अपनी माँ को संबोधित सुदर्शन जी की आत्मकथा – “अक्का” की याद” |


हाँ, हम भाई बहिन तुमको अक्का कहकर ही पुकारते थे | मेरे ननिहाल में तुम ही सबसे बड़ी थीं, इसलिए मामा और मौसी तुमको बड़ी बहिन के नाते “अक्का” कहते थे, और बचपन में वहां रहते हुए मैं और बाद में मेरे भाई बहिन भी तुम्हें अक्का ही कहने लगे | एक बार तुमने कहा भी था कि “अम्मा” की तुलना में तुमको “अक्का” नाम ही अधिक पसंद है | बैसे ही अन्ना बड़े भाई को कहते हैं, किन्तु हम सब पिताजी को अन्ना कहकर ही पुकारा करते थे | अन्ना वन विभाग की नौकरी में होने के कारण तुम दोनों की छत्रछाया में एक साथ रहने का अवसर कम ही मिला | हम तीनों भाईयों एवं एक बहिन को पालपोस कर बड़ा करने, खिलाने पिलाने और इन सबसे अधिक हमें उत्तम संस्कार देकर समाज के एक सम्माननीय घटक के नाते गढ़ने का काम तो तुम्हारे ही कन्धों पर आन पडा था | जिसे तुमने बखूबी निभाया | इसलिए तो एक बार मामा ने मेरे सबसे छोटे भाई के सामने कहा था – कमाल है अक्का की ! बहुत पढी लिखी न होने पर भी तुम सबको उन्होंने कितने उत्तम ढंग से शिक्षित और संस्कारित किया |

हाँ अक्का, तुम बहुत पढ़लिख नहीं पाईं | पाती भी कैसे ? मेरे नानाजी तो तुम सब छोटे थे तबही परमधाम सिधार गए थे और नानीजी ने प्राथमिक विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी कर तुम सबको पाल पोस कर बड़ा कर दिया | स्वाभाविक ही वे तुम सबको बहुत अधिक पढ़ा नहीं सकती थीं | उन दिनों लड़कियों के लिए अधिक पढ़ना आवश्यक भी नहीं माना जाता था | विवाह भी कम उम्र में कर दिए जाते थे | तुम भी तो ग्यारह वर्ष की उम्र में ही गृहिणी बनकर आई थीं | उन दिनों पिताजी मध्यप्रदेश के चंद्रपुर जिले के सिरोंचा में कार्यरत थे, जहां आंध्र से संलग्नता के कारण मराठी और तेलगू बोली जाती थी | तुमने भी दोनों भाषाओं का काम चलाऊ ज्ञान प्राप्त कर लिया था | पर बाद के दो दशकों तक पिताजी हिन्दीभाषी क्षेत्रों में ही रहे और इसलिए तुमने हिन्दी भी सीख ली | और तभी आज के छत्तीसगढ़ के महासमुंद में अन्ना की नियुक्ति के समय तुमने मुझे रायपुर के मिशन अस्पताल में जन्म दिया | मेरे जन्म की सूचना अन्ना को तार द्वारा दी गई | जब तार उन्हें मिला, रायपुर आने की रेलगाडी छूट चुकी थी | अतः अन्ना साईकिल से ही निकले और विपरीत दिशा में चल रही धूलभरी आंधी को चीरते हुए लगभग पचास किलोमीटर का रास्ता तय कर रायपुर पहुँचे | तुम्हारी गोद में मुझे देखकर अपना सारा श्रम भूल गए होंगे और प्रसन्न भी हुए होंगे |

प्रसन्न क्यों न होते ? तुमने ही तो बताया था कि निरंजन नामक मेरा एक बड़ा भाई भी हुआ था किन्तु अल्पायुषी सिद्ध हुआ | उसके बाद जुड़वां बच्चे भी हुए, किन्तु वे भी नहीं रहे | इसलिए मुझे देखकर तुम सबने मेरी दीर्घायु की कामना की होगी | सो आज पिचहत्तरवें वर्ष में चल रहा हूँ | तुम दोनों ने भी आयु के नौ दशक देखे | हम चार भाई बहिनों एन मंझला भाई सुरेश ही, मेरे प्रचारक बनने व छोटे भाई रमेश के अमेरिका चले जाने के पश्चात तुम दोनों को सम्भाला करता था | किन्तु नासिका के अन्दर की एक फुंसी पर हुई शल्य क्रिया के बाद कुछ गड़बड़ होकर अपने पीछे अपनी पत्नी और एक पुत्र पुत्री को छोड़कर काल के गाल में समा गया | अत्यंत मिलनसार, विनोदप्रिय एवं कुशल अध्यापक के नाते उदयपुर विश्वविद्यालय में उसकी ख्याति थी | विश्व हिन्दू परिषद् के कार्य को उसने अपना बना लिया था |

मध्यप्रदेश के हटा जिले के फतहपुर नामक ग्राम में मैंने प्राथमिक विद्यालय की दो कक्षाएं पढीं और बाद में पांचवीं तक की तीन कक्षाओं का अध्ययन दमोह में हुआ, जो आज जिला केंद्र है, किन्तु उस समय तहसील केंद्र था | जब पांचवीं कक्षा में था तभी “रेंजक्वार्टर” के निकट डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के प्रांगण में रायपुर से आये दामोदर गिरिभट्ट नामक प्रचारक के द्वारा शाखा प्रारम्भ हुई थी | रेंज क्वार्टर के मैदान में हम और आसपास के अन्य बच्चे खेला करते थे | बीच-बीच में सड़क के उस पार लगने वाली शाखा में होने वाले खेलों का आनंद लिया करते थे | एक दिन दत्तू नामक मेरे एक सहपाठी ने, जो पास के अस्पताल में कार्यरत कम्पाउंडर का बेटा था, मुझसे कहा कि शाखा चलो, वहां लाठी चलाना सिखाते हैं | वह मुझसे एक दिन पूर्व ही शाखा गया था | मैंने तब तुमसे जाकर पूछा था कि ‘अक्का’ मैं लाठी सीखने जाऊं ? तो तुमने सहर्ष अनुमति दे दी थी | तब किसे पता था कि लाठी सीखते सीखते मैं “बड़ी माँ” की सेवा हेतु तुम सबकी आशाओं पर तुषारापात करता हुआ, संघ का प्रचारक बन जाउंगा ? पता होता तो क्या तुम मुझे जाने देतीं ? क्योंकि निम्न मध्यवित्त परिवारों की माताओं के समान तुम्हारी भी कामना यही थी कि मैं पढूं-लिखूं, अच्छी सरकारी नौकरी कर अपनी गृहस्थी बसाऊँ |

हम सब भाई बहिनों पर जो उत्तम संस्कार हुए, उसका कारण ही वह था कि तुम पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन और पर्व त्यौहारों को परम्परागत रीति से मनाने का बड़ा आग्रह रखती थीं | जिसका हम सबके बालमन पर विशेष प्रभाव पडा करता था | मुझे याद है, तुम और बुआ जी, जो बालविधवा हो जाने के कारण प्रायः साथ ही रहती थीं, रामायण, महाभारत, पुराण आदि की कहानियां सुनाया करती थीं | सारे वृत उपवास तुम दोनों नियमपूर्वक रखा करती थीं और बड़ी एकादशी, जन्माष्टमी और शिवरात्रि के समय मैं भी वृत रख लेता था और रात की राह इस आशा से देखा करता था कि फलाहार के समय नए-नए व्यंजन खाने को मिलेंगे | उपवास न रखने वालों को भी व्यंजन खाने को तो मिल जाते थे, किन्तु छोटे भाईयों के सामने “मैंने उपवास रखा है”, यह शेखी बघारने का जब मौक़ा मिलाता था, तो बड़ी आत्मसंतुष्टि होती थी | 
हम सब भाई जब ऊधम मचाते हुए कुछ गलत कार्य कर जाते थे, तब तुम हमको मारती तो नहीं थीं, किन्तु तुम्हारे पास एक अस्त्र था, जिससे हम सब बड़े घवाराते थे | वह अस्त्र था – “उन कईले वार्च्छोल्लल्ले” (तुमसे नहीं बोलूंगी) | मुझ पर ऐसा अवसर आने पर, मेरे अन्य भाईयों से तो तुम प्रेमपूर्वक बोलतीं थीं, किन्तु मुझसे कुछ कहना हो तो तृतीय वचन में बोला करती थीं – “उससे कह दो नहा ले, उससे कह दो खाले, उससे कह दो कपडे बदल ले” आदि | तुम्हारी ओर से इस प्रकार का पराया व्यवहार मन को इतना चुभता था कि एकाध दिन में ही हम लोग ठीक रास्ते पर आ जाते थे और अपने किये पर तुमसे क्षमा मांग लेते थे |

जब पिताजी साथ में होते थे, तब तुम्हारा अस्त्र होता था – “ठहरो, आने दो अन्ना को, उनसे तुम्हारी शिकायत करूंगी” | और अन्ना की हम सब धाक खाते थे | वे भी क्वचित ही हाथ उठाते थे, किन्तु उनकी बुलंद आवाज ही हम लोगों को डराने के लिए पर्याप्त होती थी |

मुझे याद आता है कि जब मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था, तब मेरे यज्ञोपवीत संस्कार के लिए हम लोग श्रीरंगपट्टनम गए थे और जनेऊ धारण करने के पश्चात बेंगलुरू मामा के घर आये | घर के सामने एक छोटा सा चम्पा का पेड़ था, जिस पर चढ़कर मैं चम्पा के फूल तोड़ा करता था | किन्तु एक दिन अल्पाहार लेकर मैं जल्दी आ गया और वृक्ष पर चढ़कर फूल तोड़ने लगा | एक फूल फुनगी पर था | उसे तोड़ने के लिए जब डाल पर जोर डाला तो डाल टूट गई और मैं धडाम से नीचे सीमेंट के फर्श पर आ गिरा | तुम उस समय घर के बाजू में कपडे धो रही थीं | आवाज सुनकर जब तुमने पलटकर देखा, उस समय मैं फर्श पर निश्चेष्ट पडा हुआ था | तुम चीखकर दौडीं, तुम्हारी चीख सुनकर मामा, अन्ना सब दौड़े | मैं बेहोश हो गया था | बाएं हाथ की हड्डी टूट गई थी | तत्काल मामा ने दो लकड़ी के पटिये लगाकर हाथ पर पट्टी बाँध दी और विक्टोरिया अस्पताल ले गए | डाक्टरों ने हड्डी बैठाकर प्लास्टर चढ़ा दिया और वार्ड में ले जाकर सुला दिया | सायंकाल जब मुझे होश आया तो देखा तुम सब चारों ओर खड़े हो | मैं आश्चर्य कर रहा था कि यहाँ कैसे आ गया ? इक्कीस दिन वहां रहकर उकता गया था और रट लगा रहा था कि घर ले चलो | बाद में घर आकर बेंगलूर से मंडला सबके साथ आया, जहां के जगन्नाथ विद्यालय में मेरी छठवीं से लेकर दसवीं तक की शिक्षा हुई | खोपड़ी में एक छोटी दरार भी आई थी,किन्तु उसके लिए केवल सावधानी बरतने को कहा गया था |

अन्ना अपना काम अत्यंत प्रामाणिकता से किया करते थे, जिसके कारण उनकी “रेंज ऑफिसर” से “सब डिवीजनल ऑफिसर” के रूप में पदोन्नति हो गई और स्थानांतर चंद्रपुर जिले के आलापल्ली सब डिवीजन में हुआ |पुनः ग्यारहवीं कक्षा की पढाई के लिए हम लोगों को तुम्हारे साथ चंद्रपुर में रहना पड़ा, जहां परिक्षा में पूरे मध्यप्रदेश में मैं चतुर्थ स्थान पर आया था | यह सब तुम्हारी कृपा, तुम्हारे स्नेह, तुम्हारे प्रोत्साहन और तुम्हारे आशीर्वाद का फल था | उसके बाद इंटरमीडिएट की पढाई के लिए मैं जबलपुर के महाकौशल महाविद्यालय के छात्रावास में आ गया और छात्रावास में दो वर्ष रहा | परन्तु वहां के निकृष्ट भोजन और उबले हुए कद्दू की सब्जी खाते-खाते पीलिया के रोग से ग्रस्त हो गया | प्राध्यापकों की सलाह पर मैं चंद्रपुर आया, तो मेरी पीली आँखें और पीला शरीर देखकर तुम कितनी घबरा गई थीं और तुरंत पिताजी को सूचित किया था | वे तुरंत आये और वैद्य जी के पास मेरी चिकित्सा शुरू हुई | तीन सप्ताह बाद जब जबलपुर चला तो तो तुमने मेरे साथ वह सारा साज सामान दे दिया था, जिसके द्वारा मैं स्वयं दही जमाकर छाछ बना सकूं और उसके साथ भोजन कर सकूं |

दूसरी चिंता का विषय तुम्हारे लिए तब बना, जब मैं दिनांक 11 दिसंबर 1949 को संघ पर प्रतिबन्ध हटवाने के लिए सत्याग्रह कर जेल चला गया, जिसे महात्मा गांधी की ह्त्या का झूठा आरोप संघ पर लगाकर लगाया गया था | पिताजी को मालूम पड़ने पर वे मुझसे मिलने जेल आये | सरकार का प्रयास था कि सत्याग्रही माफी मांग लें और सत्याग्रह की कमर टूट जाए | अतः पालकों को इसी शर्त पर मिलाने दिया जाता था कि वे अपने बच्चों से माफी मांगने के लिए कहेंगे | तदनुसार पिताजी ने भी मुझसे कहा, किन्तु पिताजी अपने साथ ऊनी ओवरकोट लेकर आये थे | यह देखकर मैं समझ गया कि पिताजी को अपेक्षा नहीं है कि मैं माफी माँगूंगा और इसीलिए ओवरकोट लेकर आये थे कि ठण्ड के दिनों में मुझे जेल में कष्ट न हो | बाद में विद्यार्थियों की परीक्षाओं में वाधा न पड़े, इसलिए विद्यार्थी छोड़ दिए गए | परिक्षा में मुझे अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ देखकर तुमको और पिताजी को संतुष्टि हुई और मैं अभियांत्रिकी का शिक्षण लेने लगा |

मेरे छोटे भाईयों की भी महाविद्यालयीन शिक्षा प्रारम्भ होने के कारण तुम जबलपुर आ गईं और किराए के मकान में हम लोग रहने लगे | खाने पीने को तो व्यवस्थित मिलता रहा, किन्तु संघकार्य की धुन में मैंने कभी समय पर नहीं खाया | मैं रात को 12-12 बजे लौटता, तो तुम मेरे लिए भोजन गरम करके परोसतीं | आज सोचता हूँ कि तब मैंने तुम्हें कितना कष्ट दिया | तुम कितना समझाती कि – ‘बेटा कमसेकम भोजन तो समय पर कर लिया करो | फिर जहां जाना हो जाओ’ | पर मैंने तुम्हारी नेक सलाह नहीं मानी | खाने पीने और सोने जागने की अनियमितता के कारण मैं जीर्ण आंव का रोगी बन गया | परिणामतः बैद्यराज की औषधी के साथ-साथ छः मास तक केवल छाछ पर ही रहना पड़ा | आज वही परामर्श मैं सारे प्रचारकों को देता हूँ और कहता हूँ कि दीर्घकाल तक निरोग रहकर संघ कार्य करना हो तो नाश्ता, भोजन तथा सोने-जागने का समय निश्चित करो | और जब मैं उनसे ऐसा कहता हूँ, तो अक्का तुम्हारी भी याद आती है |

दूर संचार में बी.ई. (ओनर्स) की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात तीन मास का प्रायोगिक प्रशिक्षण लेने मैं दिल्ली में रहा और वहां से वापस आकर प्रचारक के नाते जाने की घोषणा कर दी | तुम सबने मुझे परावृत करने का प्रयत्न किया, किन्तु मैं अडिग रहा | आखिर तुम्हारा ही तो दूध पिया था | पर यह तुम्हारे लिए और पिताजी के लिए बहुत बड़ा धक्का था | अन्ना ने आशा बांधी थी कि मैं कमाने धमाने लगूंगा तो भाई बहिनों के शिक्षण पर और दो स्थानों पर परिवार की व्यवस्था पर जो विशेष बोझ पड़ रहा है, उसमें हाथ बटाऊँगा | पर उनकी इस आशा पर तुषारापात हो गया | तुम भी दुखी थीं, किन्तु जबलपुर के विभाग प्रचारक श्री ओमप्रकाश जी कुन्द्रा ने कुशलता के साथ समझाबुझाकर तुम्हें इस बात के लिये तैयार कर लिया कि स्टेशन पार आकर अपने स्नेहाशीर्वाद के साथ मुझे विदाई दी | शायद उन्होंने तुमसे कहा होगा कि 2-3 वर्ष बाद वापस आ जाएगा | अतः तुम्हारी आशा बंधी रही | 

दो वर्ष बाद किसी कार्यक्रम के लिए जबलपुर आया तो तुमने व अन्ना ने कहा कि – “दो वर्ष की बात हुई थी, सो पूरे हो गये, अब वापस आकर घरवार संभालो” | मेरा कहना था कि “मैंने अपने मुंह से कभी दो वर्ष की बात नहीं कही थी | प्रारम्भ से ही मेरा विचार आजीवन प्रचारक बनने का रहा है” | दूसरे दिन चलते समय जब तुम्हारे और अन्ना के चरण स्पर्श करने गया तो अन्ना ने बड़े ही अरुण स्वर में कहा –‘जिद मत करो सुदर्शन’ | किन्तु मैं चला आया, पर सारे रास्ते पिताजी का करुण स्वर कानों में गूंजता रहा | बाद में तो तुम दोनों ने समझ लिया कि मैं निश्चय का पक्का हूँ अतः आगे कभी वापस आने की बात नहीं कही | इसके विपरीत अन्ना ने एक बार यह भी पूछा कि तुम सरसंघचालक कब बनोगे ? मैं तो उस समय प्रांत प्रचारक था | यह कल्पना भी मन में नहीं कर सकता था कि ऐसे अत्यंत उत्तरदायित्व के पद पर कभी मुझे आसीन होना पडेगा | और इलिए यह कहकर छुटकारा पा लिया कि उसके लिए जो योग्यता लगती है, वह मुझमें नहीं है | आज भी ऐसा ही लगता है, पर साथ ही हमारे प्रांत प्रचारक रहे श्री रामशंकर अग्निहोत्री का वह वाक्य याद आटा है कि – “चिंता मत करो | संघ तुम्हारे हाथ से सब काम करवा लेगा” |

यह मेरा सौभाग्य रहा कि पिताजी और तुम्हारी अंतिम बीमारी के दिनों में कुछ दिनों तक सेवा कर सका | प्रिय सुरेश के देहावसान के पश्चात तुम दोनों बहिन वत्सला के घर ही थे | वहां से असम के प्रवास पर जाने हेतु तुमसे अनुमति लेकर निकला, किन्तु गुवाहाटी पहुंचते ही खबर लगी कि हम सबको छोड़कर तुम दिव्यलोक को प्रस्थान कर गईं | मैं तुरंत वापस आया और चिता को अग्नि दी | यह भी कैसा संयोग था कि जिस रायपुर में तुमने मुझे इस धरती पर उतारा, उसी रायपुर में मैंने तुम्हें अंतिम विदाई दी | अक्का ! आज मैं जो कुछ भी हूँ, तुम्हारे कारण हूँ | तुमने मुझे जो संस्कार दिए, उन्होंने मुझे वह शक्ति, निश्चय और आत्मविश्वास प्रदान किया, जिसके बल पर आज इस गुरुतर दायित्व को संभाल रहा हूँ | पर अक्का ! पग पग पर तुम्हारी बहुत याद आती है | 

75 वर्ष की जीवन यात्रा पूर्ण होने के बाद अपनी पूज्य माताजी का स्मरण करते हुए लिखा गया यह आलेख सुदर्शन जी ने स्वान्तःसुखाय लिखा था तथा अपने जीवनकाल में इसे कभी प्रकाशित नहीं होने दिया | माँ के प्रति अतीव आत्मीयता व अनुराग को दर्शाता यह आलेख उनकी स्वयं की जीवनयात्रा की संक्षिप्त जीवन झांकी भी है |

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