इन्टरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित की सर्वोच्च न्यायालय ने |


आज भारत में इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अत्याधिक बल मिला, जब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय द्वारा सूचना और प्रौद्योगिकी अधिनियम की विवादस्पद धारा 66 - A को समाप्त कर दिया | यह धारा इन्टरनेट पर ऑनलाइन अपमानजनक सामग्री डालने पर पुलिस को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति देती थी। जस्टिस जे चेलमेश्वर और जस्टिस आर एफ नरीमन की बेंच ने अपने फैसले में कहा कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 ए से लोगों की जानकारी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार साफ तौर पर प्रभावित होता है। कोर्ट ने प्रावधान को अस्पष्ट बताते हुए कहा, 'किसी एक व्यक्ति के लिए जो बात अपमानजनक हो सकती है, वह दूसरे के लिए नहीं भी हो सकती है।

इस क़ानून को विधि की छात्रा श्रेया सिंघल व बंगलादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन, सहित अन्य लोगों द्वारा चुनौती दी गई थी | याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि धारा 66 ए की परिभाषा अस्पष्ट है व उसका दुरुपयोग संभव है | किसी व्यक्ति की वास्तविक आलोचना में की गई टिप्पणी या व्यंग चित्र को बहाना बनाकर किसी को भी फंसाया जा सकता है, उसका उत्पीडन किया जा सकता है | 

न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि सरकारे तो आती जाती रहीं पर 66-A लगातार बना रहा | न्यायालय ने इस तर्क से सहमति जताई कि इस धारा के चलते लोगों के जानने का अधिकार प्रभावित होता है जबकि इस तर्क को अमान्य किया कि इसे ठीक से लागू किया जाएगा | न्यायालय ने स्पष्ट किया कि “विचार और विश्वास की स्वतंत्रता संविधान में निहित हैं "|

इस फैसले के बाद फेसबुक, ट्विटर सहित सोशल मीडिया पर की जाने वाली किसी भी कथित आपत्तिजनक टिप्पणी के लिए पुलिस आरोपी को तुरंत गिरफ्तार नहीं कर पाएगी। कोर्ट ने हालांकि आईटी ऐक्ट के दो अन्य प्रावधानों को निरस्त करने से इनकार कर दिया, जो वेबसाइटों को ब्लॉक करने की शक्ति देता है।

आईटी ऐक्ट की इस 'बदनाम धारा' के शिकार उत्तर प्रदेश में एक कार्टूनिस्ट से लेकर पश्चिम बंगाल में प्रोफेसर तक रह चुके हैं। हाल ही में आजम खान को लेकर फेसबुक पर किए गए एक कमेंट की वजह से उत्तर प्रदेश के एक 19 वर्षीय छात्र को भी जेल की हवा खानी पड़ी थी। छात्र के खिलाफ आईटी ऐक्ट की धारा 66ए समेत अन्य धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया था।
सुप्रीम कोर्ट में 66ए के खिलाफ दायर याचिकाओं में कहा गया है कि यह कानून अभिव्यक्ति की आजादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के खिलाफ है, इसलिए यह असंवैधानिक है। याचिकाओं में यह मांग भी की गई है कि अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े किसी भी मामले में मैजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना कोई गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने 16 मई 2013 को एक दिशा-निर्देश जारी करते हुए कहा था कि सोशल मीडिया पर कोई भी आपत्तिजनक पोस्ट करने वाले व्यक्ति को बना किसी सीनियर अधिकारी जैसे कि आईजी या डीसीपी की अनुमति के बिना गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।

दूसरी तरफ सरकार की दलील है कि इस कानून के दुरूपयोग को रोकने की कोशिश होनी चाहिए। इसे पूरी तरह निरस्त कर देना सही नहीं होगा। सरकार के मुताबिक इंटरनेट की दुनिया में तमाम ऐसे तत्व मौजूद हैं जो समाज के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं।