व्यापम का उपचार (व्यापम घोटाला और भारतीय प्रजातंत्र)

आज फिजा में व्यापम का बड़ा शोर है | हर कोई न्यायाधीश बनकर अपनी तरफ से एलाने सजा कर रहा है | टीवी चेनलों को तो मनपसंद विषय मिल गया है – समाज में नकारात्मकता का पोषण | भाजपा और कांग्रेस भी केवल आरोप प्रत्यारोप में उलझी हुई हैं | ऐसा लगता है कि कोई रेस चल रही हो – बड़ा चोर कौन | दर्शक दीर्घा में बैठी जनता मानो उत्कंठा और उत्सुकता से परिणाम जानने को व्याकुल है | जनता हैरानी से देख रही है, सोच रही है कि अगली बार किसे वोट दे ? 

ऐसे में एक अहम सवाल की तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा | सबसे मौलिक प्रश्न यह है कि पूर्ववर्ती सरकारों के समय हुए घोटाले हों, अथवा वर्तमान में चल रही धीन्गामुस्ती, आखिर इनको रोका कैसे जाए ? बैसे सच कहा जाए तो इसका जबाब भी सबको मालूम है | इसकी जड़ में है, वर्तमान लोकतंत्र | तंत्र जिसके पीछे लगा भले ही लोक हो, वस्तुतः लोक अर्थात आम व्यक्ति का न होकर कुछ मुट्ठी भर नौकरशाहों, कुटिल और धूर्त राजनेताओं द्वारा संचालित है |

जब तक हमारी चुनाव प्रणाली में सुधार नहीं होगा, यह घोटाले गड़बड़झाले होते रहेंगे, उन्हें कोई रोक नहीं सकता | चुनाव धन से लड़ा जाता है | कोई निर्धन कितना भी योग्य, देशभक्त और समाज सेवा की भावना से ओतप्रोत हो, उसका कोई स्थान वर्तमान तंत्र में नहीं है | वर्तमान तंत्र में तो केवल धूर्त, स्वार्थी धनपशुओं की ही पौबारह है | तो क्या यह समझा जाए कि “न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी” ?

अब मूल मुद्दे “व्यापम” को ही लीजिये | येन केन प्रकारेण हमारे बेटे की नौकरी लग जाए या किसी प्रकार वह डॉक्टर बन जाए, इस भावना का लाभ तंत्र के संचालित करने वाले अधिकारियों ने उठाया | रिश्वत ली और चुनावी चंदे के नाम पर उस रिश्वत का एक हिस्सा अपने राजनैतिक आकाओं को भी पहुंचाया | 

मामला उछला, लेकिन मजे की बात तो देखिये कि रिश्वत देने वाले तो जेल पहुँच रहे हैं, लेकिन रिश्वत लेने वाले, तंत्र को संचालित करने वालों का बाल भी बांका नहीं हो रहा | कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए | मरने वाले ज्यादातर वे लोग हैं जो बेचारे थे | मरने वालों के प्रति शाब्दिक सहानुभूति दर्शाते हुए, क्या इस तंत्र को बदलने का विचार नहीं किया जाना चाहिए ? 

रिश्वत का यह तंत्र तभी टूटेगा, जब लोकतंत्र या जनतंत्र लोकाभिमुख होगा | चुनाव प्रणाली में सुधार सबसे प्रमुख विचारणीय बिंदु होना चाहिए | जब तक चुनाव तंत्र में धन की प्रमुखता रहेगी, घोटाले होते रहेंगे | वे अपरिहार्य हैं | उनके बिना यह लोकतंत्र चल ही नहीं सकता | कुछ दिनों बाद हम आदी हो जायेंगे | जैसे मच्छरों पर आजकल डीडीटी ने असर करना बंद कर दिया है, हम भी घोटालों के आदी हो जायेंगे | उन पर चर्चा करना भी बंद कर देंगे | समाज उन्हें सहज स्वीकार कर लेगा | जैसे हम प्रतिदिन शौच जाते हैं, उसी प्रकार भ्रष्टाचार हमारी दैनिक दिनचर्या का अंग बन जाएगा | या शायद बन भी चुका है | 

क्या हम इस स्थिति को सचमुच बदलना चाहते हैं ? हमारे चाहने से क्या होता है ? बदलेगा कौन ? क्या हम संगठित होकर तंत्र को इसके लिए विवश कर सकते हैं ? बेचारे अन्ना तो केसरीवाल की अदम्य महत्वाकांक्षा की बलि चढ़ गए |

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