गुरू पूर्णिमा का वास्तविक अर्थ !

(गुरू पूर्णिमा के अवसर पर विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष माननीया निवेदिता दीदी का प्रेरक आह्वान)


उत्सव – त्योहार, सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक होते हैं, जीवन की खुशी को अभिव्यक्त करते हैं, हमारे परिवार, समुदाय, समाज और राष्ट्र की सामुदायिकता को बल देते हैं, साथ ही सृजनकर्ता के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए होते हैं । उत्सारातीतिउत्सवः महोत्सव वह जो प्रगति की प्रेरणा दें । भारत विभिन्न त्योहारों का देश है। हमारे त्योहारों की विशेषता यह है कि कोई त्योहार पूजा के बिना नहीं है। किसी वैवाहिक समारोह के समान त्योहार केवल आनंद मनाने के लिए भी नहीं है । हमारे प्रत्येक त्योहार हमें समयानुकूल बनाने के साथ हमारी परंपरा को अक्षुण्ण रखते हैं । इसी के कारण हमारा हिन्दू धर्म और राष्ट्र नित्य नूतन चिर पुरातन बना हुआ है – अर्थात यह 'सदैव नवीन भी है और सबसे प्राचीन भी' । कुछ त्योहार बड़े पैमाने पर पूरी भव्यता के साथ धूमधाम के साथ मनाये जाते है, तो कुछ चुपचाप, लेकिन दोनों ही अत्यंत सार्थक होते है। गुरू पूर्णिमा का त्योहार दूसरी श्रेणी में आता है। यह महर्षि वेद व्यास का जन्म दिवस है, जो ऋषि पराशर और एक मछुआरे की बेटी सत्यवती के पुत्र थे । उन्होंने ऐसा क्या बड़ा काम किया, जो गुरूपूर्णिमा के रूप में उनका जन्मदिन मनाया जाता है ? उन्होंने एक दो नहीं चार बड़े काम किये -

उन्होंने अनुभव किया कि - अनंत वैः वेदाः - - सदियों से संतों द्वारा खोजे गए ज्ञान के भण्डार वेद, विलुप्ति की कगार पर हैं, अतः उन्होंने सबसे पहले तो उनका संकलन व संग्रहण किया | इसके बाद वेदों के संरक्षण के लिए उन्होंने इन्हें श्रेणियों में विभक्त कर गुरू शिष्य परम्परा द्वारा अलग अलग परिवारों में सुरक्षित किया | 

इसके अंतर्गत एक परिवार में पिता अपने पुत्र के साथ कुछ अन्य इच्छुक और योग्य बच्चों को शिक्षा देता था । इसमें बच्चे सुदूरवर्ती स्थानों से आकर प्रतिष्ठित गुरु के साथ उसके परिवार का हिस्सा बनकर रहते व शिक्षा ग्रहण करते थे । इस प्रकार धीरे-धीरे भारत की यह प्रसिद्ध गुरुकुल प्रणाली विकसित हुई । आज की भाषा में कहें तो यह दुनिया की सबसे व्यापक और निजीतौर पर संचालित शिक्षा व्यवस्था थी। इस प्रकार ज्ञान के संरक्षण की यह अत्यंत ही प्राकृतिक विधि थी, जिसे परिवारों में बाँट कर व्यासजी द्वारा विकसित किया गया था।

तीसरा यह कि, न केवल वेद, बल्कि ज्ञान के अन्य सभी प्रकार जिन्हें हम उपवेद कहते हैं, जैसे कि सर्जरी सहित आयुर्वेद (जिसे सामान्यतः नाई समुदाय के साथ जोड़ा गया); स्थापत्य वेद जिसका अर्थ होता है कला कौशल, जिसमें धातु, पत्थर, मोर्टारों और लकड़ी के द्वारा निर्माण से सम्बंधित सभी बातें समाहित थीं, गंधर्व वेद में वाद्य संगीत, गायन, नृत्य और, नाटक, इसी प्रकार धनुर्वेद में सैन्य युद्ध से संबंधित सब कौशल और ज्ञान भी वेद व्यास द्वारा विभिन्न परिवारों और समुदायों की शाखाओं को आवंटित कर व्यवस्थित किया गया। इस प्रकार की परिवार परंपरा में हर समुदाय का प्रत्येक परिवार ज्ञान की एक शाखा का भंडार बन गया | 

चौथा, आम व्यक्ति को वैदिक तत्व समझाने के लिए उन्होंने पुराणों और महाभारत की रचना की ताकि सबका जीवन वैदिक सत्य के अनुरूप हो, उसकी निरंतरता व स्पष्टता हो । हमारे यहाँ धर्म केवल विश्वास का नाम नहीं है, बल्कि होने व होते जाने में है । केवल जानकारी नहीं, बल्कि सत्य की अनुभूति व जीवन में उसकी अभिव्यक्ति ही सनातन धर्म का उद्देश्य है । इस गुरू- शिष्य परंपरा में, गुरु के जीवन को देख कर ज्ञान प्राप्त होता था | वह माता-पिता हो सकते थे अथवा आत्मानुभूति प्राप्त गुरू । वेद व्यास सत्य के संरक्षण और परंपरा के प्रति सम्मान पैदा करने में सफल रहे ।

इसलिए, आज के दिन हम भगवान शिव के साथ प्रारम्भ हुई अपनी गुरु परंपरा का स्मरण करते हैं और उस गुरू के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करते हैं, जिसका जीवन में हमें मार्गदर्शन मिला, जिसने हमें ज्ञान और ज्ञान की परंपरा प्रदान की । यह गुरु के प्रति हमारी कृतज्ञता और प्रतिबद्धता व्यक्त करने का दिन भी है, जिसने जीवंत रूप से न केवल हमारी संस्कृति को गति दी बल्कि “कृण्वन्तो विश्वमार्यम” के सन्देश से सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाने की जीवन दृष्टि दी | 

विवेकानंद केंद्र में भी हम व्यक्ति निर्माण व राष्ट्र निर्माण का ईश्वरीय कार्य कर रहे हैं । यह ईश्वरीय कार्य ही हमारा ईश्वर है, हमारा गुरू है । इस प्रकार ओंकार ही हमारे गुरु हैं । क्योंकि व्यास ही थे जिनके कारण हमारा वैदिक ज्ञान बच पाया और गुरु-परंपरा का महत्व स्थापित हुआ । इस प्रकार जिन्होंने निरंतर वैदिक परंपरा के प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दिया, उन गुरुओं को स्मरण करने का आज का दिन है। जब हम ओंकार के सम्मुख प्रणाम करते हैं तो वस्तुतः हमारी संस्कृति में निहित सभी गुरुओं के प्रति अपनी श्रद्धा अभिव्यक्त करते हैं । गुरू पूर्णिमा के दिन गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का अर्थ यह भी है कि हम वेदव्यास के समान अपनी संस्कृति के संरक्षण व युगानुकूल संवर्धन हेतु एक स्वचालित प्रणाली विकसित करने का संकल्प लेते हैं | एक ऐसी प्रणाली जो स्वतः लक्ष्य तक पहुँच सके | संक्षेप में हमारा कामकाज व्यक्ति सापेक्ष न होकर सामूहिक होगा ।

ॐ ब्रह्मांड के सभी चरणों, सृजन, पोषण और विनाश का प्रतिनिधित्व करता है। यह सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। यह सभी लोगों के सभी देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें सभी जातियां और धर्म समाविष्ट व निहित है। योगशास्त्र के अनुसार "तस्यवाचकःप्रणवः" ओंकार ईश्वर की अभिव्यक्ति है । ॐ ही ईश्वर है, हम सभी के लिए सदा प्रेरणा का स्रोत है, ॐ आत्मस्वरुप है । जैसा कि दत्तात्रेय जी ने किया था, ओंकार की गुरु के रूप में प्रार्थना का अर्थ है, आत्मगुरू का जागरण । हमें अपने मन को प्रशिक्षित करना है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, अपने चारों ओर की हर वस्तु व हर व्यक्ति से कैसे सीखें ।

यह हमारे लिए एक विशेष वर्ष है। हम माननीय एकनाथ जी रानाडे का जन्म शताब्दी वर्ष मना रहे हैं - 'एक जीवन एक मिशन।' गुरू पूर्णिमा पर्व पर हमें इस विषय पर और अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि हमारे जीवन, समय और ऊर्जा का हमारे दायित्व के निर्वहन में पूरी सामर्थ्य से उपयोग हो रहा है अथवा नहीं ? एकनाथ जी कहते थे कि 'एक जीवन एक मिशन' का अर्थ है, जब आप एक मार्ग का चयन करें, तो आप अन्य लाखों रास्तों को छोड़ दें । क्या हमारा ध्यान हमारे दायित्व पर केन्द्रित है, इस गुरूपूर्णिमा पर हम चिंतन करें कि हम अपने दायित्व का निर्वहन किस प्रकार अच्छे से अच्छे ढंग से करें |

वे सभी नवयुवक जो युवा प्रशिक्षण के लिए आये थे, सभी दायित्ववान कार्यकर्ता अपने परिवार के सदस्यों के साथ तथा वे सभी लोग जो स्वामी विवेकानंद सार्ध शती समारोह के दौरान हमसे जुड़े थे, उन सभी को गुरूपूर्णिमा के इस पवित्र अवसर पर आमंत्रित किया जाए | इस अवसर पर प्रार्थना हो सकती है, इस विषय पर उद्बोधन हो सकता है, विश्लेषणात्मक चर्चा संभव है, और यदि अभी तक कोई केन्द्र प्रारम्भ नहीं हुआ है, तो उसे प्रारम्भ करने का यह सबसे अच्छा अवसर हो सकता है। युवाओं की भागीदारी बढाकर युवा सेवा को भी इस अवसर पर पुनर्जीवन दिया जा सकता है।

गुरूपूर्णिमा का उपयोग हमारे संकल्प को मजबूत करने के लिए, साथ ही नए साथियों को जोड़कर उन्हें राष्ट्रवाद के सक्रिय कार्यकर्ता बनाने के एक अवसर के रूप में किया जाना चाहिए । इस प्रकार यह अवसर हमारी परंपरा को आगे बढ़ाने की आवश्यकता प्रतिपादित करने, इस हेतु कार्य करने हेतु उत्साहित करने - गंभीरता, स्पष्टता और दिव्य स्पर्श को प्रतिबिंबित करते हुए मन पर गहरी छाप छाप छोड़ने वाला होना चाहिए।

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