स्वदेश से प्रस्थान – के.एन. पंडित

(मूल लेख Departure of the native का हिन्दी सारांश)
पिछले सप्ताह विस्थापित कश्मीरी पंडितों की वापसी और पुनर्वास के खिलाफ कश्मीर घाटी में बड़े पैमाने पर उपद्रव हुए । श्रीनगर पूरी तरह बंद रहा । कार्यालय, व्यापार प्रतिष्ठान, निजी और सार्वजनिक परिवहन, बैंक, बाजार, यहां तक ​​कि बार एसोसिएशन की सामान्य गतिविधि भी पूरे दिन निलंबित रही । क्या यह हैरत की बात नहीं कि सरकारी मुलाजिमों सहित सभी राजनैतिक दलों और नागरिकों ने अलगाववादियों, जिहादियों और पाक परस्त तत्वों के आह्वान का पूरा समर्थन किया ।

इस घटनाक्रम से कश्मीर में साम्प्रदायिक सद्भाव के स्वांग के पीछे छुपा खतरनाक मंसूबा साफ़ दिखाई देता है । सार्वजनिक विरोध और भूख हड़ताल ने कश्मीर उग्रवाद के धार्मिक आधार को सबके सामने ला दिया है । कश्मीर में जिहादी मंसूबा अब पूरी दुनिया को पढ़ने के लिए एक खुली किताब है।

जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री द्वारा नई दिल्ली में केन्द्रीय गृहमंत्री से मुलाकात के बाद दिए गए बयान ने कश्मीर में बबाल पैदा कर दिया । मैसुमा में पुलिस के साथ भीड़ के टकराव के साथ यह शुरू हुआ। क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियों के कुछ विधायकों ने विधानसभा में पंडितों के खिलाफ जहर भरे विवादास्पद भाषण दिए । मुख्यधारा की पार्टियों ने स्वीकार कर लिया है कि आतंकवाद कश्मीर की राजनीतिक संस्कृति बन चुका है। 

लगता है कि पंडित पुनर्वास के मुद्दे पर एनडीए के गठबंधन सहयोगी भी एकमत नहीं हैं । प्रेस रिपोर्टों के अनुसार पंडित पुनर्वास के लिए पंपोर के पास जमीन की पहचान की गई थी । गृह मंत्री कहते हैं कि विस्थापित समुदाय का पुनर्वास पार्टी का प्राथमिक एजेंडा है, लेकिन इससे आगे कुछ नहीं । गृह मंत्रालय में राज्यमंत्री ने अधिक रक्षात्मक मुद्रा अपनाई है । उन्होंने कहा है कि यद्यपि सरकार सैद्धांतिक रूप से विस्थापित समुदाय की वापसी और पुनर्वास को स्वीकार करती है, किन्तु उनके समग्र पुनर्वास को लेकर अभी कोई निर्णय नहीं लिया गया है। यह कब होगा, कैसे होगा इसे स्पष्ट करने को कोई तैयार नहीं है ।

मुफ्ती सईद के पहले की सरकारों ने भी पंडितों को कश्मीरी मिट्टी के बेटे बताया था, और कहा था कि वे कश्मीर के हैं, कश्मीर उनका भी है । इसके बाद भी अनचाहा झुनझुना पकडाने के अलावा किसी ने कोई कदम नहीं उठाया । स्पष्ट ही उनके इरादे नकली हैं |

1990 में हुए सशस्त्र विद्रोह और कश्मीर में धार्मिक उग्रवाद के उदय के बाद पंडितों के मूल घरों, दुकानों, भूमि, बगीचों, घरेलू संपत्ति आदि पर कब्जा जमाये बैठे लोग क्यों उनकी वापसी चाहेंगे ? यही समस्या की मूल जड़ है | 

यह कैसी धर्मनिरपेक्षता है, जिसने कश्मीर से एक समुदाय को पूरी तरह साफ़ ही कर दिया । कहा जा रहा है कि घाटी का बहुसंख्यक समुदाय केवल पंडितों के कॉम्पैक्ट पुनर्वास का विरोध कर रहा है | और वह पंडितों के पुनर्वास और कश्मीर में उनकी वापसी का विरोधी नहीं है । वे कहते हैं कि इस प्रकार एक जगह पंडितों को बसाना एक नए इजराईल को बनाने जैसा है | किन्तु आलोचक यह भूल जाते हैं कि विस्थापितों की संख्या कश्मीर की कुल आबादी में महज 2 फीसदी से भी कम है । क्या बहुसंख्यक समाज इतना कायर और डरपोक है कि 2 प्रतिशत अल्पसंख्यक समुदाय से उनको डर लगता है ? 

पंडित बहुत बारीकी से घाटी के बहुसंख्यक मुसलमानों की इस अलगाववादी मानसिकता को और शेष भारत के मुसलमानों की 17 करोड़ आवादी की प्रतिक्रिया और उनके नेतृत्व को देख रहे हैं। सच पूछा जाए तो यह भारत के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय की धर्मनिरपेक्ष साख की अग्निपरीक्षा है।

भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समाज ही धार्मिक अल्पसंख्यक मुसलमानों के हक़ में आवाज उठाता है | इस देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने में धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं की सबसे बड़ी भूमिका रहती है | लेकिन दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले भारत में भारतीय मुसलमानों के बीच अधिक समझदार और तर्कसंगत तत्वों की उम्मीद अभी तक केवल उम्मीद ही रही है। 

केरल में मुस्लिम बहुल जिले के रूप में मल्लापुरम को औपचारिक मान्यता देने के बाद वह तो केरलवासियों के लिए एक और इसराइल नहीं बना । हिन्दू बहुल जम्मू में रहने वाले बीस हजार से अधिक मुस्लिम परिवारों को जम्मूवासियों ने कभी दूसरे इसराइल का खतरा नहीं माना ।

इन सबके पीछे जो मूल कारण है वह है वोट बेंक की राजनीति | एक साथ चार लाख पंडितों का पुनर्वास कई नेताओं के चुनावी समीकरण को बदल सकता है | स्थानीय नेतृत्व का यह भय ही पंडित पुनर्वास के खिलाफ हो रही हलचल के पीछे का मूल कारण है। सरल भाषा में कहें तो वे वे खुद के लिए तो लोकतांत्रिक अधिकार चाहते हैं, लेकिन पंडित अल्पसंख्यकों को समान अधिकार देने के लिए तैयार नहीं हैं।

इनमें से बहुत से जम्मू-कश्मीर के संविधान में किसी को भी धर्म, भाषा, संस्कृति या नस्ल के आधार पर अल्पसंख्यक के रूप में स्वीकार नहीं करते । जबकि दूसरी ओर ये ही लोग भारतीय संविधान की रोशनी में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक के रूप में अपनी मान्यता चाहते हैं । कश्मीर में बहुसंख्यक समुदाय के लोग स्थानीय बहुमत के बाद भी राष्ट्रीय अल्पसंख्यक के समान विशेषाधिकार चाहते है।

एक दशक पहले जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में कश्मीर में हुई जातीय सफाई का मामला प्रस्तुत किया गया | वहां अल्पसंख्यकों की परिभाषा को लेकर एक बड़ी बहस हुई | अंत में, "धार्मिक अल्पसंख्यक 'की परिभाषा में यह जोड़ा गया कि कश्मीरी पंडितों को रिवर्स अल्पसंख्यक माना जाये । इस प्रकार कश्मीरी पंडित समुदाय को संयुक्त राष्ट्र दस्तावेज में अल्पसंख्यक की मान्यता प्राप्त है "रिवर्स धार्मिक अल्पसंख्यक।" किन्तु अफसोस, भारत की तत्कालीन सरकार ने पंडित समुदाय को हानि पहुंचाने के लिए इस परिभाषा को दबा दिया।

मुझे लगता है कि विस्थापित समुदाय के पुनर्वास के मुद्दे पर शोर मचाना व्यर्थ है। कोई राजनैतिक दल विस्थापित समुदाय की इच्छाओं का सम्मान नहीं करना चाहता | कोई राजनैतिक पार्टी ईमानदारी से पंडितों की वापसी और पुनर्वास की दिशा में काम नहीं कर रही । सभी पार्टियां वोट बैंक का मामूली समूह ही चाहती है। इसीलिए कोई सत्ताधीश कश्मीर में सशस्त्र विद्रोह के उत्थान और धार्मिक अतिवाद की जांच के लिए जांच आयोग कभी गठित नहीं करेगा। अधिक से अधिक यह होगा कि पंडितों से उनके मूल घरों में जाने को पूछा जाए, जो अब कहीं अस्तित्व में ही नहीं हैं | पंडित पुनर्वास का स्पष्ट व्यवहारिक और न्यायोचित फार्मूला बनाना तो सांड को लाल कपड़ा दिखाने जैसा है । श्रीनगर में पाकिस्तानी झंडा लहराना इसी खेल का एक हिस्सा है। 

(अगर लेख में व्यक्त बिचारों के अनुसार वोट बैंक की राजनीति ही कश्मीर समस्या का मूल कारण है, तो उसका समाधान क़ानून बनाकर पूरे देश में नागरिकों को कहीं भी रहते हुए अपने क्षेत्र में मताधिकार की सुविधा देना ही है | शायद चुनाव आयोग ने मोवाईल के जरिये वोट देने की सुविधा का जो विचार व्यक्त किया है, उससे इस समस्या का समाधान हो सके | एक बार पंडित कश्मीर में वोट डालने लगें तो फिर राजनेता उनकी पूछ परख भी करने लगेंगे | जब तक वे वोटर ही नहीं हैं, कोई क्यों उनके हित का विचार करेगा ? - सम्पादक)




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