एक प्रकार से जंक फूड और इस्लाम का मिश्रण है बॉलीवुड - अंकुर जयवंत



बॉलीवुड ने आज भारतीय सिनेमा की पहचान का कुछ इस प्रकार अपहरण कर लिया है, कि लगता ही नहीं है कि वह भारतीय सिनेमा है।

हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि जंक फ़ूड वास्तव में जंक (कबाड़) है, फिर भी हम सभी उसे स्वाद के नाम पर अपने कण्ठ के नीचे उतारते हैं और हमें इस बात की परवाह नहीं होती कि हमारा उदर कबाड़खाना बनता जा रहा है । मजे के नाम पर हम उसे जायज ठहरा देते हैं |

मुंबई फिल्म उद्योग की भी इस जंक फूड से बेहतर तुलना की जा सकती है, जिसमें मनोरंजन का भारतीय पुट न के बराबर है, और मजे की बात यह कि यह पिछले छः दशक से बदस्तूर जारी है | यह भी भारतीयों के दिमाग पर बैसा ही असर करता है, जैसा की दुनिया भर में लोगों के शरीर पर जंक फ़ूड करता है | 

जिसका नाम ही एक नकली है उस मनोरंजन इकाई की रचनात्मकता के विषय में क्या कहा जा सकता है ?

विभिन्न एंटरटेनमेंट टेलीविजन चैनलों की अगर जांच की जाए तो एक बॉलीवुड व्यक्तित्व का घिनौना चेहरा सामने आता है | आधे से अधिक अभिनेता 40 से अधिक आयु के मिलते है, जो अपनी आयु से आधी उम्र की अभिनेत्री के साथ भूमिका निभाते देखकर हमें आनंद मिलता है, एक किशोरी के समान कपड़े पहने उम्रदराज अभिनेत्री मेकअप में अपने चहरे की झुर्रियां छिपाए देखकर हम सीटियाँ बजाते हैं | सब कुछ नकली, नकली चेहरा, नकली कथानक, नकली लहजा | 

मूक फिल्म युग से 1930 के दशक के अंत तक पौराणिक फिल्मों का प्रभुत्व था। 1940 और 1950 के दशक में नायिका के पिता या एक बदमाश मसखरे खलनायक से जूझते नायक के पलायनवादी रोमांस का प्रभुत्व रहा। 1960 और 1970 के दशक में यह एक कदम आगे चला गया। इस अवधि की सभी फिल्मों में हमेशा की तरह प्रेम त्रिकोण, गरीबी की स्तुति और भारतीय जीवन को समाजवादी रास्ते पर ले जाने का प्रयत्न था।

50, 60 और 70 की बॉलीवुड की फिल्मों में खलनायक को हमेशा अमीर आदमी चित्रित किया गया जिसका सबसे बड़ा अपराध समृद्ध होना था । अमीर होने का मतलब तस्कर या काला बाजारी होना बताया गया । नायक हमेशा एक गरीब धार्मिक आदमी और अंत में कुटिल अमीर खलनायकों की पराजय सुनिश्चित । 

लेकिन जैसे जैसे समय बीता अंडरवर्ल्ड फिल्म उद्योग की मुख्यधारा बन गया । आज तो जबरन वसूली और राष्ट्र विरोधी निवेश बेरोकटोक जारी है । खून से सने पैसे से आज का बॉलीवुड चल रहा है, और इन अपराधियों के खजाने भरने का काम कर रहा है । जिन्हें यह लगता है कि मैं अतिशयोक्ति कर रहा हूँ और कुछ ज्यादा कठोर टिप्पणी कर रहा हूँ, वे जरा निम्न सवालों पर गौर करें -

1. क्या बॉलीवुड ने अपने अस्तित्व के साठ वर्षों में एक भी फिल्म ऐसी बनाई है, जिसमें देश की वास्तविक, यथोचित और तार्किक स्थिति का चित्रण किया गया हो ? आज भी क्या इसमें देश और दुनिया की किसी ज्वलंत समस्या को संबोधित किया गया है?

2. क्या बॉलीवुड ने अपनी "ऐतिहासिक" फिल्मों में देश का वास्तविक इतिहास बिना नाटकीयता के और समझदार तरीके से दर्शाया है ? क्या इसने देश के सच्चे नायकों को उस प्रकार दिखाया है, जिसके वे अधिकारी हैं ? जबकि बर्बर हमलावरों को महिमामंडित करने वाली कितनी ही फ़िल्में बनाई गई हैं, क्यों?

3. क्या दुनिया में "लव स्टोरी" के अलावा दिखाने योग्य अन्य कुछ भी नहीं है ? क्या चाबी भरे हुए लंगूर की तरह अन्य दर्जनों बंदरों के साथ फूहड़ कमर मटकाना ही रोमांस है ?

4. बस एक ही कथानक, बार बार अलग अलग ढंग से, जैसे कि अलग अलग रंग के चावल के बोरे, जबकि अन्दर सबमें एक ही किस्म का चावल |

5. क्या इतिहास और नाटकीयता के बीच कोई अंतर नहीं है ? क्या राजाओं और स्वतंत्रता सेनानियों का चित्रण एक रोमांटिक कोण में करने से बचा नहीं जा सकता ? क्या युद्ध फिल्मों में भी गाने जरूरी हैं ?

6. महलनुमा घर में रहने वाले विशाल संयुक्त परिवार, जो हर दूसरे दिन केवल नाचते गाते रहते हैं, क्या भारतीय संस्कृति का मतलब केवल यही है ?

7. क्यों हर साल हिंदी फिल्मों में "सर्वश्रेष्ठ खलनायक", "सर्वश्रेष्ठ हास्य कलाकार", "सर्वश्रेष्ठ नवागंतुक अभिनेता / अभिनेत्री" जैसी हास्यास्पद श्रेणियों के लिए पुरष्कार दिए जाते हैं ? क्या यह एक ही चीज को बार-बार मंथन करने जैसा नहीं है? और सबसे बड़ी बात यह कि पुरष्कार हिन्दी फिल्मों के लिए, किन्तु आयोजन होता है अंग्रेजी में, क्यों ? 

8. फ़िल्में भारतीय साहित्यिक कृतियों और लघु कथाओं से प्रेरित क्यों नहीं होतीं ? उसके स्थान पर वे हॉलीवुड और अब तो दक्षिण कोरिया से भी प्रभावित दिखती हैं | और उसके कारण रचनात्मकता का अर्थ केवल चोरी रह गया है |

इन सब सवालों का एक ही जबाब है और वह यह कि बॉलीवुड हरे रंग में रंगा हुआ है | यह काफी हद तक "ग्रीनभाई" या दाऊद इब्राहिम के पैसे के माध्यम से चलाया जाता है। यही कारण है कि फिल्मी गाने सजदा और इबादत जैसे शब्दों से भरे मिलते हैं । यह बताने की जरूरत नहीं है कि ग्रीनभाई यह निवेश क्यों करता है । एक प्रसिद्ध माफिया सरगना से जब पूछा गया कि वह इस प्रकार का घाटे का सौदा क्यों करता है, तो उसका जबाब था – इससे मुझे हीरोईन मिलती हैं | इसलिए करता हूँ | 

क्या आपराधिक और राष्ट्र विरोधी धन के बूते पर चलने वाले फिल्म उद्योग से कभी कुछ भी अच्छा उभरने की उम्मीद कर सकते हैं ? शायद इसीलिए फिल्मों में अल्पसंख्यकों को चमक दमक के साथ दिखाया जाता है | वह अगर आतंकवादी भी बनता है तो हिन्दुओं के अन्याय से पीड़ित होकर | बुराई है तो केवल हिंदुओं की है और भारत एक ऐसा भयानक देश है, जो रक्त के प्यासा है । सिखों को या तो हास्यास्पद रूप में दिखाया जाता है या हत्या की मशीनों के रूप में । 
जिहाद के खिलाफ एक शब्द भी भारतीय फिल्मों में कभी देखने को नहीं मिलता, और दूसरी ओर मुम्बई पर हुए आतंकी हमले की बरसी पर “प्राउड इंडियन” खान पाकिस्तानी चेनलों पर डांस करते दिखाई दे जाते हैं | यह केवल लड़कियों के लिए ऐसा भंवर बन गया है, जिसमें फंसने के बाद वे कभी नहीं निकल पातीं । 

कुल मिलाकर बॉलीवुड ने आज भारतीय सिनेमा की पहचान का अपहरण कर लिया है, जिसमें गुणवत्ता का पूरी तरह अभाव है । जिसमें कोई मौलिकता या रचनात्मकता नहीं है। अगर कुछ है तो केवल मात्र "प्रेरणा" । पर प्रेरणा किससे ? क्या अब भी यह बताना पड़ेगा ?

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