पौराणिक महिषासुर और वर्तमान आतंकवाद !

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दैवीय और आसुरी शक्तियों का संघर्ष युगों से चला आ रहा है | दुष्ट अमूमन शक्तिसंपन्न भी होते हैं | इसलिए दुष्ट शक्ति के सम्मुख कई बार सज्जन शक्ति पराजित भी होती है | आज जबकि विश्व में आतंकवाद के रूप में महिषासुर सर उठा रहा है, ऐसे समय में क्या करना उचित है, इसका मार्गदर्शन दुर्गा सप्तशती के दूसरे और तीसरे अध्याय में मिलता है | 

संक्षेप में कहा जाए तो जब महिषासुर के सम्मुख देवता पराजित हो गए, स्वर्ग से निकाल दिए गए, सामान्य मानवों के समान प्रथ्वी पर विचरने को बाध्य हो गए, तब सब एकत्र होकर भगवान् विष्णु और शंकर जी के पास गए | उस समय समस्त देवताओं के शरीर से निकले तेज ने एक नारी रूप लिया और फिर महिषासुर का वध किया | इसका वर्णन दुर्गा सप्तशती में इस प्रकार किया गया है –

ततोSतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वादानात्ततः |
निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च ||10||
अन्येनां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः |
निर्गतं सुमाहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत ||11||
अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम |
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा ||13||

(अत्यंत क्रोध से भरे हुए चक्रपाणि भगवान विष्णु के मुख से एक महान तेज प्रकट हुआ | इसी प्रकार ब्रह्मा, शंकर तथा इंद्र आदि अन्यान्य देवताओं के शरीर से भी बड़ा भारी तेज निकला | वह सब मिलकर एक हो गया | समस्त देवताओं के शरीर से प्रकट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी | एकत्रित होकर वह एक नारी के रूप में परिणित हो गया |)

इस कथानक की व्याख्या दो प्रकार से हो सकती है, और दोनों ही व्याख्या आज के समय में अत्यंत मार्गदर्शक हैं | पहली तो यह कि दुष्ट शक्ति को पराजित करने के लिए सज्जन शक्ति के सामूहिक प्रयत्न की आवश्यकता होती है | कई बार एक अकेले व्यक्ति का व्यक्तिगत पराक्रम अपर्याप्त होता है | 

और दूसरा यह कि इस कथानक को नारी के उत्पन्न होने की घटना भी माना जा सकता है उस दृष्टि से विचार करें तो नारी में समस्त देवताओं का अंश है | नारी को पूज्य मानने की यह भारतीय संकल्पना पश्चिमी मान्यता से एकदम भिन्न है, जहाँ नारी को केवल हाडमांस का पुतला मानकर केवल भोग्या रूप में ही देखा जाता है | इस्लाम में तो उसे प्राण विहीन जड़तत्व ही माना गया है | 

हम सांसारिक लोग महामाया भगवती और उनकी दैवीय शक्ति की क्या व्याख्या करेंगे ? वे जैसी भी हैं, जो भी उनका स्वरुप है, हमारी कल्पना से परे है | इसलिए श्रद्धा भक्ति से उनका स्मरण करना ही श्रेयस्कर है | जब महामाया भगवती ने महिषासुर का वध कर दिया तब देवताओं ने उनकी जो स्तुति की, उसके कुछ अंश भी बहुत ध्यान देने योग्य और विचारणीय हैं –

या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेश्वलक्ष्मीः,
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः |
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा,
तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम ||
जो पुण्यात्माओं के घरों में लक्ष्मी रूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रता रूप से, शुद्ध अन्तःकरण वाले पुरुषों के ह्रदय में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धा रूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जा रूप से निवास करती हैं, उन भगवती दुर्गा को बारम्बार प्रणाम है | हे माँ आप ही विश्व का पालन करने वाली हैं |

क्या इसका अर्थ यह निकाला जाए कि जो धनवान हैं, वे पुण्यात्मा और जो दरिद्र हैं वे पापी हैं ? नहीं कदापि नहीं ! पुण्यात्माओं के यहाँ जो श्री संपत्ति है वही दैवीय है | पापियों के यहाँ जिस दरिद्रता की बात देवताओं ने कहीं है, वह भी अगले ही वाक्य में स्पष्ट कर दी गई है | शुद्ध अन्तःकरण वाले पुरुष की सात्विक बुद्धि मां भगवती का स्वरुप है, उसी प्रकार देवी स्वरूपा श्रद्धा भी सत्पुरुषों में होती है, लज्जा भी कुलीन व्यक्ति में ही देखने को मिलती है | पापियों के पास ना तो सात्विक बुद्धि होती, ना ही श्रद्धा और न ही लज्जा | अतः वे वस्तुतः दरिद्र ही होते हैं | 

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिम शेषजन्तौः,
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि |
दारिद्र्यदुःखभयहारिणी का त्वदन्या,
सर्वोपकारकरणाय सदाSSर्द्रचित्ता ||
जिनका स्मरण करने मात्र से प्राणी निर्भय हो जाते हैं, स्वस्थ चित्त से जिनका स्मरण शुभत्व प्रदान करता है, हे मां दारिद्र्य, दुःख, भय सबका नाश करने वाला आपके समान अन्य कौन है, आपतो सदा उपकार ही करती हो, सदा दया ही करती हो |

मां जगदम्बा को बारम्बार प्रणाम !

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