समाजवाद, लोकतंत्र और हिंदुत्व - पंडित दीनदयाल उपाध्याय


सभी समाजवादियों की यह सर्वमान्य अभिलाषा है कि सामान्य मनुष्य का जीवन स्तर उठाया जाए | स्वामी विवेकानंद जी ने एक भाषण में कहा कि “मैं भी एक समाजवादी हूँ | इसलिए नहीं कि समाजवाद कोई पूर्ण दर्शन है, अपितु इसलिए कि मैं समझता हूँ कि भूखे रहने की अपेक्षा एक कौर मात्र प्राप्त करना भी अच्छा है | सुख दुःख का पुनर्विभाजन सचमुच ही उस स्थिति से अधिक श्रेयस्कर होगा जिसमें निश्चित व्यक्ति ही सुख या दुःख के भागी होते हैं | इस कष्टपूर्ण संसार में प्रत्येक को अच्छा दिन देखने का अवसर मिलना ही चाहिए |”

इस दुःख और कष्टों से परिपूर्ण विश्व में असमानता, अन्याय, दुःख, कष्ट, उत्पीडन, प्रताडन, दासत्व, शोषण, क्षुधा और अभाव को देखकर कोई भी व्यक्ति जिसे मानवीय अंतःकरण प्राप्त है, समाजवादी वृत्ति अपनाए बिना नहीं रह सकता | यहाँ पर मार्क्स का शिष्यत्व स्वीकार करना पड़ता है | वह इस दुखपूर्ण स्थिति का अंत चाहता है | उसने स्थिति का विश्लेषण किया, रोग को समझा और उसके लिए औषधि की भी योजना की | उसने अपने समकालीन समाजवादी विचारों को एकत्रित कर एक ऐसी विस्तृत विचार सारिणी प्रस्तुत की जो आगे आने वाली पीढ़ियों को भी आकर्षित करने की क्षमता रखती थी | उसने एक करनीय योजना प्रस्तुत की और वोल्शेविकों ने उस स्वप्न को साकार करने के लिए सफलता पूर्वक रूस की सत्ता पर अधिकार कर लिया |

समाजवाद का पहला हमला लोकतंत्र पर हुआ | समाजवाद इस बात का हामी है कि कि उत्पादन के समस्त स्त्रोत राज्य के आधीन होने चाहिए | समाजवादी व्यवस्था में राज्य का आर्थिक क्षेत्र के साथ साथ राजनैतिक तथा अन्य क्षेत्रों में भी पूर्ण वर्चस्व रहना आवश्यक है | अतः समाजवाद और लोकतंत्र साथ साथ नहीं चल सकते | आज तक कोई भी विचारक ऐसा सर्वांगपूर्ण दोष रहित चित्र प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो सका है, जिसमें इन दोनों तत्वों का सहअस्तित्व संभव हो सके | समाजवाद या साम्यवाद ने सामूहिक सुरक्षा एवं मजदूर वर्ग के हितों के संरक्षण का नारा लगाया किन्तु इसी के साथ साथ उसने एक “युद्ध पिपासु मानव” को जन्म दिया | उसे न विचार करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है न स्वयं के निर्णय करने की | इस व्यवस्था के अंतर्गत मानव जीवन का मूल्य एक निरीह पशु से अधिक नहीं आंका जाता |

लोकतंत्र के विषय में रेनेफुलप ने “दि ह्यूमनाईजेशन इन मॉडर्न सोसायटी” नामक पुस्तक में लिखा है कि “यद्यपि जनतंत्र ने हमें मत देने का अधिकार, न्याय पाने का अधिकार, विचार स्वातंत्र्य, धार्मिक स्वातंत्र्य, स्वयं का पेशा निर्धारित करने की स्वतन्त्रता और भाषण स्वातंत्र्य प्रदान किया है, पर साथ ही उसने हमें उसने एक “आर्थिक मानव” की कल्पना भी दी है” |

इस कल्पना ने पूंजीवाद को जन्म दिया, जहां अधिकाधिक उत्पादन बढाने पर तो अत्याधिक जोर दिया गया, पर सोद्देश्य जीवन व्यतीत करने की क्षमता बढाने की ओर पूर्ण दुर्लक्ष्य कर दिया गया | समाजवाद और लोकतंत्र दोनों ने ही मानव के भौतिक स्वरुप और आवश्यकताओं पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया और दोनों की आधुनिक विज्ञान और यांत्रिक उन्नति पर अत्याधिक श्रद्धा है | उत्पादन केन्द्रित व्यवस्था में, फिर उसका नियंत्रण चाहे व्यक्ति द्वारा हो अथवा राज्य द्वारा, मानव के स्वतंत्र अस्तित्व का लोप हो जाता है | मशीन के एक पुर्जे से अधिक उसका महत्व ही नहीं रहता | आज मशीन मनुष्य पर शासन कर रही है | हमें एक ऐसी पद्धति का निर्माण करना होगा, जिसमें मनुष्य उत्पादन और उपभोग के साथ एक सार्थक जीवन व्यतीत करने का भी ध्यान रखता है | मनुष्य केवल भौतिक आवश्यकताओं का समुच्चय मात्र ही नहीं है, उसकी कुछ आध्यात्मिक आवश्यकताएं भी हैं |

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों पर आधारित हिन्दू जीवन दर्शन, जीवन को एक इकाई मानकर उसका विचार करता है | आप इसे किसी भी नाम से पुकारिए, हिंदुत्ववाद, मानवतावाद, अथवा अन्य कोई भी नया वाद, किन्तु यही एकमेव मार्ग भारत की आत्मा के अनुरूप होगा | संभव है विभ्रांति के चौराहे पर खड़े विश्व के लिए भी यह मार्गदर्शक का काम कर सके |

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