं चैव, द्वापरं कलिरेव च |

राज्ञो वृत्तानि सर्वाणि राजा हि युगमुच्यते |

राजा अपने राज्य में सत्ययुग ला सकता है, त्रेता द्वापर या घोर कलियुग पैदा कर सकता है |व्यक्ति चरित्र में आये हुए पतन अथवा उत्थान की लाभ हानि समाज को प्राप्त होती है | व्यष्टि जनित क्रियाकलाप की भुक्तभोगी पूरी सृष्टि होती है, न केवल व्यक्ति |

उद्धरेदात्मनात्मानां नात्मानमवसादयेत |
आत्मैव ह्यात्मनो बंधूरत्मैव रिपुरामनः ||

मनुष्य अपने द्वारा अपना उद्धार करे | अपनी आत्मा को अधोगति में न पहुंचाए | जीवात्मा स्वयं ही अपना मित्र और शत्रु दोनों है |

यही आर्य सत्य गौतम बुद्ध ने भी दोहराया है –
अत्ता हि अत्तनोनाथो अता हि अत्तनो गति |

मनुष्य आप ही अपना स्वामी है, आप ही अपनी गति है |

अत्ता ह वे जितं सेय्यो या चायं इतरा पजा |

दूसरों को जीतने से पहले अपने आप को जीतना ही श्रेष्ठ है | (धम्मपद)

स्पष्ट है कि व्यक्ति को समाज से पहले महत्व दिया गया है, क्योंकि समाज व्यक्ति से बनता है | व्यक्ति समाज का निर्माता है | वह जैसा होगा, समाज भी वैसा ही होगा | यद्यपि साधना पद्धति व्यक्ति के लिए होती है, एकान्तिक होती है, किन्तु उसका प्रभाव समाज पर भी पड़ता है –

कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुंधरा पूण्यवती चतेन |
अपार संवित सुख सागरेSस्मिन लीनं परब्रह्माणि यस्य चेतः ||

जिसका चित्त अपार सुख सागर रूप परब्रह्म में लीन हो जाता है, उसका कुल पवित्र हो जाता है, जननी कृतार्थ हो जाती है, उसकी वसुंधरा पुण्यवती हो जाती है | व्यक्तिगत साधना का सामाजिक प्रतिफलन अवश्यमेव होता है | यह स्वयंसिद्ध है |

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