ईराक में आतंकवादियों की पराजय का अर्थ होगा सुन्नियों का बेरंग भविष्य |



हालांकि ईराक के राजनेता इस बात पर एकमत हैं कि अगर आईएसआईएस को हराना है तो उसके लिए सुन्नी अरबों का समर्थन आवश्यक है | अगर पूरे समुदाय का समर्थन न भी मिले तो भी कुछ का सहयोग तो मिलना ही चाहिए | किन्तु परिस्थिति यह है कि बगदाद सरकार सुन्नियों पर भरोसा नहीं कर पा रही | पारस्परिक अविश्वास के इस दौर में स्वाभाविक ही सुन्नीयों में आतंरिक असंतोष भी पनप रहा है ।

बहुत से सुन्नी चरमपंथियों से नफरत करते हैं | उनकी बेरहम हिंसा, व्यक्तिगत व्यवहार में मनमाने ढंग से बनाए गए ऐसे नियम, जिनका शरीयत की कठोरतम व्याख्या से भी कोई सम्बन्ध नही, इसका मूल कारण है | तथ्य यह है कि बहुत से सुन्नी यातो आईएसआईएस के विरोधी हैं या उनसे बेहद डरे हुए हैं | और यही बग़दाद के लिए एक अवसर भी है | पूर्ववर्ती, नूरी अल-मलीकी की तुलना में वर्तमान प्रधानमंत्री हैदर अल-अबादी की सरकार अधिक समावेशी है | सत्ता में अपने आठ साल के दौरान श्री मलीकी द्वारा अपनाई गई आक्रामक सांप्रदायिक नीतियों के कारण सुन्नी शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन से सशस्त्र प्रतिरोध की ओर मुड़े तथा आईएसआईएस के हाथों में पहुँच गए | 

लेकिन नई सरकार की उसके गैर-सांप्रदायिक रुख के चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना हो रही है, उससे सुन्नी आशान्वित हुए हैं कि उन्हें अपेक्षाकृत कम दमन का सामना करना पडेगा । लेकिन उनके लिए स्थिति इतनी आसान भी नहीं है | आईएसआईएस की करतूतों के चलते उन्हें बदले की कार्यवाही का सामना करना ही पड़ता है | 

लेकिन अपना नाम न जाहिर करने की शर्त पर एक व्यक्ति ने जो स्थिति बयान की वह स्थिति की विकटता का परिचायक है | उसका कहना था कि – 

इसका उदाहरण है रमादी की पुलिस का व्यवहार | लगभग छः लाख की आवादी वाला रमादी सुन्नी बहुल प्रांत अनवर का एक बड़ा शहर है | आइएसआइएस और सरकारी बलों के संघर्ष के चलते यहाँ की 80 प्रतिशत आवादी पलायन कर गई है । आईएसआईएस ने पिछले सप्ताह ही एक साथ सात आत्मघाती बम हमले किये हैं तथा रमादी के अधिकाँश भाग पर कब्जा कर लिया है ।

विस्थापितों के लिए सरकार द्वारा बनाये गए शिविरों में हालत बेहद खराब हैं | ना तो पर्याप्त खाद्य सामग्री है ना ही ईधन और बिजली की आपूर्ति | आपूर्ति के लिए आने वाले ट्रक आइएसआईएस की चौकियों और मैदान में घात लगाकर किये गए हमलों का शिकार हो जाते हैं । नतीजतन खाद्य सामग्री की कीमतों में तेजी से वृद्धि हो रही है और अल-कैम और अल बगदादी जैसे दूरस्थ शहरों के वासिंदे चारा खाने को विवश हो रहे हैं।

स्कूल विद्यार्थियों के लिए बंद हो चुके हैं, क्योंकि वे वे शरणार्थियों से भरे हुए हैं । और सबसे ख़राब स्थिति यह है कि स्थानीय पुलिस सुन्नीयों के लिए पूरी तरह हिंसक है | विस्थापितों को उनके भ्रष्टाचार का भी सामना करना पड़ता है ।

रमादी के पुलिस स्टेशन में पुलिस सुन्नी को गिरफ्तार करने के बाद यातना देती है और उनको तब तक रिहा नहीं करती, जब तक कि उनके परिवार के लोग रिश्वत न दे दें | रिश्वत भी 5000 डॉलर तक | 

निगरानी के सभी पुराने तरीकों के साथ पुलिस दुकानदारों को भी मजबूर करती है कि वे अपने ग्राहकों की जासूसी करें और अपनी दैनिक रिपोर्ट सोंपें । स्वाभाविक ही सुन्नी लोग नई “अबादी सरकार” के वायदों पर भरोसा नहीं कर पा रहे - अमेरिका और यूरोप के इरादों पर भी सभी सशंकित रहते हैं ।

आइएसआईएस का उद्भव -

घटनाओं का विवरण देने वाले व्यक्ति के परिवार को बहुत कुछ भुगतना पड़ा, क्योंकि अनबर प्रांत पर जिहादी समूह का कब्जा हो गया । अपने दो मकानों की सुरक्षा की चिंता में केवल उसके पिता रमादी में रुके । इस परिवार का तीसरा मकान फालुजा में है, जिस पर भी आईएसआईएस का कब्जा हो चुका है | अब परिवार को नहीं पटकी उस मकान का क्या होगा | आईएसआईएस के अधिकारी घर घर जाकर पता करते हैं, यदि किसी मकान का मालिक घर छोड़कर चला गया है, तो उसे वापस आने के लिए दस दिन का समय देते हैं, अन्यथा संपत्ति जब्त कर लेते हैं ।

आईएसआईएस को नापसंद करने वाले सुन्नियों की परेशानी यह है कि वे बगदाद सरकार पर भी भरोसा नहीं कर पा रहे । एक शिक्षक माउद मोहम्मद आबेद विगत 2012 से जेल में हैं | उन्हें ऐसी हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा हुई है, जो उन्होंने किया ही नहीं है | उनकी पत्नी और बेटी पूरी तरह बेसहारा है । उनके खिलाफ कोई सबूत भी नहीं है | एकमात्र सबूत अगर कोई है तो वन है, यातना देकर कराया गया उनका कंफेसन | पूछताछ के बाद उनके शरीर पर चोटों के निशान के फोटोग्राफ उनके परिवार के पास हैं | उनकी सजा अंततः खारिज हुई, लेकिन उसके बाद भी वे जेल से रिहा नहीं किये गए | ऐसे एक नहीं 1500 से अधिक मामले हैं | उनकी पत्नी जेल में उनसे मिलने गई तो उसे मालुम हुआ कि चार वर्ग मीटर के सेल में उनके साथ सात अन्य कैदियों को रखा गया है | 

माउद जैसे अनुभव काफी आम हैं | फालुजा के पास के गांवों से कई युवा सुन्नी सजा के इंतज़ार में जेलों में बंद हैं | उन्हें टॉर्चर किया जाता है के वे बड़े बड़े अपराधों को कबूल कर लें । वे केवल एक ही तरीके से मुक्त हो सकते हैं, और वह तरीका है अधिकारीयों को बड़ी रिश्वत ।

यह किसी एक व्यक्ति की कहानी नहीं है, ईराक के पूरे सुन्नी समुदाय की पीड़ा है जिसे वे बदकिस्मती के रूप में देखते हैं । क्योंकि इराकी सुन्नी आईएसआईएस और सरकार के संघर्ष में पिस रहे हैं | सुन्नियों को डर सता रहा है कि यदि आईएसआईएस की पराजय हुई तो वे मुल्क छोडने को उसी तरह विवश हो जायेंगे, जैसे कि पूर्व में ईसाई समुदाय को ईराक से जाना पड़ा था | 

पिछले 50 वर्षों से सुन्नी और शिया समुदाय में एक दूसरे के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा होती रही है, लेकिन आईएसआईएस के परिद्रश्य में आने के बाद 2012-2014 के बीच यह हिंसक संघर्ष सर्वाधिक हुआ है, जिसमें 31,414 नागरिक मारे गए | 

इसका मूल कारण रहा है आईएसआईएस की रणनीति, जिसके अंतर्गत उन्होंने शिया और यज़ीदी समुदाय का न केवल नरसंहार किया, वरन उस नरसंहार के वीडियो भी प्रसारित किये | जहां मौक़ा लगा आईएसआईएस के हमलावरों ने बस की कतार में, अंतिम संस्कार में, धार्मिक समारोहों में शियाओं पर हमले किये | जहां भी शिया इकट्ठे हो सकते थे, वहां उन पर आक्रमण कर हत्याएं कीं | उनके शिया विरोध का स्पष्ट मकसद था सरकार को अस्थिर करना | वे चाहते थे कि सुन्नियों के खिलाफ शिया जबाबी कार्यवाही करें, ताकि सुन्नी मजबूरन उनके साथ आयें ।

आइएसआइएस उसी प्रकार का भय फैलाना चाहता है, जैसा कि चौथाई सदी पहले अपने लड़ाकों के माध्यम से सद्दाम हुसैन ने कुर्दों और शियाओं में फैलाया था | मोसुल के पास की सरकारी जेल बादुश पर आईएसआईएस का कब्जा तथा उसके बाद 670 शिया कैदियों की ह्त्या, टिकरित के बाहर स्पेइचेर शिविर में 800 शिया कैडेटों को खाइयों के सामने खड़े करके मशीन-गन से गोली चलाकर सामूहिक हत्या, उसी नीति का हिस्सा थी । कुरदीश इलाकों में यज़ीदी समुदाय को निशाना बनाकर हत्याएं, बलात्कार व ग़ुलाम बनाने की कार्यवाहियों ने तो अगस्त 1941 में जर्मन सेना द्वारा रूस में किए गए अत्याचारों की यादें ताजा कर दीं |

इराक में आइसिस की बढ़त पिछले अक्टूबर से कम हो गई । वे यद्यपि पीछे हटे हैं, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं । जिन इलाकों पर शिया या कुर्द लड़ाकों ने सफलतापूर्वक जवाबी हमला किया, वहां आम तौर पर सुन्नी उनके शहरों और गांवों को छोड़कर भाग गए हैं । इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है क्योंकि शिया और कुर्द कमांडर “भूलने और माफ़ करने” में यकीन नहीं करते । पिछले साल के पीड़ितों के बीच वे चाहें शिया हों, अथवा यज़ीदी, ईसाई या कुर्द आम धारणा है कि सुन्नी अरब पड़ोसियों ने आइएसआइएस के साथ सहयोग किया है ।

अतः कहा जा सकता है कि इराक में जातीय और सांप्रदायिक उथल पुथक का अंतिम और निर्णायक दौर चल रहा है ।
हिन्दी अनुवाद - http://www.independent.co.uk/news/world/middle-east/life-under-isis-sunnis-face-an-even-bleaker-future-in-iraq-if-the-militants-reign-of-terror-is-finally-defeated-10117918.html
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