प्रेम अमर है - आचार्य रजनीश (नारद भक्ति सूत्र)

नारद भक्ति सूत्र में भक्ति की परिभाषा करते हुए कहा गया है -

सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा, अमृतस्वरूपा च। 

यल्लब्ध्वा पुमान सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति।

सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा" ईश्वर शब्द का प्रयोग नहीं किया है। ईश्वर शब्द नहीं है—"उसके प्रति", त्वस्मिन ! बड़ा फर्क है। जिन्होंने भी हिंदी में अनुवाद किये हैं, उन्होंने बात को संकीर्ण कर दिया।

उसके प्रति“— उसका नाम नहीं हो सकता, इशारा है। उसे ईश्वर कहने से बात हल न होगी। क्योंकि उसे ईश्वर कहने से ही हम उसकी परिभाषा कर देंगे।

ईश्वर शब्द का अर्थ होता है, ऐश्वर्यवान, सारा ऐश्वर्य जिसका है, वह ईश्वर। यह हमारी परिभाषा है, क्योंकि हम ऐश्वर्य की भाषा में सोचने के आदी हो गये हैं। हमारे लिए ईश्वर ऐसा है जैसे सम्राट, सारे जगत का है, पर है सम्राट ही। धन की भाषा में हम सोचने के आदी हो गये हैं, ऐश्वर्य की भाषा में सोचने के आदी हो गए हैं, तो ईश्वर कहते हैं।

लेकिन धन से, और ईश्वर का क्या लेना-देना, ऐश्वर्य से और ईश्वर का क्या संबंध, सम्राटों से उसकी कल्पना करनी ठीक नहीं। इसलिए संस्कृत शब्द ठीक है : त्वस्मिन—"उसके प्रति"। नाम मत दो उसे। नाम तुम दोगे, तुम्हारा नाम होगा, तुम्हारा मन प्रविष्ट हो जाएगा। सिर्फ इतना ही कहो : "उसके"। इशारा करो। अंगुली बता दो। शब्द मत दो।

वह अनाम है, नाम में मत घसीटो।

वह अरूप है, रूप का आग्रह मत करो।

वह निराकार है, तुम कोई आकार मत दो।

ईश्वर शब्द आते ही, तुम्हारे मन में आकार उठने शुरू हो जाते हैं।

सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा: उसके प्रति परमप्रेमरूप है। न नाम का पता है, न धाम का पता है। इसका क्या अर्थ हुआ, इसका अर्थ यह हुआ कि प्रेम तो नाम-धाम के बिना नहीं हो सकता, भक्ति हो सकती है। प्रेम के लिए तो नाम-धाम चाहिए।

तुम अगर कहो कि मैं प्रेम में पड़ गया हूं, और कोई पूछे, "किसके प्रति", तुम कहो, "इसका कुछ पता नहीं", तो तुम पागल हो।

प्रेम तो साकार के प्रति है, इसलिए नाम पता है। प्रेम का तो कोई एड्रेस है, पत्र लिखा जा सकता है। परमात्मा का कोई एड्रेस नहीं, पत्र लिखा नहीं जा सकता। परमात्मा के लिए तो बड़ा बावला पन चाहिए। निराकार के प्रति प्रेम! इसका अर्थ यह हुआ कि आब्जैक्ट, विषय तो खो गया, सब्जैक्ट, केवल तुम्हीं बचे।

जिन्होंने परमात्मा के प्रति प्रेम जाना, उन्होंने वस्तुत: यही जाना कि वहां कोई भी नहीं है। बस प्रेम ही प्रेम है। असल में परमात्मा के प्रति प्रेम कहना ठीक नहीं है, वहां "प्रति" है ही नहीं। वहां सिर्फ प्रेम का निवेदन है, किसी के प्रति नहीं है, सिर्फ प्रेम का आविर्भाव है, शुद्ध प्रेम की ऊर्जा का उठान है, उत्थान है, ऊर्ध्वगमन है, किसी के प्रति नहीं है।  

इसलिए सूत्र कहता है :"वह उसके प्रति परम प्रेमरूपा है" । परम प्रेम तभी है जब प्रेमी की भी जरूरत न रह जाए। जब तक प्रेमी की जरूरत है, तब तक तुम्हारा प्रेम परम प्रेम नहीं है, निर्भर है। निर्भर है तो शुद्ध नहीं हो सकता। जिससे तुम प्रेम करोगे, वह तुम्हारे प्रेम को रंग देगा, जिसको तुम प्रेम करोगे वह तुम्हारे प्रेम को ढंग देगापरम नहीं हो सकता।

परम प्रेम तब है जब न प्रेमी रहा न प्रेयसी रही, जब द्वंद्व खो गया।

"वह भक्ति परम प्रेमरूपा है और अमृतस्वरूपा है"| क्योंकि जिसने परम प्रेम जाना, फिर उसकी कोई मृत्यु नहीं। क्यों, क्योंकि वह तो मर ही चुका, अब मरेगा कैसे , मरना तो तभी तक शेष है जब तक तुम मिटे नहीं, मरे नहीं। मौत तो तभी तक डराएगी जब तक तुम हो। जिसने अपने को खो दिया उसकी कैसी मौत ? उसने मौत पर विजय पा ली! वह अमृस्वरूप को उपलब्‍ध हो गया!

ध्यान रखना: अहंकार की ही मृत्यु होती है, तुम्हारी कभी नहीं होती, कभी हुई नहीं, हो नहीं सकती। तुम शास्वत हो, सनातन हो, सदा थे, सदा रहोगे। तुम चाहो भी अपने को मिटा लेना तो नहीं मिटा सकते। मौत होती ही नहीं। तुमने अपनी एक अहंकार की प्रतिमा बना रखी है। परमात्मा से जुदा तुमने अपने को "मैं" कहने का भाव बना रखा है। वही मैं- भाव मरता है। चूंकि तुम उससे बड़े जुड़े हो, तुम्हें लगता है, "मैं" मरा ! 


“यल्लब्ध्वा पुमान सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति।” 

“उस भक्ति को प्राप्त कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है और तृप्त हो जाता है"। … “सिद्ध हो जाता है” ! सिद्ध का अर्थ होता है: जो होने को थे वही हो गये। जो बीज की तरह लाये थे वह खिल गया फल की तरह । 

सिद्ध का अर्थ होता है : अब और साधना करने को न रही, अब और कोई साध्य न रहा, अब सभी साधनों के पार हो गये। 

सिद्ध का अर्थ होता है : तुमने पा लिया अपने स्वभाव को, अपने स्वरूप को, पहुंच गए उस परम मंदिर में जिसकी तलाश थी, जन्मों-जन्मों अनंत काल तक जिसे खोजा था, जिसके लिए भटके थे। 

स्वयं को खोते ही व्यक्ति सिद्ध हो जाता है। इसका अर्थ हुआ कि सारा भटकाव अहंकार का है। तुम इसलिए नहीं भटकते कि कोई तुम्हें और भटका रहा है, तुम इसलिए भटकते हो कि तुम हो। जब तक तुम हो, भटकोगे। तुम मिटे कि पहुंचे। मिटने में ही पहुंच जाना है। होने में ही भटकना है। 

“अमर हो जाता है, तृप्त हो जाता है।” 

जिस भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न द्वेष करता है, न आसक्त होता है और न उसे विषय-भोगों में उत्साह होता है।

इब्तिदा वो थी कि जीने के लिए मरता था मैं 

इतिन्हा ये है कि मरने की भी हसरत न रही। 

निजाम हैदराबाद भक्त आदमी थे। लेकिन मैंने सुना है कि वे दुनिया के सबसे बड़े संपत्तिशाली आदमी थे। इतनी बड़ी संपत्ति और किसी के पास नहीं। लेकिन कृपण तुम ऐसा आदमी न पाओगे। जो टोपी उन्होंने सिंहासन पर बैठते वक्त पहनी थी, वे चालीस साल उसको पहने रहे। उससे बास आती थी। वह इतनी गंदी हो गयी थी। वे उसका धुलने नहीं देते थे, क्योंकि धुलने में कहीं बिगड़ न जाए, कहीं खराब न हो जाए। वे मरते दम तक उसी को पहने रहे। मेहमान सिगरेट अधजली छोड़ जाते तो ऐश-ट्रे से वे इकट्ठी कर लेते थे–खुद पीने के लिए! यह तुम भरोसा न करोगे। और यह आदमी भक्त था! पांच बार इबादत करता था भगवान की। यह असंभव है। यह बिलकुल असंभव है। 

यह आदमी किसको धोखा दे रहा है, अभी तो इस आदमी के जीवन में प्रेम भी नहीं है। जली सिगरेटें, झूठी सिगरेटें संभालकर रख लेना, फिर फुर्सत से पीएंगे! 

जहां भी तुम कृपण को पाओ, वहां तुम समझ लेना कि अगर वह भगवान की बातें कर रहा हो, प्रेम और भक्ति की बातें कर रहा हो, तो वे किसी गहरे घाव को छिपाने की तरकीबें हैं। कृपण कभी भक्त नहीं हो सकता। कृपण प्रेमी ही नहीं हो पाता। वह पहली ही सीढ़ी नहीं चढ़ता, दूसरी पर तो पहुंचेगा कैसे , 

जब तुम प्रेम करते हो, तत्क्षण तुम्हारी पकड़ वस्तुओं से उठ जाती है, तुम भेंट कर सकते हो, दान दे सकते हो! और देकर तुम प्रसन्न होते हो, उदास नहीं। और जो तुमसे ले लेता है, तुम उसके अनुगृहीत होते हो कि उसने हलका किया। तुम ऐसा नहीं सोचते कि वह तुम्हारा अनुगृहीत होए, क्योंकि अगर उतना भी रह गया तो सौदा हुआ फिर तुम कृपण हो। हिंदुस्तान में रिवाज है कि ब्राह्मण घर आये तो पहले उसे भेंट दो, दान दो, फिर दक्षिणा भी दो। दक्षिणा का मतलब होता है धन्यवाद कि तुमने भेंट स्वीकार की! दक्षिणा बड़ा अदभुत शब्द है! पहले दो, और चूंकि ब्राह्मण ने स्वीकार किया, वह इनकार भी कर सकता था, फिर दक्षिणा दो कि धन्यभाग कि तुमने स्वीकार किया! तुम इनकार कर देते तो मेरा प्रेम अधूरा वापस लौट आता! इसलिए प्रेमी अनुगृहीत होता है देकर। भक्त सब लुटाकर अनुगृहीत होता है। 

काम ऐसे है जैसे पिंजरे में बंद पंछी, कहीं जाता नहीं, वहीं पिंजरे में ही उछल-कूद करता रहता है, वहीं हलन-चलन करता रहता है। बस पिंजरा उसकी सीमा है। 

प्रेम ऐसे है जैसे कबूतर उड़ते हैं आकाश में, फिर अपने घर में वापस लौट आते हैं। पिंजरों में बंद नहीं हैं। न लौटें तो कोई उन्हें बुलाता नहीं है, कोई पकड़ने नहीं जा सकता, अपने से लौट आते हैं। घर के ऊपर एक छत्ता लगा दिया होता है। उड़ते हैं दूर आकाश में, बड़ी दूर की यात्रा करते हैं, थकते हैं, लौट आते हैं वापस। प्रेमी ऐसे पक्षी हैं जो पिंजरों में बंद नहीं हैं, जाते हैं दूर अपने से पार, लौट-लौट आते हैं। भक्त ऐसा पक्षी है जो गया सो गया, उसका लौटने का कोई घर नहीं है। उसका घर सदा आगे है—और आगे! वह जब तक परमात्मा तक ही न पहुंच जाए तब तक यात्रा जारी रहती है। 

“भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न द्वेष करता है, न आसक्त होता है, और न उसे विषय- भोगों में उत्साह होता है।”

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