वाणी संयम



मन- "अहम्" भाव केवल शरीर बल अथवा शरीर सौन्दर्य को ही अपना माध्यम बनाता हो एसा नहीं है | वह जिव्हा को भी अपना वाहन बनाकर तुम्हे अपने पीछे घसीट कर ले जाता है | कभी स्वाद- खट्टा, मीठा, चटपटा तुम्हे लुभाता है | नाना प्रकार के "पकवान" खाने की चाह तुम्हे भरमाती है | और उन पदार्थों को पाने की लालसा में, हरि भजन भूल जाता है | साधू स्वादु बन जाता है | मन- रसना को रस की आसक्ति से ऊपर उठना सिखाओ | अन्न ग्रहण- शरीर धारण करने के लिए होता है- नकि शरीर अन्न ग्रहण करने के लिए याकि स्वाद की प्राप्ति केलिए है | अतएव मेरे मन, प्रभु प्रसाद के रूप में अन ग्रहण करो | उन्हें ही सारे स्वादों का रस समर्पित करो | प्रभु तुम्हे शरण देंगे | विश्वास रखो |

मेरे मन ! तू जानता ही है कि जिव्हा केवल "रसास्वादन" से ही तुम्हे विचलित नहीं करती, अपितु ज्ञानेन्द्रिय के साथ वह कर्मेन्द्रिय का भी स्थान रखती है | स्वाद के पीछे साधना खोना जैसे संभव है वैसे ही वाणी के द्वारा भी, मेरे मन- यह जिव्हा तुम्हारा प्रतिनिधित्व करती है | तुम क्या सोचते हो- तुम क्या विचारते हो- इसको शब्द रूप जिव्हा ही देती है | इस कारण जिव्हा संयम- वाणी संयम- का रूप है | सत्य, प्रिय, संयत, सार्थ एवं समर्पक- वाणी का प्रयोग- सहज साध्य नहीं है | इस प्रकार वाणी का प्रयोग करना तपस्साध्य है | असंयमित वाणी - महाभारत की जननी होती है | जिव्हा "बक" जाती है , जूते कपाल खाता है | इस कारण मेरे मन - वाणी का संयम कर | उसे प्रभु के गुणगान में लगा- वह तभी शुद्ध होगी - और कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगी |

मन ! तुझे लगता है कि तू अपनी वाणी का उचित उपयोग करता है | क्या यह सच है ? क्या तेरा यह आत्म संतोष उचित है ? विचार करने और निरीक्षण करने पर तेरे ही ध्यान में आता है न, कि कितनी बार तेरे तीखे शब्दों से, सामने के व्यक्ति (श्रोता) के मन में बसे परमेश्वर की, तुमने अवमानना की है | एसे शब्दों का प्रयोग करने की अपेक्षा मौन रहना, उपयोगी होगा | मौन वाणी का तप है | और मौन रहना उचित न जान पड़ता हो, तब सोच विचार कर, ऐसी वाणी का प्रयोग करो- जो तुम्हारा आपा (अहम्) दूर करे- साथ ही सामने वाले श्रोता को शांत करे - और तुम्हारे लिए भी संतोष एवं शान्तिदायिनी बने |

मेरे मन तुम्हें वाणी का संयम करना है न ? हाँ वाणी संयम संभव है | निश्चय करो, संकल्प करो, जो तुम्हें स्वयं न रुचे, जिस वाग्वाण की तुम्हे चोट लगे, उस वाणी का, वाग्वाण का तुम प्रयोग नहीं करोगे |

आवत गारी एक है, लौटत होत अनेक |

अतः तुम पर चले सभी वाग्वाण, विषमय बोल, सहज सहन करो, उन्हें पचा जाओ | केवल पचाओ ही नहीं, उनमें अमृत उपजाओ और जगत के कल्याण के लिए, उसे विखेरते रहो, लुटाते रहो | सदा स्नेह से पगे सत्य वचन ही बोलोगे, अथवा मौन रहोगे, परन्तु पर निंदा कभी नहीं करोगे | यह निश्चय करो ! इसका पालन करो ! प्रभु तुम्हे सहारा देंगे ! विश्वास रखो ! विनम्रता से उससे याचना करो- कि वह तुन्हारी सहायता करे |

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