आस्माँ पे है खुदा और ज़मीं पे हम (एक व्यंग लेख) - स्व. सुमंत मिश्रा


God Makes Man Tailor Makes Gentelman

जब से दर्जी की दूकान के बोर्ड पर लिखी यह इबारत पढी है दिमाग में एक अजीब सी हलचल मची हुयी है। दिमाग यह माननें को तैयार ही नही है कि जिस god नें इतनी बड़ी कायनात बनायी और पैदा होनें वाले बच्चे तक की भूख मिटानें का इंतजाम किया,उससे से यह गलती कैसे हो गई कि सभ्य बनानें का ठेका दर्जी को दे दिया।

god भी ओपन सोर्स साफ्टवेयर टाइप चीज है अच्छा खासा मनुष्य तो बड़ी सुन्दरता से फ्री में बना दिया लेकिन वसूली करनें के लिए दर्जी को पीछे लगा दिया। दर्जी कहता है कि भद्र या सभ्य बनानें का काम मेरा है। कई बार यह कहनें के बावजूद कि god ने तो बिना कपड़े के ही पैदा किया था तुम मुझे कपड़े पहना कर यह कुफ्र क्यों करना चाहते हो इस पर उसनें डाँट कर कहा कि मालूम नहीं कि तुमनें god के मना करनें के बाद भी बाग का फल खाया तभी से तुम्हे लज्जा आनें लगी,इसीलिए कपडे पहनना जरुरी हैं।मैने उसे समझाते हुए कहा कि भाई गलती मेरी नहीं दर अस्ल हव्वा मेरी बीबी की हे,उसीनें मूझे वह ना मुराद फल दिया था। वह कह्ती है कि उसके साथ यह शैतानी साँप नें की थी।

तभी दिमाग में यक ब यक स्पार्क हुआ और सारा माजरा समझ में आ गया। दर अस्ल वह साँप ही अब दर्जी बन गया है,उस समय यह शैतानी जान बूझ कर इस लिए इसनें की होगी कि आगे भी धन्धा चलता रहॆ। पहले तो पेड़ों के पत्ते वगैरह लगा कर काम चला लेते थे लेकिन इस कमबख्त २१वीं सदी नें बेड़ा गर्क किया हुआ है। एक तो रोज गिरता उठता हुआ सेनसेक्स और इन्फ्लेशन और उधर रोज नये नये फैशन। इसलिए दर्जियों की बन आयी है। दर्जी भी भांति भांति के हैं कोई साम्यवादी दर्जी तो कोई समाजवादी, कोई काँग्रेसी दर्जी तो कोई संघी। कोई मानववादी दर्जी है तो कोई अल्पसंख्यकवादी, कोई बजरंगी दर्जी है तो कोई मुजाहिदीनी।

कुछ लेखको,पत्रकारों,कवियों नें भी दर्जी की दूकान खोल ली है।और तो और कुछ ब्लागरों और फेसबुकियॊं नें भी इन दर्जियों का माल ठेके पर बनाना शुरु किया है। गरज़ यह कि सभी नें जेन्टिलमैन बनानें का धंधा शुरु कर दिया है। हद तो यह है कि कुछ दर्जी तो निहायत बेगैरत किस्म के हैं जाहिल अनपढ बिलकुल भांड। अल्पसंख्यकवादी दर्जी जो एक बार थान का कपड़ा फाड़ चुका है कहता है सब को हरे कपड़े ही पहननें पड़ेंगे। संघी दर्जी कहता है कि अब पहले वाली गलती नहीं दुहरानें देंगे कपड़ॆ पीले ही पहननें होंगे। साम्यवादी दर्जी जो एक बार कपड़ा फाड़्नें में मददगार थे आजकल फिर जोर कसे हुए हैं वो सिले सिलाए रूसी/चीनी कपड़ॆ ही पहनानें पर उतारू रह्ते हैं जबकि चाहते तो इतनें दिनों में जरुरत भर के कपड़े सिलना सीख सकते थे। भाँड टाइप दर्जियों की लीला ही निराली इन्हें सिलाई के दाम के बटवारे से मतलब,जब चाहें जिसकी आरती उतारें जब चाहे धोबीपाट मार दें। अपनीं से ज्यादा दूसरे की दूकान पर नज़र ज्यादा गड़ी रहती है। आज कल मुजाहिदीनी दर्जियों की पैरवी में लगे हैं। 

इन दर्जियों की हरकतों से इतना ऊब चुका हूँ कि उस दिन को लानत भेजता रह्ता हूँ जिस दिन गलती से हव्वा का दिया वह नाशुकरा फल खाया। न फल खाता न कपड़ॆ पहननें पड़्ते और न ही इन शैतान दर्जियों से पाला पड़ता। हव्वा मेरी बीबी दर्जियों की इन हरकतों से ऊबकर अपनें कपड़े एक दर्जिन को देनें लगी है। एक दिन जब मैं शाम को घूमनें के लिए निकला तो उसनें कहा कि दर्जिन के यहाँ से मेरा ब्लाउज लेते आना। घूम घाम के जब मैं दर्जिन के यहाँ पहुँचा तो दर्जिन दूकान से गायब थी लड़के ने बताया कि बना हुआ माल देनें और पैसे लेने गयी है। इंतजार में टाइम पास करनें के लिए मैने लड़्के से पूँछा कौन बिरादर हो तो जवाब था पहिले रहन तेली फिर भऐ भुर्जी अब हन दर्जी आगे अम्मा की मर्जी। ये दर्जी भी इसी दर्जिन के मिज़ाज के हैं। इस साँप इस शैतान इस दर्जी की हरकतों से इतना आजिज आ गया हूँ कि आजकल एक ही शेर बार बार नाजिल हुआ करता है-

‘आस्माँ पे है खुदा और ज़मीं पे हम/आजकल वो इस तरफ देखता है कम'।

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