व्यापार भी हो सकता है मुक्ति का साधन |


असत्य, कपट और लोभ आदि त्याग करके यदि भगवत्-प्रीत्यर्थ न्याययुक्त व्यापार किया जाय तो वही मुक्ति का मुख्य साधन बन सकता है । मुक्ति में प्रधान हेतु भाव है, क्रिया नहीं है । शास्त्रविधि के अनुसार सकाम भाव से यज्ञ, दान, तप आदि उत्तम कर्म करने वाला मुक्ति नहीं पाता, सकाम बुद्धि के कारण वह तो या तो उस अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त होता है । जिसके लिये वह उक्त सत्कार्य करता है या निश्चित काल के लिये स्वर्ग को प्राप्त करता है परन्तु निष्काम भाव से किया अल्प कर्म भी मुक्ति का हेतु बन सकता है । 

इसीलिये सकाम कर्म को तुच्छ और अल्प कहा है, कुछ भी न करने वाले की अपेक्षा सकाम यज्ञादि कर्म करने वाले बहुत ही उत्तम है और इन लोगों को प्रोत्साहन ही मिलना चाहिये, परन्तु सकाम भाव रहने तक वह कर्म स्त्री, धन, मान-बडाई या स्वर्गादिके अतिरिक्त परमपद कि प्राप्ति करने में समर्थ नहीं होता । इसीसे गीता में भगवान् ने सकाम कर्म को निष्काम की अपेक्षा नीचा बताया है (गीता अ० २।४२,४३,४४; अ० ७।२०,२१,२२; अ०९।२०,२१) 

पक्षान्तरमें निष्काम कर्मकी प्रशंसा करते हुए भगवान् कहते है-----

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।। ( गीता २।४०)

`इस निष्काम कर्म योग में आरम्भ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और विपरीत फलरूप दोष भी नहीं होता है । इसलिये इस निष्काम कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान् भयसे उद्धार कर देता है ।` अतएव मुक्तिकामियों को निष्काम कर्म का आचरण करना चाहिये । मुक्ति के लिये आवश्यकता ज्ञान की है, किसी अन्य बाह्य उपकरण की नहीं, इसी से मुक्तिका अधिकार साधनसम्पन्न होनेपर सभी को है । व्यापारी भाइयों को व्यापार छोड़ने की आवश्यकता नहीं । वे यदि चाहे तो व्यापारको ही मुक्ति का साधन बना सकते हैं ।

[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]

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