गंगा-जमुनी तहजीब का सच - डॉ. अम्बिकादत्त शर्मा


भारत में विचारकों की कई टोलियाँ मानती हैं कि भारत में इस्लाम के आगमन के बाद एक गंगा जमुनी संस्कृति का विकास हुआ | किन्तु वे इस तथ्य को भूल जाते हैं कि यह भारत में ही क्यों संभव हुआ, अन्यत्र क्यों नहीं ? उदाहरण के लिए तुर्किस्तान, मिश्र, सीरिया, ईरान, ईराक, अफगानिस्तान और इंडोनेशिया में भी तो इस्लाम के पूर्व समृद्ध संस्कृतियाँ विद्यमान थीं, लेकिन वह सब कहाँ लुप्त हो गईं ? वहां मिश्रित संस्कृति क्यों नहीं बनी ?

फिर यह भी सोचने की बात है कि भारत से महज 1947 में अलग हुए पाकिस्तान में मिश्रित संस्कृति कहाँ गम हो गई ? अतः इस सन्दर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि स्पेन से लेकर मध्य एशिया तक जहां भी इस्लाम का प्रसार हुआ, वहां समिश्र संस्कृति का कोई इतिहास नहीं है | भारत में यदि कुछ सौ वर्षों में कथित गंगा-जमुनी संस्कृति बनी भी तो इसका निहितार्थ इस्लामी विश्वविजय का भारत में पराभव ही है | यहाँ यह भी समझना चाहिए कि बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के बावजूद भारतीय मुसलमान वह नहीं बन पाए, जो इस्लाम का आदेश था | इसीलिए बीसवीं सदी में यहाँ तबलीगी आन्दोलन चलाया गया ताकि भारत के मुसलमान भारत से विमुख होकर अरबमुखी बन सकें |

लाला लाजपतराय, जवाहरलाल नेहरू और इतिहासकार ताराचंद जैसे लोगों का मानना था कि भारत में मुस्लिम शासन वस्तुतः विदेशी शासन था ही नहीं | इस्लामी शासकों ने यहाँ की हिन्दू स्त्रियों से विवाह रचाए और उसके बाद यहाँ न कोई विजेता रहा और न कोई विजित | सबकेसब घुलमिल गए | किन्तु इसके विपरीत परिद्रश्य यह है कि क्या किसी हिन्दू शासक ने भी मुस्लिम स्त्री से विवाह किया और उसे सामाजिक मान्यता मिली ? अमीर खुसरो ने तो नाक भोंह सिकोड़ते हुए यहाँ तक कहा कि –

हिन्दुओं का तो अस्तित्व ही तुर्कों के लिए है | वे जब चाहें इन्हें इन्हें पकड़ते हैं, खरीदते हैं, बेचते हैं | यदि हिन्दुओं से जजिया लेकर उनकी जान नहीं बख्शी होती तो हिन्दुओं का नामोनिशान ही मिट जाता |
संक्षेप में कहा जाए तो भारत की गंगा-जमुनी तहजीब भारत की उस चिंतन धारा के कारण है, जिसमें अनेक धार्मिक आस्थाओं के सहअस्तित्व को स्वीकृति है | भारतीय संस्कृति में आत्मसातीकरण की अद्भुत क्षमता है | कोई भी धर्मावलम्बी अपनी धार्मिक आस्था को अक्षत रखते हुए भारतीय संस्कृति का अंग हो सकता है | किन्तु इसके विपरीत इस्लाम या अन्य किसी धार्मिक संस्कृति में किसी दूसरी धार्मिक आस्था के लिए कोई स्थान नहीं है |
भारतीय संस्कृति की इस अजस्त्र धारा का प्रगटीकरण महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के इन शब्दों से होता है –
हेथाय आर्य हेथा अनार्य, हेथाय द्राविड चीन |
शक-हूण-दल-पाठान-मोगल, एक देहे हो लीन |

इसी सचाई को हाली मुसद्दस ने स्वीकारते हुए कहा -

किये पै सिपर जिसने सातों समुन्दर,
वो डूबा दहाने में गंगा के आकर |
रहा शिर्क बाक़ी न बह्मोगुमां में,
वो बदला गया आ के हिन्दोस्तां में || 

“बसुधैव कुटुम्बकम” की भारतीय सनातन विरासत, और उसकी महानता दुनिया में आज भी बेमिसाल है |

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