ग्वालियर में संघ कार्य - संघर्ष की दास्ताँ


बाएं से दायें श्री महीपति बालकृष्ण चिकटे, श्री लक्ष्मण राव तरानेकर, श्री कुंटे जी, श्री अटल विहारी बाजपेई, उनके पीछे श्री अरुण जैन, श्री कप्तान सिंह सोलंकी, श्री श्रीकृष्ण त्र्यम्ब्यक काकिरडे अन्ना जी

· ग्वालियर में संघ कार्य अनेक कठिनाईयों में से रास्ता बनाते आगे बढ़ा है | १९४२-४३ में सरदार आंग्रे के दो पुत्र भी संघ स्वयंसेवक बन गए थे | जब वे पूना गए तब भी संघ के संपर्क में बने रहे | बहां वरिष्ठ अधिकारियों से उन्होंने शारीरिक का विशेष प्रशिक्षण भी प्राप्त किया | पूना से लौटकर उन्होंने अपने बाड़े में शाखा लगाना प्रारम्भ कर दिया | विजयादशमी पर संचलन के लिये उन्होंने २०० रु. का घोष भी क्रय कर संघ को दिया | स्वयंसेवक अत्यंत उत्साहित होकर पथ संचलन की तैयारी करने लगे | तभी आंग्रे साहब के दिमाग में फितूर पैदा हुआ और उन्होंने संघ पदाधिकारियों से संघ का नाम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से बदलकर आंग्रे स्वयंसेवक संघ करने का आग्रह किया | भला उनका यह प्रस्ताव किसे और कैसे मान्य होता | तब आंग्रे महोदय ने नाराज होकर अपना घोष बापस ले लिया और स्वयं ही आंग्रे स्वयंसेवक संघ नाम से नया संगठन बना काम शुरू कर दिया | 

उस प्रयत्न का तो जो हश्र होना था हुआ, किन्तु स्वयंसेवकों के सामने विजयादशमी के पथ संचलन के लिये घोष की व्यवस्था का प्रश्न खडा हो गया | इतने दिन घोष के साथ संचलन का अभ्यास करने के बाद विजयादशमी पर बिना घोष के संचलन निकालने में स्वयंसेवकों के उत्साह पर पानी फिर रहा था | विजयादशमी को केवल कुछ ही दिन शेष बचे थे | परन्तु स्वयंसेवक विचलित नहीं हुए | सबने परस्पर सहयोग राशि अर्पित की, किन्तु फिर भी एकत्रित धन आवश्यकता से कम था | एसे में वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री श्रीधर गोपाल कुंटे आगे आये तथा उन्होंने अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखकर आवश्यक राशि की व्यवस्था की |

* सन १९४२ का संघ शिक्षा वर्ग लखनऊ के चौक बाज़ार स्थित काली चरण हाई स्कूल में संपन्न हुआ | उस वर्ग में ग्वालियर विभाग के ५५ स्वयंसेवक थे | इसमें ग्वालियर के प्रतिष्ठित वकील कृष्ण राव शेजवलकर के अत्यंत मेधावी सुपुत्र राजू भी थे | वर्ग में ही उनका स्वास्थ्य बिगड़ा और वे स्वर्गवासी हुए | सम्पूर्ण वातावरण अत्यंत शोकमय हो गया | माता पिता का भी दुखी होना स्वाभाविक था | उनकी उपस्थिति में राजू का अंतिम संस्कार हुआ | सर संघचालक परम पूज्य श्री गुरूजी भी अत्यंत द्रवित हो गए थे | उन्होंने दुखी और आहत मां को रुंधे कंठ से कहा कि तुम्हारे बेटे तो अब बापस नही आ सकते किन्तु आज से मैं ही आपका दूसरा पुत्र हूँ | प.पू. श्री गुरूजी ने फिर आजीवन अपने वचन 
शेजवलकर जी की बेटी की शादी में प.पू. श्री गुरूजी 
को निभाया और शेजवलकर जी के हर पारिवारिक समारोह में वे उपस्थित हुए | वे जब भी ग्वालियर आये उस परिवार में ही रुके | तथापि ग्वालियर में नए नए स्थापित संघ कार्य पर इस घटना का विपरीत असर हुआ | राजू की नाराज मां ने अपने बड़े बेटे नारायण के शाखा जाने पर रोक लगा दी | किन्तु कृष्णराव जी अपने दुःख को भूलकर संघ कार्य में जुटे रहे | वे ग्वालियर नगर के पहले संघ चालक बने और संघ कार्य पर घिर आये बादलों को दूर किया | आगे चलकर उनके दूसरे बेटे नारायण कृष्ण शेजवलकर भी ग्वालियर में राष्ट्रवादी विचारों के प्रमुख पोषक बने |

· गांधी ह्त्या के मिथ्या आरोप में लगाए गए प्रथम प्रतिवंध काल में संघ के विरुद्ध इकतरफा दुष्प्रचार चल रहा था | संघ की ओर से कहने सुनने बाला कोई नही था | ग्वालियर के कार्यकर्ताओं ने इस स्थिति से निबटने के लिये एक समाचार पत्र प्रकाशन का निश्चय किया | तदनुसार "सुदर्शन" नामसे पंजीयन करबाया गया | भगवती प्रसाद बने उसके प्रकाशक और मदन मोहन दुबे बने सम्पादक | श्यामाचरण लवानिया नामक एक कांग्रेसी मानसिकता के प्रेस मालिक उसे छापने को तैयार हो गए और पहला अंक छपकर तैयार भी हो गया | किन्तु तब तक भगवती प्रसाद सत्याग्रह कर गिरफ्तार हो गए | प्रेस मालिक श्यामाप्रसाद जी ने समाचार पत्र देने से इनकार कर दिया | उन्होंने कहा कि मेरी बात तो भगवती प्रसाद जी से हुई है, उन्हें ही समाचार पत्र दूंगा | 

तभी दैवयोग से भगवती प्रसाद जी की दादी जी का स्वर्गवास हो जाने के कारण उन्हें अंतिम संस्कार के लिये जमानत मिल गई | और समाचार पत्र का बह प्रथम अंक भी प्रेस मालिक की कैद से मुक्त हो सका | अब समस्या थी उस समाचार पत्र को वितरित करने की, जिसका जिम्मा उठाया किशोर स्वयंसेवकों की एक टोली ने जिसकी अगुआई की महीपति वालकृष्ण चिकटे ने | ग्वालियर का ह्रदय स्थल कहे जाने बाले महाराज बाड़े पर इन स्वयंसेवकों ने उस समाचार पत्र का वितरण शुरू किया | जब तक पुलिस को जानकारी मिले तब तक सारे समाचार पत्र वितरित हो गए | किन्तु पुलिस ने सभी वाल स्वयंसेवकों को सत्याग्रह करने के आरोप में बंदी बनाकर जेल भेज दिया, साथ ही सुदर्शन के प्रकाशन पर भी रोक लगा दी |

· ग्वालियर में संघ का पहला बड़ा कार्यक्रम २४ दिसंबर १९४० को मोतीझील मैदान पर हुआ | इस शीत शिविर हेतु आवश्यक टेंट तम्बू आगरा से मंगाए गए थे | इस शिविर में भाग लेने के लिये आगरा से भैयाजी जुगादे, दीनदयाल जी उपाध्याय, आचार्य गिरिराज किशोर व अन्य ८-१० स्वयंसेवक आये थे | इस शिविर में पहाडी पर "अटक एंड डिफेंस" का रोमांचकारी कार्यक्रम हुआ था | एसा प्रतीत होता था मानो दो सेनायें आपस में युद्ध रत हों | एक टुकड़ी का नेतृत्व श्री अटल बिहारी वाजपई तो दूसरी का नेतृत्व श्री बैजनाथ शर्मा कर रहे थे | अन्य प्रमुख स्वयंसेवकों में श्री मदन गोरे जो बाद में सेना में भर्ती होकर ६२ के युद्ध में शहीद हुए, श्री बालकृष्ण नारायण उपाख्य बाना मुंडी माधव कालेज उज्जैन में व्याख्याता रहे, श्री रंग गोखले, राव साहब पाटिल आदि मुख्य थे | इसमें अनेक स्वयंसेवक घायल भी हो गए थे | शिविर में भोजन आदि की व्यवस्था में स्वयंसेवकों के घरों की माता बहिनों का काफी योगदान रहा | शिविर में मार्गदर्शन हेतु नागपुर से तत्कालीन सह सर कार्यवाह श्री मनोहर राव काले विशेष रूप से पधारे थे |

संघर्ष गाथा -

प्रथम प्रतिवंध -

ग्वालियर में पहले प्रतिवंध के समय कई गिरफ्तारियां हुई | १५० सत्याग्रही स्वयंसेवकों को जेल में डाल दिया गया | इनमें वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के साथ साथ बाल स्वयंसेवकों की भी सहभागिता थी | जहां सर्व श्री नारायण कृष्ण शेजवलकर, प्रसिद्ध चिकित्सक कमल किशोर, गोविन्द दलवी, दादा बेलापुरकर, नरेश जौहरी, विद्यास्वरूप गुप्त, भगवती प्रसाद सिंघल सेठ किशोरीलाल आदि थे बहीं किशोर और बाल स्वयंसेवक भी किसी से पीछे नहीं थे | प्रसिद्ध साहित्यकार श्री शैवाल सत्यार्थी को तब कृष्ण स्वरुप गुप्त के नाम से जाना जाता था | उन्होंने नई सड़क स्थित कलेक्टर पाटील के निवास पर "गुरूजी को छोड़ दो, जेल के ताले तोड़ दो" के नारों के साथ अपने समवयस्क साथियों के साथ सत्याग्रह किया | पहले दिन तो पुलिस की बेंत खाईं किन्तु दूसरे दिन श्री विष्णु दलवी के नेतृत्व में महाराज बाड़े पर सत्याग्रह कर केन्द्रीय काराग्रह पहुँच गए | 

जेल जीवन साक्षात नरक जैसा था | दाल और सब्जी में कीड़े मकौड़े पड़े होते थे | कभी कभी मिलने बाले गुड और चिकित्सक द्वारा दिए जाने बाले चूर्ण से जैसे तैसे जली भुनी या कच्ची पक्की रोटियों को निगलना पड़ता था | किन्तु सत्याग्रहियों का मनोबल इस सबके बाबजूद अत्यंत उच्च था | हास परिहास से सब ग़मों को हवा में उड़ा दिया करते थे | शंकरलाल नामक किशोर कार्यकर्ता का नाम गुड भगवान ही रख दिया गया था | ये गुड भगवान आगे चलकर एम एल बी महाविद्यालय में व्याख्याता बने | इन सत्याग्रहियों को जब बंदीगृह से न्यायालय लाया जाता, ये लोग मुखर नारेबाजी करते | इससे परेशान होकर प्रशासन ने जेल के बाहर ही एक कमरे में अदालत शुरू करबा दी | श्री सत्यार्थी की आयु केवल १४ वर्ष की होने के कारण विशेष न्यायाधीश श्री ओम प्रकाश श्रीवास्तव ने एक माह चौदह दिन की जेल में बिताई कालावधि को ही सजा मानकर इन्हें मुक्त कर दिया | 

प्रांत के अन्य भागों से आये ४०० कार्यकर्ताओं को ग्वालियर जेल में रखा गया | सरकार इन स्वयंसेवकों का मनोबल तोड़ने पर आमादा थी | इसलिए केन्द्रीय काराग्रह को साक्षात नरक बना दिया गया था | मध्य भारत धारा सभा के तत्कालीन सदस्य तथा अशासकीय जेल विजिटर श्री आनंद विहारी मिश्र ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि - 

"मैं जैसे ही बैरक में घुसा, साक्षात रौरव नरक सा दृश्य दिखाई दिया | प्रत्येक बैरक पाखाने की दुर्गन्ध से परिपूर्ण थी | चारों ओर भारी संख्या में मक्खियाँ भिनभिना रही थीं | मुझे आश्चर्य हुआ कि ये बंदी इस दशा में अभी तक जीवित किस प्रकार रहे | उन बैरकों में ताले पड़े हुए थे | जेल अधिकारियों ने भी स्वीकारा कि दिन में दो बजे इन बंदियों को ताला खोलकर पाखाने जाने अथवा हाथमुंह धोने के लिये निकाला गया था | बहां पीने के लिये पर्याप्त पानी भी नही था | जो था बह भी अत्यंत गंदा होने के कारण पीने लायक नहीं था | भोजन हमारे सामने ही दिया गया था | प्रत्येक के लिये चार चार रोटियाँ थीं जो अत्यंत कच्ची और खराब थीं | उनमें रेत मिली हुई थी | मैंने एक रोटी स्वयं खाकर देखी तथा साथ चल रहे जेल महानिरीक्षक महोदय को भी खिलाई | दाल मनुष्य के मल से भी बुरी दिखाई देती थी | चावल में कंकड़ मिले हुए थे | मैंने इतना बुरा भात कभी नही देखा | बीमार कार्यकर्ता बिना औषधि के पड़े थे | एक बीमार को हमने दूसरी मंजिल के द्वार पर बुरी हालत में पड़े देखा | उसके दूसरे साथी ताले में बंद थे और बह अकेला द्वार पर पडा था | भूखा प्यासा और बिना औषधि के, भगवान भरोसे | बहां से लौटते समय हमने दूसरे बंदियों के भोजन का भा अवलोकन किया | दोनों में जमीन आसमान का अंतर था | आम कैदियों का भोजन काफी वेहतर था | इससे यह स्पष्ट है कि संघ स्वयंसेवकों को यंत्रणा देने के लिये ही यह सब जान बूझकर और योजना पूर्वक किया गया था |"

इस सबके बाद भी स्वयंसेवक शांत भाव से चर्चा के द्वारा समस्या का समाधान निकालने के लिये प्रयत्नशील थे | २३ जनवरी को सत्याग्रह स्थगित हो गया किन्तु जेल की दुर्व्यवस्था में कोई सुधार नहीं आया | तब २७ जनवरी को सत्याग्रही अपनी बात सुनाने के लिये जेल अधिकारी के सामने अड़ गए | तभी एक झूठी अफवाह फैला दी गई कि सत्याग्रहियों ने जेलर को मार डाला है | इस अफवाह के बाद जेल में अफरातफरी फ़ैल गई | इस सबके बीच प्रशासनिक शह पर डंडे, सरियों से लैस कैदी सत्याग्रहियों पर टूट पड़े | इस आकस्मिक आक्रमण से अनेक सत्याग्रही बुरी तरह घायल हुए | बाद में महानगर संघ चालक रहे श्री बैजनाथ शर्मा को तो इतना पीटा गया कि वे वेहोश हो गए | उन्हें मरा हुआ समझकर ही कैदियों ने छोड़ा | उनके पैर की हड्डी टूट गई तथा सर में भी २१ टाँके आये | 

लालाराम परमार तथा मास्टर दलवी जैसे साहसी स्वयंसेवकों ने अपनी जान जोखिम में डालकर सबको बैरक के अन्दर कर ताला डाल दिया, अन्यथा उस दिन ना जाने कितने कार्यकर्ताओं की ह्त्या होती | इस काण्ड की सूचना मिलने पर पुलिस के अधिकारी तथा जेल महानिरीक्षक जेल पहुंचे | बहां का भयंकर दृश्य था | चारों ओर घायल स्वयंसेवक इधर उधर पड़े हुए थे | सत्याग्रहियों से मिलकर पूछ ताछ करना तो दूर मुख्य सचिव महोदय ने सत्याग्रहियों पर ही गोली चलाने का आदेश दे दिया | वरिष्ठ कार्यकर्ता डा. गोविन्द हरि मराठे के हस्तक्षेप के कारण बह स्थिति किसी प्रकार टली | सत्याग्रहियों को बापस बैरक में जाने को विवश होना पडा | अन्यथा उस दिन मुख्य सचिव की दुर्बुद्धि वा नादानी के कारण कई स्वयंसेवक गोलियों से भून दिए जाते |

आपातकाल -

आपातकाल लगने पर ग्वालियर में पुलिस ने अंधाधुंध गिरफ्तारियां की थीं | जिसके बारे में शंका होती कि यह व्यक्ति संघ से सम्बंधित होगा, उसे पकड़ लिया जाता | महाविद्यालयों के प्राचार्य, प्रोफ़ेसर, डाक्टर, वकील, व्यापारी जैसे सम्मानित लोगों को भी नही बख्सा | ग्वालियर में २५० से अधिक कार्यकर्ता मीसा में बंद किये गए थे |

सत्याग्रह करने बालों पर तो पुलिस की मनमर्जी चलती | मर्जी होती उसे भारत सुरक्षा क़ानून में बंद करते, किसी किसी समूह की पिटाई करके छोड़ देते या किसी किसी को दूर जंगलों में ले जाकर छोड़ दिया जाता | क़ानून नाम की कोई चीज बची ही नही थी | पूरी तरह जंगल राज था |

उन दिनों ग्वालियर पुलिस ने किस प्रकार के अत्याचार ढाये थे, इसकी करुण कहानी है किशोर स्वयंसेवक सुबोध गोयल की | सुबोध ने तानसेन समारोह के अवसर पर भरी सभा में मुख्यमंत्री प्रकाश चन्द्र सेठी की उपस्थिति में मंच पर चढ़कर आपातकाल के विरोध में नारे लगाए थे | पुलिस उनकी इतनी जुर्रत कैसे सहन कर सकती थी ? बह भी मुख्यमंत्री के सामने | पुलिस ने ना केवल उन्हें बंदी बनाया, हवालात में उनकी इतनी भयंकर पिटाई की कि वे जब हवालात से बाहर आये तब लगभग अर्धविक्षिप्त अवस्था में थे | उसी अवस्था में दो वर्ष पश्चात वे भगवान को प्यारे हो गये |

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