जननी एहा पूत जण - जेहा दुर्गादास,!



आठ पहर चोंसठ घड़ी, घुडले ऊपर वास,
सैल अणि ही सेकतो, बाटी दुर्गादास |
(आठ पहर चोंसठ घड़ी अर्थात चौबीसों घंटे घोड़े पर ही रहने वाले दुर्गादास, भोजन के लिए बाटी भी घोड़े पर बैठे बैठे ही सेकते थे |)

जन्मगाथा -
फरवरी 1634 में जोधपुर नरेश जसवंतसिंह ने अपने विश्वासपात्र प्रधान आसकरण को सिंध में हुए बलूच बिद्रोह को दबाने भेजा | अपने सफल अभियान के बाद लौटते आसकरण ने जैमला नामक एक छोटे से ग्राम में एक विचित्र ही नजारा देखा | दो विकराल भेंसे बड़ी बुरी तरह भिड गए थे | चारों तरफ अफरा तफरी का माहौल था | लोग घबरा कर इधर उधर भाग रहे थे | कितनी ही झोंपड़ियों का इन लड़ते भेंसों ने कचूमर निकाल दिया था | बच्चे, बूढ़े, जवान सभी के चहरे पर भय साफ़ दिखाई दे रहा था | कि तभी एक युवती पानी भरकर गगरी सिर पर लिए उधर गुज़री | उसने आव देखा न ताव, गगरी नीचे रखी धोती को फेंटे की तरह कमर पर कसा और ललकार कर कूद पड़ी इन लड़ते भेंसों के बीच | एक भेंसे के सींग पकड़कर उसकी गर्दन पूरी ताकत से मरोड़ दी | भेंसा दोनों टांग नीचे टिका कर वहीं बैठा रह गया | दूसरा भेंसा भी इस नज़ारे को देखकर वहां से भाग खड़ा हुआ |

भाटी वंश की इस वीरांगना पर आसकरण मुग्ध हो गए | तुरंत उसके पिता के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा और धूमधाम से दोनों का विवाह हो गया | इन वीर मातापिता की संतान थे दुर्गादास | 13 अगस्त 1638 श्रावण सुदी 14 सोमवार को उनका जन्म हुआ | आसकरण के पूर्व से ही दो पत्नियां और थीं | अतः इस उग्र और तेजस्वी महिला के साथ अधिक समय उनका निर्वाह नहीं हुआ, अतः दुर्गादास को पिता की छत्रछाया के बिना ही अपना बचपन गुजारना पड़ा | यह मां की परवरिश का ही प्रताप था कि आज भी राजस्थान के लोकगीतों में गाया जाता है -

जननी एहा पूत जण - जेहा दुर्गादास,
बाँध मुंडासो राखियो, बिण थंभे आकाश |

किशोर दुर्गादास -
अपने गाँव लुणावा में अपने खेतों की तरफ जाते दुर्गादास ने देखा कि कुछ राजसैनिक गरीब किसानों की लहलहाती फसल अपने ऊंटों को चरा रहे हैं | बेचारे कलपते किसान उनसे गुजारिश कर रहे हैं कि मालिक ऐसा जुल्म न करो | रेगिस्तान में बैसे ही तो थोड़ी सी खेती की जमीन, और उसकी उपज भी अगर इस तरह आँखों के सामने बर्बाद होती दिखे, तो किसका दिल नहीं रोयेगा ? लेकिन सैनिकों का दिल नहीं पसीजा, उलटे वे किसानों का मजाक उड़ाने लगे | दुर्गादास से यह अन्याय सहन नहीं हुआ और उन्होंने उन सैनिकों को रोकने का प्रयत्न किया | लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता ?

दुर्गादास जितना उन्हें समझाने का प्रयत्न करता, उतना ही वे एंठते जाते | क्रोधित दुर्गादास ने आगे बढ़कर एक ऊँट की गर्दन पर तलवार दे मारी | एक ही वार में गर्दन धड से अलग कर दी | एक सैनिक ने जब दुर्गादास पर वार किया, तो चतुरता से वे तो बचा ले गए, किन्तु उनके प्रहार ने उस सैनिक का भी वही हश्र किया जो ऊँट का हुआ था | बाक़ी सैनिकों ने वहां से भाग निकलने में ही भलाई समझी |

बात राजदरवार तक गई | दुर्गादास को तलब किया | साहसी दुर्गादास ने सारी घटना का बखान ज्यूं का त्यूं महारज को सूना दिया | कहा कि राजा तो प्रजा का पालक होता है | अगर उसके अधीनस्थ लोग ही जनता को सताने लगें तो वे तो राज्य के अपराधी ही हुए | मैंने अन्यायी को उसके अपराध का दण्ड दिया है, अगर मैं ऐसा न करता तो आज आपके सामने जबाब देने को जीवित कहाँ बचता ? साथ आये ग्रामीणों ने भी दुर्गादास का समर्थन किया | 

महाराज ने इस हीरे को पहचान लिया और उसे अपनी निजी सेवा में रख लिया | इतना ही नहीं तो कुछ समय बाद अपने बड़े बेटे पृथ्वीसिंह को शस्त्र संचालन सिखाने का दायित्व भी सोंप दिया | 
गुरुतर दायित्व –
औरंगजेब ने दोस्त बनकर राजस्थान के शूरमाओं की पीठ में खंजर घोंपे | पहले तो जोधपुर रियासत के इकलौते बारिस कुंअर प्रथ्वीसिंह को जहरबुझी पोशाक पहिनाकर उनकी ह्त्या कर दी, उसके बाद महाराज जसबंतसिंह जी को भी 28 नवंबर 1678 को काबुल में जहर देकर मरवा डाला | अब उसका अगला निशाना थीं जसबंतसिंह की गर्भवती रानियाँ, जो काबुल में ही थीं | लेकिन उनकी ढाल बनकर सामने थे दुर्गादास | 

औरंगजेब ने अजमेर के सरदार इफ्तिखार खान को आदेश दिया कि वह नेतृत्वविहीन मारवाड़ पर कब्जा कर ले, किन्तु उसने यह जितना आसान समझा था, उतना ही कठिन निकला | राजपूत सरदारों ने कदम कदम पर प्रतिरोध किया | उन्होंने मुगलों के दांत खट्टे कर दिए | 

उधर बहुत कुशलता पूर्वक दुर्गादास व बुजुर्ग सेनानायक शोनिंग जी गर्भवती रानियों को काबुल से निकालकर लाहौर ले आये, जहाँ जसकुंवर जी ने एक बालक को जन्म दिया तो रानी दलथम्मन ने एक लड़की को जन्म दिया | लड़की तो जन्म के दस दिन के अन्दर ही मर गईं | किन्तु मारवाड़ के भावी शासक उस बालक का नाम रखा गया अजीत सिंह | 

औरंगजेब ने फिर एक चाल चली | उसने राजपूत सरदारों से कहा कि अजीत और रानियों को दिल्ली लाओ, वह अपने हाथों से खिलअत प्रदान कर उनका राज्य उन्हें सोंपेगा | दुर्गादास के न चाहते हुए भी अन्य सरदारों के जोर देने पर रानियाँ व अजितसिंह सिंह दिल्ली पहुंचे तथा वहां उनको नूरगढ़ के रूपसिंह की हवेली में ठहराया गया | 

दुर्गादास को बादशाह पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं था | अतः उन्होंने राजकुमार को बचाने की योजना बनाई | राजपरिवार की धाय की बेटी रूपा का बेटा भी अजीतसिंह की आयु का ही था | उसे अजीतसिंह के स्थान पर रखकर अजीतसिंह को भंगन के मैले की टोकरी में रखकर महल से बाहर भेजा गया | बाहर एक संपेरा तैयार था, जिसने उस बालक को भंगन से लिया और अपनी साँपों की पिटारी में छुपाकर बालक को सुरक्षित दिल्ली से बाहर ले गया | 

दूसरे ही दिन फौजदार फौलाद खान ने हवेली पर हमला कर दिया | रानियों व अन्य वीरांगनाओं ने अपने सीने में कटार मारकर दिव्यपथ का मार्ग पकड़ा, तो राजपूत सेनानी जान हथेली पर लेकर जूझने बाहर निकले | मुट्ठीभर वीरों ने कड़ा मुकाबला किया | दुर्गादास घायल तो हुए, किन्तु सकुशल अपने पैतृक गाँव सल्वास पहुँच गए, जहां अजीतसिंह पहले ही पहुंचाए जा चुके थे |

शीघ्र ही पूरे मारवाड़ में यह कहानियाँ फ़ैल गई | दुर्गादास राठौड़ अब जननायक बन चुके थे | उनके प्रयत्नों से चिर प्रतिद्वंदी मेवाड़ और मारवाड़ एक होकर मुगलों से जूझने लगे | औरंगजेब के महत्वाकांक्षी बेटे अकबर को अपने साथ मिलाकर दुर्गादास ने उसकी कमर ही तोड़ दी | दक्षिण में संभाजी के साथ पहली बार राजस्थान ने मिलकर पूरे देश में मुग़ल सल्तनत को चुनौती दी | राजस्थान से परेशान पस्त औरंगजेब दक्षिण में जाकर अपनी अंतिम गति को प्राप्त हुआ |

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