महिला प्रश्न और विद्रूप मीडिया - श्रीमती क्षमा कौल



भारतीय और पाश्चात्य स्त्री के इतिहास में भिन्नता है, साथ सातः भारतीय एवं पाश्चात्य स्त्री की सम्पूर्ण बुनावट और बनावट में भी भिन्नता है | इसकी भिन्नता के मूल में दो भिन्न स्त्रोतों और इतिहासों से निकली संस्कृतियाँ हैं | भारतीय स्त्री के पास अविरल सशक्तता का इतिहास है, जबकि पाश्चात्य स्त्री को धरोहर में यातना, संत्रास, भय, उत्पीडन व अपमान का इतिहास मिला है | 
भारतीय स्त्री का इतिहास वैदिक युग से प्रारम्भ होकर, पौराणिक युग में होते हुए फिर ऐतिहासिक युग में आता है | कालचक्र में उसकी प्रविष्टि आदि से है, आदि बिंदु से ही उसकी महानता भी परिलक्षित होती है | आनंद, स्वातंत्र्य, ज्ञान और शक्तिमत्ता उसके निर्माण के मूल घटक हैं | वेदों पुराणों में स्त्री की विराट भूमिका है | यहाँ तक कि महाभारत के युद्ध में कई स्त्री पात्र हैं, जिनमें गांधारी प्रमुख हैं, जो बार बार युद्ध न करने के औचित्य को अपने पुत्रों के सम्मुख तर्क युक्त ढंग से रखती है | 
मैं कश्मीर से हूँ और देखती हूँ कि जिस प्रकार समाज में विविध विज्ञान की खोज, स्थापना, कला प्रवर्तन में कश्मीर का योगदान रहा, उसी प्रकार इतिहास लेखन भी संसार में सर्व प्रथम कश्मीर में ही हुआ | कल्हण पंडित की राजतरंगिणी केवल कश्मीर का ही इतिहास नहीं, बल्कि समूचे अखंड भारत का इतिहास है | जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन, नेपाल, मोरीशस, बहुत बड़ी संख्या में द्वीप समूह, बांग्ला देश, बर्मा इत्यादि सम्मिलित हैं |
सुखद आश्चर्य है कि कल्हण लिखित इतिहास का प्रारम्भ एक स्त्री “रानी यशोवती” से होता है | उसके पति तत्कालीन सम्राट गोनंद, गांधारी के मायके से सम्बंधित होने के कारण कौरवों की ओर से महाभारत युद्ध में भाग लेते हैं और बलराम के हाथों मारे जाते हैं | उस समय यशोवती गर्भवती होती है | भगवान् कृष्ण स्वयं आकर यशोवती का राज्याभिषेक करते हैं, और जब तक कि उसका पुत्र दामोदर राज्य करने में प्रवीण नहीं हो जाता, वह सफलता से राज्य करती है |
उधर पश्चिम का इतिहास प्रारम्भ ही होता है यातनाओं से, अधिकार वंचनाओं से, स्त्री उत्पीडन से | काम के प्रति उनकी विद्रूप और विकृत धारणाओं के चलते स्त्रियों की हत्याएं, बलात्कार, चर्च द्वारा यौन शोषण से वहां जीवन के अध्याय प्रारम्भ होते हैं | इतिहास की इस परस्पर पृष्ठभूमि को ज़रा सा स्पर्श करने का मेरा अभिप्राय यह है कि इस तरफ ध्यान दिया जाए कि आज स्त्रियों के प्रति सोच क्या है, या उन्हें किस दृष्टि से देखा जाता है ? याफिर वे स्वयं ही अपने प्रति जो धारणाएं गढ़ने का प्रयास कर रही हैं, उसमें कितनी बात कहाँ से आई है | वे कितनी असहज है, कितनी सरल ? 
पाश्चात्य स्त्री ने अत्याचारों के विरुद्ध खड़े होकर स्वयं को स्थापित किया है | अपने मनुष्यत्व को पुरुष और पादरियों के खिलाफ आवाज उठाकर अर्जित किया है | उन्होंने बहुत अधिक आहुतियाँ दी हैं, बलिदान दिए हैं | वही उनका फेमिनिज्म था, उनका स्त्री विमर्श | यानी उनके आन्दोलन ने पश्चिमी संसार को हिलाकर रख दिया | और वे सोचने को विवश हुए कि यह स्त्री है क्या और उसके प्रति कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए | 
कहा जाता है कि दोनों विश्व युद्धों में जितने लोग मारे गए, उससे कहीं अधिक स्त्रियाँ पश्चिम में विद्रोह करते बलिदान हुईं | आश्चर्य यह भी है कि पश्चिम के कई दार्शनिक तो यह तक कह गए कि स्त्रियाँ चूंकि युद्ध नहीं लड़ पातीं, अतः वे पूरी तरह मनुष्य ही नहीं हैं, पुरुष जितनी आदरणीय नहीं, पुरुष के बराबर नहीं | एक दार्शनिक तो यहाँ तक कह गए कि स्त्री में आत्मा ही नहीं होती, अतः जो मर्जी उसके साथ करो | यह आश्चर्यजनक बातें करने वालों में शोपनहेवर तथा कन्फ्यूसियस जिसे विश्वप्रसिद्ध दार्शनिकों की बातें सुनकर दुःख भरा विस्मय होता है, आम भारत वासी तो इन्हें बचकानी बातें ही कहेंगे | अब जब ऐसी धारणाएं किसी भूखंड पर टूल पकड़ेंगी तो वहां की आधी दुनिया में तो भूकंप मचेगा ही और धीरे धीरे तेज झटका आने पर बहुत कुछ धराशाई भी होगा ही | 
भारत में भारतीय दर्शन, मनीषा व चिंतन में समान अधिकारों की स्थापना है, बल्कि नारी पूज्य है | “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः” जैसी उक्तियाँ यहाँ की मान्यताओं में हैं, यही सत्य है | शक्ति पहले ही स्वयं स्त्री है, पृकृति स्त्री है, नदी स्त्री है, विद्युत् स्त्री है, पृथ्वी स्त्री है | द्वन्द्वात्मकता में जब समन्वयता बनती है, तब सृष्टि की रचना घटित होती है | काम हमारे यहाँ वह आनंद है, जिसको सृष्टि का मूल कहा गया है | काम हेय नहीं है, मगर इस सामरस, सामंजस्य के नियम हैं | यदि उनका उल्लंघन हो तो शक्ति का संतुलन बिगड़ता है | सृष्टि में विनाश उत्पन्न होता है | निरानंद का प्राकट्य होता है |
हमारे यहाँ असंख्य पौराणिक, वैदिक स्त्री विभूतियाँ हैं – गार्गी, मैत्रेयी, मदालसा, अनसुईया, अरुंधती, देवयानी, अहिल्या, कुंती, सतरूपा, वृंदा, मंदोदरी, तारा, दौपदी, दमयंती, गौतमी, अपाला, सुलाहा, शाक्ती, उशाली, सावित्री, लोपामुद्रा, प्रतिशयी, वैशालिनी, बेन्दुला, सुनीति, देवहूति, पार्वती, अदिति, शची, सुकन्या, शैव्या आदि | इन्होने परमोत्कर्ष की योग सिद्धियाँ प्राप्त की थीं | कई बार शास्त्रार्थ में कई पुरुष ऋषियों को पराजित किया था | कई दिव्य ऋचाओं की रचनाकार हैं ये स्त्री विभूतियाँ | हमारी गणितज्ञ विभूति लीलावती, जिन्होंने गणित में लीलावती सिद्धांत को प्रस्थापित किया | हमारा इतिहास राजतरंगिणी तथा नीलमत स्त्रियों की प्रतिभाशाली उपस्थिति से भरा पडा है | जहां स्त्रियाँ नगर निर्मात्री, कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ व साम्राज्ञीयां हैं, अधिष्ठात्री देवियाँ हैं | यह सूची तो केवल कुछ की है, जबकि भारत की उस काल की सशक्त प्रतिनिधि महिलाओं की संख्या बहुत बड़ी है |
मैंने भारतीय स्त्री की आदिकाल से लेकर ऐतिहासिक काल तक की यह चित्र भिति आपके समक्ष इसलिए रखी ताकि स्त्रियाँ अपने मूल को समझें, कार्य कारण का विश्लेषण कर सकें | और तब हम आयें अपने आज के युग में, जहां स्त्री एक बहुत बड़ा प्रश्न बना दी गई है, या बन गई है | मैंने देखा है स्त्रियाँ स्वयं भी अपने बारे में गलत - सही धारणाओं का आदान प्रदान कर अथवा पाश्चात्य – भारतीय दृष्टियों का घालमेल बनाकर स्त्रियों के बारे में सोचती हैं और स्त्री को एक असत्य के धरातल पर खड़े भ्रामक प्रश्न के रूप में देखती हैं |
मैंने पहले ही कहा कि भारतीय दृष्टि में सृष्टि का मूल है आनंद और काम रचना की आनंदमयी प्रक्रिया | “उद्भवश्च कन्दर्पः” | जबकि पाश्चात्य दृष्टि में काम हेय है, ईश्वरीयता विहीन है | भारतीय दृष्टि में द्वंद्वात्मकता में सामरस्य और संतुलन की स्थापना से सृजन होता है | अतः इस सामंजस्य के दुर्निवार स्तम्भ हैं, नैतिक मूल्य | नैतिक मूल्यों के आधार पर टिका समूचा आनंद कर्म, सृजना कर्म, सृष्टि कर्म, ईश्वरीय बनता है, दिव्य बनता है | तब उसमें से और और आनंदोद्रेक की संभावनाएं एवं स्तोतस्विनियाँ रहती हैं | यह समत्व है | जिसको “समत्वम योगमुच्यते” अर्थात यही समत्व योग बनता है, एकत्व बनता है | इसी योग की धारणा पर टिकी है हमारी दृष्टि, जीवन दृष्टि |
इधर आजकल प्रायः कुछ वाक्य सुनने में आते हैं – बदलते नैतिक मूल्य या जीवन मूल्य या बदलती नैतिकताएं | मैं आश्चर्यचकित रह जाती हूँ | यह कितना हास्यास्पद है, क्योंकि जो बदलते हैं वे मूल्य नहीं हो सकते | अतः मूल्य जो भी हैं, वे शाश्वत ही हैं | हम भारतीय स्त्रियाँ स्वयं को भारतीयता के दृष्टिकोण से या उस दर्पण में से नहीं देखतीं क्योंकि हमारा इतिहास मारा जा रहा है | हमें उससे दूर, सुदूर किया जा रहा है | हम कालचक्र के आदि से ही अधिकारों से संयुक्त थीं | जबकि पश्चिम की स्त्री के पास एक भी अधिकार नहीं था | वोट देने तक का अधिकार नहीं | वह तो नागरिक भी नहीं थी | हमारे पास समत्व की, योग की दृष्टि थी, वहां भोग की दृष्टि है | आत्मा जैसी अवधारणा का उनके लिए कोई अस्तित्व ही नहीं था | हमारा समत्वमूलक समाज योग और भोग में सामंजस्य रखने वाला समाज है, मगर पश्चिम सिर्फ भोग पर टिका है |
क्या आप जानते हैं कि भारत में निरंतर एक सांस्कृतिक संहार चल रहा है ? भारतीय दृष्टि और जीवन पद्धति में क्षरण भारत पर इस्लाम के आक्रमण के बाद से हुआ और अभी तक यह थमने का नाम नहीं ले रहा | सांस्कृतिक संहार का उद्देश्य है कि आपको आपकी जड़ों से काटा जाए | सांस्कृतिक, धार्मिक तथा राजनैतिक इतिहास जो कि आपका तप भी है, उसे भुलाया जाए | एक हजार वर्ष पूर्व प्राम्भ हुआ यह कार्य अंग्रेजों के समय द्विगुणित वेग से चलने लगा | हाँ सांस्कृतिक संहार की शैली अवश्य बदल गई |
अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के माध्यम से हों वाले इस सांस्कृतिक संहार के फलस्वरूप भारतीय समाज अपनी भाषा, अपने इतिहास और अपने गौरव से कट गया | शत्रु की भाषा और विचार का आक्रमण ऐसा था कि हमारी ही ज्ञान – मनीषा से चुराई गई उनकी बातों को हम ज्ञान मानने लगे और यह भी मानने लगे कि भई हम तो कुछ जानते ही नहीं थे, इन्होने हमें ज्ञान दिया, सब कुछ सिखाया | आकाश, धरती और दिशाओं का बोध कराया | इतना ही नहीं बोलना सिखाया, खाना सिखाया, यहाँ तक कि क्या क्या न सिखाया ?
चूंकि भारतीयता के मूल में सत्य है, अतः वहां राजनीति एवं कूटनीति के मूल में भी नैतिकता है | पर पाश्चात्य राजनीति में सत्य का पूर्णतः विलोप ही है | इस्लामी राजनीति में तो यह दूषण कई कदम आगे जाता है | झूठ को सत्य के रूप में प्रस्तुत करना, ऐसे प्रस्तुत करना कि आप देखते रह जाएँ, दंग रह जाएँ | आपको झूठ काटना भी न आये | आपको सामने प्रमाणों के रहते हुए भी छला जाए | आप शब्दों के लिए छटपटायें, आप निःशब्द हो जाएँ और झूठ वाचाल | तब आप माथा पीटें | ऐसे शातिर चंगुल में भारतीयता, नैतिकता, सत्य, निष्पक्षता, न्याय, दया फंसी हुई है | छलमूलक राजनीति के शस्त्र से भारतीय मन को बदलने का संकल्प लिया गया | 
भारतीय स्त्रियों के लिए पाश्चात्य संस्कारों का ज्ञान अर्जित कर, पाश्चात्य इतिहास के दर्पण में स्वयं को देखने का प्रचलन प्रारम्भ हुआ, भले ही उस दर्पण में उसे अपना स्वरुप कभी दिखाई ही नहीं दे | पाश्चात्य शब्दावली में स्वयं को अभिव्यक्त करने का एक उद्योग ही चल निकला | आज का स्त्री विमर्श, शब्दजाल में उलझाकर, पाश्चात्य ढंग से सोचने, पाश्चात्य मापदंडों पर रखकर किसी घटना / समस्या को प्रस्तुत करने के अलावा कुछ नहीं है | लफ्फाजी का एक बबंडर |
इस बात से कोई इनकार नहीं कि स्त्रियों पर अत्याचार हो रहे हैं, हुए हैं | किन्तु उसका कारण वह आक्रमण है, विदेशी आक्रमण, जिसने भारतीयता को छिन्न भिन्न करके रख दिया है | इस भयानक षडयंत्र के अंतर्गत स्त्रियों को अपनी संस्कृति से परिचित न कराकर विदिशी संस्कृति से परिचित कराया जाता है | वहां उच्छ्रंखलता को मुक्ति कहा जाता है, और शुभ और नैतिक को दकियानूसी | इस प्रकार अर्थ विपर्याय से भरा यह शब्दकोष उसके भीतर पहले प्रविष्टि पा जाता है | यदि सच्ची नैतिकता को उसके समक्ष प्रस्तुत किया जाए तो वे इसे अप्रासंगिक मानेंगे | अर्थात भारतीयता को अप्रासंगिक मानने का पूरा इंद्रजाल वहां उपलब्ध है | सत्य को झूठ कहने का तकनीक वहां उपलब्ध है | आप क्या कर सकते हैं ? हाँ आप आत्म चिंतन कर सकते हैं | आप इसकी खोज में जुट सकते हैं |
हमारी शिक्षा पद्धति को पिछले लगभग सात दशकों से वैसा ही रखा गया है, जैसा कि उसे हमारे संहारकर्ताओं ने स्थापित किया था | संहारग्रस्त लोगों पर आधिपत्य छोड़ते हुए भी संहारकर्ता एक चाल चलता है | वह अपने अधीन किये हुए दीन दुखी गुलामों में से किसी या किन्हीं को छांट कर निकालता है | उसे लोभ देता है कि हम तुम्हें इन गुलामों का सरदार बना देंगे | हम जायेंगे, मगर शर्त यह है कि तुम्हें ही अब हमारे कार्यक्रम, एजेंडे तथा सपने आगे बढाने हैं | दरअसल भारत को स्वतंत्रता नहीं मिली, वह सरदार मिला | हम गुलाम के गुलाम हैं | 
उनके एजेंडे, उनके पाठ्यक्रम, उनकी भाषा, उनके लिबास, उनकी नक़ल, जिसे प्रकारांतर से उनके सपने कहा जा सकता है, के सम्बाहक हम बने और अभी भी बने हुए हैं | इस तरह वे शासक स्थूल रूप से तो गए, मगर सूक्ष्म रूप से हमारे मन, हमारी बुद्धि, हमारे अहंकार में गहरे समाये रहे | जो इस तरह न कर पाया, वह हीन रहा, दीन रहा | अब आजादी कहाँ है ? यह इस हद तक भी रहा कि अभी मैं कल ही नेट पर पढ़ रही थी कि इस तथाकथित आजादी को प्राप्त करने के बाद भारत के प्रथम प्रधान मंत्री ने सेना प्रमुख चुनने की बैठक बुलाई और बोले – मेरा विचार है कि भारत में अभी किसी सेना अधिकारी के पास इतना अनुभव और योग्यता नहीं है कि सेना प्रमुख का दायित्व संभाल सके | अतः क्यों न हम फिलहाल कुछ समय के लिए किसी अंग्रेज अधिकारी के हाथ में ही सेना की बागडोर दे दें | इस पर एक सेना अधिकारी नाथूसिंह राठौर खडे हुए और बोले –क्या मैं इस पर कुछ बोल सकता हूँ ? नेहरू झेंप गए और बोले खुलकर बोलिए | नाथूसिंह ने कहा – अभी इस देश के किसी व्यक्ति में प्रधान मंत्री का दायित्व निर्वाह करने की योग्यता भी नहीं, क्यों न किसी अंग्रेज को ही फिलहाल प्रधान मंत्री बना दिया जाए |
नेहरू जी के चेहरे का रंग उड़ गया | कुछ देर मौन रहने के बाद वे बोले – क्या आप यह दायित्व निभाने को तैयार हैं ? मगर राठौर ने तपाक से जबाब दिया – हमारे पास एक प्रतिभाशाली सेना अधिकारी हैं – जनरल करियप्पा | और जनरल करियप्पा भारतीय सेना के प्रथम प्रमुख बन गए | यह बहुत प्रतीकात्मक है | वह सरदार तो था भारतीयों का, लेकिन एक प्रकार से अंग्रेज ही था | आप सोचिये कि अगर राठौर ने साहस कर जनरल करियप्पा का नाम नामित न किया होता तो क्या भारत का भौगोलिक चित्र भिन्न नहीं होता ? यही हर स्तर पर, हर विभाग में, हर पक्ष में, हर कहीं हुआ | आजादी यानी शत्रु से चंगुल से भारत को छुडाया जाना अभी बाक़ी है |
नेहरू अंग्रेजों का कृतज्ञ था | संहारकों और विजेताओं का आभारी | उन्हें पुरष्कृत करना चाहता था, उपहारों से लादना चाहता था | अपने देश को उनसे पूर्णरूपेण मुक्त कराना नहीं चाहता था | बल्कि इसे उनकी ताबेदारी में सदा सर्वदा रखना चाहता था | इसीलिए भारत में शिक्षा पद्धति, न्याय पालिका, कार्य पालिका, संसदीय क्रिया कलापों की पद्धति में कोई फेरबदल न कर, जस का तस रखा गया | आज भी किसी में हिम्मत नहीं कि भारत को पूर्ण रूपेण स्वतंत्र करें | 
और उसका सबसे विद्रूप रूप मीडिया है | यह चलता भारत में है, कहने मात्र को भारतीय है, शेष सब कुछ इसका गठन भारत विरोधी है | यह बाजार की विकृति की पराकाष्ठा है | सत्य को काटता है | असत्य को प्रतिष्ठित, प्रचारित करता है | रही सही भारतीयता को बेचता भी है और बिद्रूप रूप से खिल्ली भी उडाता है | भारतीयता विरोधी विचारों का एक भयावह उद्योग, एक विषाक्त उद्योग, जिसमें असत्य को सत्य बताकर प्रचारित किया जाता है और उसे देखकर आधे से अधिक समाज सन्निपात ग्रस्त हो जाता है | पराजित मानसिकता में आ जाता है | अक्षरों, वाक्यों, विशेषकर शत्रु की भाषा को जानने वाला छोटा सा नगण्य समाज, हर सच पर अपने डैने फैलाये बैठ, उसे बेचता है और दनादन पैसे कमाता है | पैसे कमाने की बाजारी होड़ में उसने अपनी आत्मा की बोली सबसे पहले लगा ली है | ऐसे लोग न देश के हैं, न धरती के | सिर्फ शत्रु के, संहारक के, और बाजार के हैं ये लोग | 
यह काम निन्यानवे प्रतिशत स्त्रियों के द्वारा संपन्न कराया जाता है | स्त्रियाँ सबसे अधिक बेच सकती हैं | यह संसार में आदि से, विशेषकर पाश्चात्य भोगवादी संसार में तय हो चुका है | इस सत्य को भारत में बुरी तरह घटित किया गया | दनादन विश्व सुंदरियों का चयन किया गया और ग्लोबल सेल्स गर्ल चुन ली गईं भारत से | इन बेचने और बिकने वाली सुंदरियों को प्रसिद्धि और धन के माध्यम से सभी नैतिक सिद्धियाँ भी प्रदान की गईं कि भारतीय समाज की सुकन्यायें “ग्लोबल सेल्सगर्ल” अर्थात “विश्व सुंदरियां” बनने के स्वप्न में निमग्न रहीं | 
मीडिया अधिकतम स्त्रियों द्वारा चलाया जाता रहा है | इन स्त्रियों को जबरदस्त प्रशिक्षण की अग्नि परिक्षा में से निकलना पड़ता है | मीडिया से दौलत, शोहरत, सत्ता से नजदीकियां, सब कुछ प्राप्त होता है | बहुत सारी स्त्रियाँ इसी प्रक्रिया में अपना जीवन, अपना सुख और शील खोती भी हैं | पिछले कुछ समय से ऐसी दो घटनाएँ भी हुईं कि दो मीडिया महिला कर्मियों ने दो अनगढ़ राजनेताओं से शादी रचा ली | यहाँ आपको सारा भोग, सारा बाजार प्राप्य है, सिर्फ अनवरत समझौते करते जाना है | और यही है वे बदलते मूल्य या बदलती नैतिकता जो वर्तमान शिक्षा पद्धति एवं आयातित स्त्री विमर्श के अंतर्गत बड़े आराम से भारत में संभव कर दिया गया है |
संचार माध्यमों के माध्यम से स्त्री लगभग सौ प्रतिशत नग्न हो चुकी है और नग्न होने का साहस करने की स्पर्धा उसकी अर्हता बन चुकी है | नग्नता के इस आरोहण में यदि उसको समाज के भीतर उद्दीपन की प्रतिमूर्ति कहा गया, तो स्त्रीवादी उसके साथ खड़े होने में देर नहीं लगाते | आश्चर्य है कि चाहे द्रश्य मीडिया का विज्ञापन हो अथवा प्रिंट मीडिया का, विज्ञापन में स्त्री पिच्यासी प्रतिशत नग्न होती है, जबकि यदि वहां पुरुष की उपस्थिति है तो वह पूर्ण रूप से परिधान में होता है | शालीन विज्ञापन अब तो ढूंढें से नहीं दिखता | हालत यह है कि कमोड में हंगने तक का विज्ञापन एक नग्न स्त्री से कराया जाता है | तथाकथित स्त्री विमर्श के ध्वजवाहक इसका कदापि विरोध नहीं करते | बल्कि उन्हें यह कहते सुना गया है कि स्त्री यदि अर्ध नग्न चले तो यह उसकी सुरुचि और साहस है | बस तुम्हारा मन न डोले, बात यह है |
इधर आये दिन समाज में बलात्कार की घटनाएँ हैं, जिसे मीडिया सनसनीखेज और मसालेदार बनाकर इस प्रकार दर्शाता है कि कहीं ऐसी बात न कहें जो भारतीय संस्कृति के पक्ष में हो | स्त्री ने घर गृहस्थी छोड़ रखी है और बाजार में दनादन माल बेच रही है | वह अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बैठी पूरे बाजार को संभालने में अपनी ताकत झोंक रही है | उसके लिए धन-संपत्ति ही सब कुछ है, आत्मा कुछ नहीं | मूल्यों की बात पर वह नाक भौं सिकोड़ती है | वह प्रेम को भी बाजार में ही ढूंढ रही है | वह शब्दों के वास्तविक अर्थों से कहीं दूर सरका दी गई है | इस सरकाव को वह दुर्भाग्य से अपनी मुक्ति और सशक्तीकरण समझती है | वह यह बहुत कम समझती है के आन्दोलन मनुष्य के भीतर से उठी एक स्फूर्ति है, जो सत्य को ढकने वाले आवरण उठाता है | आन्दोलन को लेकर उसकी धारणाएं भटकाई गई हैं | उसे घर की रसोई को छोड़ने के लिए उकसाया जा रहा है | उसे लाभ और लोभ वृत्तियों के काले बबंडर में फंसाने का तीव्र से तीव्र उपक्रम हो रहा है | और बताया जा रहा है कि यह उसकी मुक्ति का आन्दोलन है | वह उस पर विश्वास कर रही है, क्योंकि उससे उसकी दृष्टि छीनी गई है |
पश्चिम ने जब स्त्री को प्रताड़ित, पीड़ित किया तो अपने समाज तंत्र के शक्तिशाली एकक घर को तोड़ दिया | उसका वह घर आज तक नहीं बस पाया | उनमें से जिन्होंने भी भारतीय परिवार व्यवस्था को देखा, मुग्ध भाव से देखा, उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ | उसे उस स्नेह, स्पर्श और स्वाद का आभास हुआ जो भारतीयता के अंतर्गत प्राप्त है, किन्तु उनके समाज गठन में नहीं | मगर गुलामी के कारण चूंकि यह नवसाम्राज्यवाद हमारे यहाँ भीतर तक घुस चुका था, तो बाजार का तूफानी विकास कर भारत की शिक्षा पद्धति के माध्यम से परिवार गठन को तोड़ना प्रारम्भ किया | आज की तिथि में हमारे घर के गठन का केंद्र बिंदु रसोई भी बाजार में पहुँच चुकी है | अब घर पति-पत्नी के लिए भी सराय बनते जा रहे हैं और बच्चों का होश संभालने के साथ घरों से निष्कासन या पढाई के बहाने निष्कासन से होता है | अतः वह पारिवारिक अपरिचय जिसका पश्चिम शिकार है, वह भारत में तेजी से फ़ैल रहा है और उसे बाजार और मीडिया फैला रहा है, जिसकी परिचारिका स्त्री है | इस नवसाम्राज्यवाद की भयानक यंत्र बन रही है स्त्री | चाहे वह भारतीय ही क्यों न हो |
भारत के पास इतिहास है | इस इतिहास में उसके पास आल्हाद्जनक दिव्य घटनाओं का समुच्चय है | अतः भारतीय संस्कृति में हर तरह के दिन उपलब्ध हैं | मगर इसके प्रति द्वेष और षड्यंत्र के चलते पश्चिम अपने दिवसों का रोपण करता है | जैसे मदर्स डे, फ्रैंडशिप डे, वेलेंटाईन डे, इत्यादि | धन्यवाद सोशल मीडिया का कि अब इन दिनों पर मजाक भी बनने लगे हैं, जैसे चोकलेट डे, कोकोनट डे, बेंगल डे आदि | यह एक अच्छा तरीका है इस डे कल्चर को विगलित करने का | इधर हमारी संस्कृति में मदर्स डे तो हर अष्टमी और नवमी होती है | यहाँ तक कि वेलेंटाईन डे जैसा उत्सव नीलमत पुराण में पूरे गरिमामय नियमों के साथ मदन त्रयोदशी के दिन होता है | इनको मनाये जाने के नियम रोचक, उत्सवधर्मी, आल्हादक और दिव्य हैं | मगर चूंकि हम अपने ज्ञान से च्युत हैं, दूर हैं, इसलिए मीडिया ने अज्ञान को ही ज्ञान बना डाला है | इसकी जबरदस्त मिसाल बाबा रामदेव जी के पुत्रजीवक बीज औषधि पर उठाये गए विवाद से स्पष्ट है | मीडिया इस नाम के सर्वव्यापक होने को ही नहीं स्वीकारती | संस्कृत के शब्दों को नकारती है, अपने पर्यायवाची देती है | यह सांस्कृतिक संहार का भीषणतम रूप है |
आज के शातिराना ज्ञानियों ने, बाजार और मीडिया ने मिलकर जिसे जन्मा, वह है ग्लोबल व्लेज | मगर हमें यह होश नहीं है कि ग्लोबल व्लेज का कंसेप्ट हमारे यहाँ से लिया गया है | बहुत दूर नहीं जाना है, भगवत्गीता आज के युग में पढी जा रही है | पन्द्रहवें अध्याय का तेरहवें श्लोक में भगवान् कहते हैं कि “गामाविश्य च भूतानि, धारयाम्यदभोजसा, पुष्पाणि औषधीः सर्वाः, सोमो भूत्वा रसात्मकः |
अर्थात मैं इस गांव जिसका नाम पृथ्वी है में प्रवेश करता हूँ और जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति को संभव करता हूँ | 
और अब यह चुराई अवधारणायें और उसकी विलोम प्रस्तुतियां यह शोध और चिंतन की मांग करती है | मैं मध्यभारत साहित्य सभा ग्वालियर द्वारा अपने उपन्यास “दर्दपुर” पर आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लेने 2006 में ग्वालियर गई थी | कार्यक्रम समाप्त होने पर एक वृद्ध व्यक्ति मेरे पास आये और हाथ जोड़कर बोले – क्षमा जी हमें इस एकता कपूर से छुटकारा दिलाईये |
मैं आज भी इसका उत्तर, इसका समाधान खोज रही हूँ | आज सौभाग्य से मेरे साथ मीडिया की महान हस्ती मधु जी भी हैं, मैं इस प्रश्न को इनकी ओर बढाती हूँ | मैं जिस पृष्ठभूमि से हूँ, वह है शैव दर्शन | वहां तो इस तरह का कोई द्वन्द नहीं है | अर्धनारीश्वर की आधुनिकतम अवधारणा और उसकी व्यवहारगत प्रक्रिया या परंपरा भी उपस्थित है वहां | 
मैं भारतीय दृष्टि और सशक्त स्त्री का उद्धरण देना चाहूंगी | शकुंतला अपने पति से कहती है –
या सादारा – सा विश्वास्या, तस्मादारा परागति |
जो स्त्री सहित है, वह पुरुष ही संसार में विश्वसनीय है, इसलिए स्त्री पुरुष की परागति है |
महाशिवरात्रि हमारे यहाँ हर वर्ष शिव विवाह की स्मृति में उसी रूप में मनाया जाता है | उसमें जो पूजा होती है, उसका सारश्लोक है –
लिंगस्य हृदयं भगः, भगस्य लिंगः हृदयं |
ततः ते भग लिंगाय, उमारुद्राय ते नमः ||


पृकृति और पुरुष दोनों एक दूसरे में अवस्थित, दोनों एक दूसरे के ह्रदय हैं | असमानता कहीं नहीं | अगर इस शिवसूत्र को हम ह्रदय में बसा पायें तो क्या संसार में कोई समस्या शेष रहेगी ?

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