क्या आप बाहुवली फिल्म देखने से पूर्व जानना चाहेंगे कि फिल्म में आखिर है क्या ?

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उत्तर भारतीय सिने प्रेमियों के लिए इस फिल्म के निर्देशक राजामौली का नाम बेशक नया हो सकता है, लेकिन अगर दर्शकों को ये बताया जाए कि वे मसाला फिल्मों के जरिये मनोरंजन की तथ्यहीन किन्तु अतिशय रोचक दुनिया में ले जाते हैं, तो निश्चय ही कठोर वास्तविकता झेलते हैरान परेशान लोग उसे बेहद पसंद करेंगे | यह ठीक बैसी ही अनुभूति होती है, जैसी कि दादी नानी की गोद में बैठकर कहानी सुनते बच्चे की होती है । भला कौन अपने बचपन में वापस जाना नहीं चाहेगा ?

हिन्दुस्तान की सबसे महंगी फिल्म के रूप में उन्होंने इस बार राजामौली ने ‘बाहुबली’ का निर्माण किया है, जिसका बजट करीब 250 करोड़ रुपए बताया जा रहा है। फिल्म का कथानक पौराणिक कथाओं का निचोड़ है। ‘बाहुबली’ का नायक शिवा (प्रभास) अपनी मां से ऐसी कहानियां सुन कर बड़ा हुआ है। उसके गांव में पहाड़ों की ओट में एक विशाल झरना है, जिसके बारे में प्रचलित है कि उसके पीछे भूत-प्रेत रहते हैं। 

एक दिन शिवा को एक मुखौटा मिलता है, जो उसी झरने से गिरा है। एक युवती के मुखौटे के पीछे छिपा कौतुहल उसे झरनों के पार ले जाता है, जहां उसका सामना होता है अवंतिका (तमन्ना भाटिया) से। यहां उसे एक नया ही संसार देखने को मिलता है। कुछ रहस्यों से उसकी जान-पहचान भी होती है। लेकिन सबसे पहले वो अवंतिका को एक युवती होने का अहसास जो बदले की आग में एक योद्धा बन चुकी है। अवंतिका के जीवन का मकसद जानने के बाद वह उसकी मदद भी करता है और अकेले ही रानी देवीसेना (अनुष्का शेट्टी) को छुड़ाने महेशाधिपति साम्राज्य से टक्कर लेने चल पड़ा है। 

यहां उसका सामना भल्लाल देव (राणा दग्गूबाटी) जैसे ताकतवर-क्रूर राजा, उसके जाबांज सेनापति कट्टप्पा (सत्यराज) और धूर्त पिता बज्जला देव (नासिर) से होता है। शिवा ये देख कर दंग रह जाता है कि भल्लाल के अत्याचारों से पीड़ित राज्य की प्रजा उसे देख बाहुबली बाहुबली के जयकारे लगाने लगती है। कौन है ये बाहुबली? ये बात भल्लाल, कट्टप्पा और बज्जला को भी परेशान करती है।

किसी तरह से शिवा देवीसेना को मुक्त करा लेता है और फिर कट्टप्पा उसे उसका अतीत बताता है जो कि एक जमाने में देवीसेना का वफादार हुआ करता था। इस अतीत में छिपा है महेशाधिपति साम्राज्य का गौरव और रानी सिवागमी (रमैया) की दृढ़ निश्चयता। भल्लाल और बज्जला की धूर्तता और क्रूरता। 

करीब ढाई घंटे की यह फिल्म इंटरवल से पहले किसी नॉवल की तरह चलती है। प्रात्र परिचय और भूमिका के साथ इसमें धीरे-धीरे एक रवानगी सी आती है और इंटवरल के बाद पलक झपकने का मौका नहीं देती। इसमें कोई दो राय नहीं कि फिल्म को भव्यता प्रदान करने में पानी की तरह पैसा बहाया गया है, जो सार्थक लगता है। महल, पौराणिक नगर, शिल्प, पोशाक, अस्त्र-शस्त्र और कहानी कहने का ढंग फिल्म में बांधे रखता है। स्पेशल इफेक्ट्स के जरिये प्राकृतिक सौंदर्य को एक नया रूप दिया गया है। गीतों का फिल्मांकन आदि अद्भुत है, जिसमें विशेष प्रभाव का जम कर इस्तेमाल किया गया है।

युद्ध-कला और उसका चित्रण दिल को भाता है। अच्छी बात ये है कि ये सब खून-खराबे के परछावे से कोसों दूर नजर आता है। कलाकारों का अभिनय भी अच्छा है। लेकिन कई दृश्यों में अत्याधिक अंधेरा खलता है। खासतौर से शिवा का रानी को मुक्त कराने वाला सीन जो कि तरीब 15-20 मिनट का और पूरा अंधेरे में है। पारौणिक कथाओं के जरिये इस तरह की भव्यता और चित्रण अब से पहल जो अंग्रेजी फिल्मों में देखा गया है वो सब इसमें है। 

‘हैरी पॉटर’, ‘लॉर्ड आफ दि रिंग्स’, ‘दि हॉबिट’, ‘दि ग्लैडिएटर’ सरीखा मनोरंजन और पैनापन इस फिल्म में है। पर कुछ बातें खलती भी हैं। जैसे कि हिन्दी में डब की गयी भाषा। एक तरफ अद्भुत, प्रतिघाट, अविरल, जयघोष जैसे शब्दों का प्रयोग है तो दूसरी तरफ इन लाशों को दफना, सरीखा संबोधन..अब निर्देशक ने तमिल-तेलुगू में क्या कहलवाया है पता नहीं.. 

साभार - livehindustan.com

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