उत्तराखंड की गौरा देवी ने बचाया हिमालय - (चिपको आन्दोलन) |

उत्तराखण्ड राज्य का चिपको आन्दोलन एक घटना मात्र नहीं है यह पर्यावरण व प्रकृति की रक्षा के लिए सतत चलने वाली प्रक्रिया है. उत्तराखण्ड के लोगों की अत्यंत संघर्षपूर्ण व कष्टदायक जीवन शैली ने ही उनमें संघर्ष की असीम क्षमता का निर्माण किया है ! इसी के बलबूते पर यहाँ के लोगों ने अपने बुनियादी अधिकारों को लेकर अनेकानेक सफल जन आन्दोलन किये हैं ! जिनमें 1921 का कुली बेगार आन्दोलन, 1930 का तिलाड़ी आन्दोलन, 1974 का चिपको आन्दोलन,1984 का नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन तथा 1994 का उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति आन्दोलन विशेषरूप से उल्लेखनीय है !

क्या था चिपको आन्दोलन 

क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।

इसी घोष वाक्य के साथ चिपको आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ ! चिपको आन्दोलन का सांकेतिक अर्थ यही है कि पेड़ों को बचाने के लिये पेड़ों से चिपक कर जान दे देना, परन्तु पेड़ों को नहीं काटने देना है ! उत्तराखण्ड राज्य के तीन जिलों उत्तरकाशी, चमोली व पित्थोरागढ़ की सीमा चीन से लगती है ! चमोली तथा उसके आस पास के क्षेत्रों के लोगों की रोजी-रोटी के लिये व्यवसाय मवेशी पालन तथा लघु वन उपज, जड़ी-बूटी, गोंद, शहद, चारे के लिये घास फूस, कृषि सम्बन्धी छोटे-मोटे औजार बनाना आदि आदि था ! 1962 तक तिब्बत व चीन के लोगों के साथ यहाँ के निवासी ऊन तथा कुछ हथकरघा उद्योग की वस्तुओं इत्यादि का व्यापर करते थे ! 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद परिस्थितियों में एकदम बदलाव आ गया !

पहला बदलाव तो यह आया कि यहाँ लोगों का तिब्बत व चीन साथ व्यापार खत्म हो गया ! इसके कारण यहाँ लोगों की आजीविका पूर्णतया वनों पर निर्भर हो गयी ! दूसरा बदलाव यह आया कि सरकार को भारत चीन सीमा की सुरक्षा के लिये मार्गों का निर्माण करना पड़ा ! इससे हिमालय में खड़ी अथाह वन सम्पदा सरकार, ठेकेदारों, माफियाओं की नजर में तथा पहुँच में आ गयी ! हिमालय में पेड़ों की ठेकेदारी प्रथा से अंधाधुंध कटाई के साथ-साथ असुरक्षित खनन, सड़क निर्माण, जल विद्युत परियोजनायें व पर्यटन सहित अन्य विकास कार्यों से वनों का विनाश होना शरू हो गया ! 

इतने असुरक्षित विकास कार्यों व वनों की अंधाधुंध कटाई को हिमालय झेल नहीं पाया और इन सबके परिणाम स्वरूप सन 1970 में ऐसी प्रलयंकारी बाढ आयी थी जैसी पिछले वर्ष 2013 में आयी ! यह महाविनाश प्राकृतिक नहीं था ! यह महाविनाश मानव निर्मित था ! समस्त असुरक्षित विकास कार्यों व वनों की अंधाधुंध कटाई ने भूस्खलन व बाढ़ों का मार्ग प्रशस्त किया ! यहाँ के निवासियों आजीविका तो दूर जीना मुश्किल हो गया था ! यहीं से चिपको आन्दोलन अस्तित्व में आया !

गौरा नाम है माँ भगवती पार्वती का | पार्वती का मायका है हिमालय | और वास्तव में हिमालय को अपना मायका मानने वाली गौरा देवी पर ही केन्द्रित है आज का यह आलेख | 1972 में गौरा देवी जी को रैंणी गांव की महिला मंगल दल का अध्यक्ष चुना गया ! इसी दौरान वह चण्डी प्रसाद भट्ट, गोबिन्द सिंह रावत, वासवानन्द नौटियाल और हयात सिंह जैसे समाजिक कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आई ! जनवरी 1974 में रैंणी गांव के 2451 पेड़ों का छपान हुआ ! 23 मार्च को रैंणी गांव में पेड़ों का कटान किये जाने के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ, जिसमें गौरा देवी ने महिलाओं का नेतृत्व किया ! प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा देने की तिथि 26 मार्च तय की गई, जिसे लेने के लिये सभी गाँव के सभी मर्दों को चमोली जाना था !

इसी बीच वन विभाग ने सुनियोजित चाल के तहत जंगल काटने वाले ठेकेदारों को निर्देशित कर दिया कि 26 मार्च को वे अपने मजदूरों को लाकर चुपचाप रैंणी जंगल के पेड़ों को काट कर ले जायें ! गांव के सभी पुरुष चमोली में रहेंगे उसी दिन समाजिक कायकर्ताओं को वार्ता के बहाने गोपेश्वर बुला लिया जायेगा ! इसी योजना पर अमल करते हुये ठेकेदार श्रमिकों को लेकर रैंणी की ओर चल पड़े ! वे रैंणी से पहले ही उतर कर ऋषिगंगा के किनारे रागा होते हुये रैंणी के देवदार के जंगलों को काटने के लिये चल पड़े ! इस हलचल को एक छोटी लड़की ने देख लिया ! उसने तुरंत इससे गौरा देवी को अवगत कराया ! पारिवारिक संकटों को झेलने वाली गौरा देवी पर आज एक सामूहिक उत्तरदायित्व आ पड़ा ! वह गांव में उपस्थित 21 महिलाओं और कुछ बच्चों को लेकर वह जंगल की ओर चल पड़ी ! इनमें बती देवी, महादेवी, भूसी देवी, नृत्यी देवी, लीलामती, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, पासा देवी, रुक्का देवी, रुपसा देवी, तिलाड़ी देवी, इन्द्रा देवी शामिल थीं ! इनका नेतृत्व कर रही थी, गौरा देवी, इन्होंने खाना बना रहे मजदूरो से कहा ”भाइयो, यह जंगल हमारा मायका है, इससे हमें जड़ी-बूटी, फल- सब्जी और लकड़ी मिलती है, जंगल काटोगे तो बाढ़ आयेगी, हमारे बगड़ बह जायेंगे, आप लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो, जब हमारे पुरुष आ जायें तब फैसला कर लेंगें !” 

ठेकेदार और जंगलात के आदमी उन्हें डराने-धमकाने लगे, उन्हें बाधा डालने जुर्म में गिरफ्तार करने की भी धमकी दी, लेकिन यह महिलायें न डरी न झुकी ! ठेकेदार ने बन्दूक निकालकर इन्हें धमकाया तो गौरा देवी ने अपनी छाती तानकर गरजते हुये कहा “पहले मुझे गोली मारो फिर काट लो हमारा मायका” इस पर मजदूर सहम गये ! गौरा देवी के अदम्य साहस से इन महिलाओं में भी शक्ति का संचार हुआ और महिलायें पेड़ों के चिपक गई और कहा कि इन पेड़ों के साथ हमें भी काट दो ! ऋषिगंगा के तट पर नाले पर बना सीमेण्ट का एक पुल भी महिलाओं ने तोड़ डाला, जंगल के सभी मार्गों पर महिलायें तैतात हो गई ! ठेकेदार के व्यक्तियों ने गौरा देवी को डराने-धमकाने का प्रयास किया, यहां तक कि उनके ऊपर थूक तक दिया गया ! लेकिन गौरा देवी ने नियंत्रण नहीं खोया और पूरी इच्छा शक्ति के साथ पूरी रात अपना विरोध जारी रखा ! इससे मजदूर और ठेकेदार को आखिर हथियार डालने पड़े ! इन महिलाओं की जीत हुई और जंगल बच गया !

इस घटना की चर्चा प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश में जंगल में आग की तरह फ़ैल गयी ! और इस आन्दोलन ने सरकार के साथ-साथ वन प्रेमियों और वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर खींचा ! सरकार को इस हेतु डा० वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में एक जांच समिति का गठन किया ! जांच के बाद पाया गया कि रैंणी के जंगल के साथ ही अलकनन्दा में बांई ओर मिलने वाली समस्त नदियों ऋषि गंगा, पाताल गंगा, गरुड़ गंगा, विरही और नन्दाकिनी के जल ग्रहण क्षेत्रों और कुवारी पर्वत के जंगलों की सुरक्षा पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत आवश्यक है !

इस प्रकार से पर्यावरण के प्रति अतुलनीय प्रेम का प्रदर्शन करने और उसकी रक्षा के लिये अपनी जान तक की बाजी लगाने वाली गौरा देवी ने जो अनुकरणीय कार्य किया, उसने उन्हें रैंणी गांव की गौरा देवी से चिपको वूमेन ऑफ़ इण्डिया बना दिया !

आंदोलन का प्रभाव

उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन ने १९८० में तब एक बड़ी जीत हासिल की, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने प्रदेश के हिमालयी वनों में वृक्षों की कटाई पर 15 वर्षों के लिए रोक लगा दी ! बाद के वर्षों में यह आंदोलन उत्तर में हिमाचल प्रदेश, दक्षिण में कर्नाटक, पश्चिम में राजस्थान, पूर्व में बिहार और मध्य भारत में विंध्य तक फैला ! उत्तर प्रदेश में प्रतिबंध के अलावा यह आंदोलन पश्चिमी घाट और विंध्य पर्वतमालाओं में वृक्षों की कटाई को रोकने में सफल रहा ! साथ ही यह लोगों की आवश्यकताओं और पर्यावरण के प्रति अधिक सचेत प्राकृतिक संसाधन नीति के लिए दबाब बनाने में भी सफल रहा !

“गौरा देवी” एक परिचय 

गौरा देवी कोई पर्वत शिखर नहीं, एक प्यारी-सी पहाड़ी माँ थीं ! गौरा देवी लाता गाँव में जन्मी थीं, जो नन्दादेवी अभयारण्य के मार्ग का अन्तिम गाँव है ! इनका जन्म 1925 में हुआ था ! 12 वर्ष की उम्र में रैंणी निवासी नैनसिंह तथा हीरादेवी के बेटे मेहरबान सिंह से गौरा देवी का विवाह हुआ ! मेहरबान सिंह पशुपालन, ऊनी कारोबार और संक्षिप्त-सी खेती बाड़ी करते थे ! रैणी भोटिया (तोल्छा) लोगों का बारोमासी (साल भर आबाद रहने वाला) गाँव था ! भारत-तिब्बत व्यापार के खुले होने के कारण दूरस्थ होने के बावजूद रैणी मुख्य धारा से कटा हुआ नहीं था और इसी का कुछ न कुछ लाभ यह गाँव भी पाता था !

जब गौरा देवी 22 साल की थीं और एकमात्र बेटा चन्द्रसिंह लगभग ढाई साल का, तब उनके पति का देहान्त हो गया ! जनजातीय समाज में भी विधवा को कितनी ही विडम्बनाओं में जीना पड़ता है ! गौरा देवी ने भी संकट झेले ! हल जोतने के लिए किसी और पुरुष की खुशामद से लेकर नन्हें बेटे और बूढ़े सास-ससुर की देख-रेख तक हर काम उन्हें करना होता था ! फिर सास-ससुर भी चल बसे ! गौरा देवी ने बेटे चन्द्र सिंह को अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बना दिया ! इस समय तक तिब्बत का व्यापार बन्द हो चुका था ! जोशीमठ से आगे सड़क आने लगी थी ! सेना तथा भारत तिब्बत सीमा पुलिस का यहां आगमन हो गया था ! स्थानीय अर्थ व्यवस्था का पारम्परिक ताना बाना तो ध्वस्त हो ही गया था, कम शिक्षा के कारण आरक्षण का लाभ भी नहीं मिल पा रहा था ! चन्द्रसिंह ने खेती, ऊनी कारोबार, मजदूरी और छोटी-मोटी ठेकेदारी के जरिये अपना जीवन संघर्ष जारी रखा ! इसी बीच गौरा देवी की बहू भी आ गई और फिर नाती-पोते हो गये ! परिवार से बाहर गाँव के कामों में शिरकत का मौका जब भी मिला उसे उन्होंने निभाया ! बाद में महिला मंगल दल की अध्यक्षा भी वे बनीं !

श्रीमती गौरा देवी जंगलों से अपना रिश्ता बताते हुये कहतीं थीं कि “जंगल हमारे मैत (मायका) हैं” उन्हें दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल की तीस महिला मंगल दल की अध्यक्षाओं के साथ भारत सरकार ने वृक्षों की रक्षा के लिये 1986 में प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार प्रदान किया गया ! जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी द्वारा प्रदान किया गया था !

गौरा देवी ने ही अपने अदम्य साहस और दूरदर्शिता से चिपको आन्दोलन में प्राण फूंके अतः गौरा देवी को चिपको आन्दोलन की सूत्रधार व जननी कहा जाता है ! इस महान व्यक्तित्व का निधन 4 जुलाई, 1991 को हुआ ! कहने को भले ही आज गौरा देवी इस संसार में नहीं है, परन्तु उत्तराखण्ड ही हर महिला में वह अपने विचारों से आज भी जीवित है ! हिमपुत्री की वनों की रक्षा की ललकार ने यह साबित कर दिया कि संगठित होकर महिलायें किसी भी कार्य को करने में सक्षम हो सकती है ! जिसका ज्वलंत उदाहरण, चिपको आन्दोलन को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त होना है !


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