जिजीविषा - विक्रम शर्मा

एक अजीब सा रिश्ता बन गया था हम दोनों में. जब भी मैं उनके घर के सामने से निकलता हमारी नज़रें मिलतीं और हम दोनों मुस्कुरा देते.

हमारी मुलाकात डी. टी. सी. की एक बस में हुई थी. मैं सीट पर बैठा हुआ था, जब वह मेरे पास आकर खड़ी हो गयीं. मैंने स्वभाववश खड़े होकर उन्हें अपनी सीट प्रस्तुत कर दी. उन्होंने मुस्कुरा कर सीट ग्रहण की और बोलीं, "भगवान तुम्हें ज़िन्दगी की हर खुशी दे बेटा. लोग तो लेडीज़ सीट पर बैठे हुए भी महिलाओं को देख कर मुँह दूसरी तरफ़ फ़ेर लेते हैं. कौन खड़ा होता है अपनी सीट से, महिलाओं को देखकर!" मैंने भी मुस्कुरा कर जवाब दिया, "मैं भी हमेशा महिलाओं और बुज़ुर्गों के लिए सीट खाली कर देता हूँ. कौन देता है, इतने आशीर्वाद बदले में!" उन्होंने मेरी आंखों में आंखें डालकर एक भरपूर मुस्कान बिखेरी और हमारे बीच में एक अटूट रिश्ता बन गया.

उन्हें मैंने अपने घर की पिछली गली में पहले भी देखा था. हमारे घर के पीछे एक अनधिकृत कॉलोनी थी जिसमें कच्चे-पक्के छोटे-छोटे मकान बने थे. उन मकानों के दरवाज़े ठीक सड़क पर खुलते थे. उन्हीं दरवाज़ों में से एक में बैठी मिलती थीं वह, हर शाम.

अब मैं हर रोज़ उसी रास्ते से आने लगा, उनकी उस मुस्कान का प्रसाद पाने की आकांक्षा लिए. कभी-कभी मुझे लगता, वह भी हर शाम मेरे उधर से गुज़रने की प्रतीक्षा में ही दरवाज़े पर बैठी मिलती थीं.

दो-तीन बार उन्होंने मुझे रोक कर भीतर आने और चाय पीने की दावत भी दी, किन्तु हर बार मैं मुस्कुरा कर टाल जाता.

एक शाम जब मैं उनके घर की ओर बढ़ रहा था, मैंने उनके घर के सामने एक सफ़ेद अम्बैसडर कार खड़ी देखी. पास ही एक स्मार्ट से सज्जन खड़े थे, तायी के साथ. मैं उन्हें तायी कह कर सम्बोधित करने लगा था. जब तक मैं निकट पहुँचूं, वह सज्जन कार में बैठे और कार चल दी. तायी खड़ी होकर जाती हुई उस कार को एकटक देख रही थीं.

मैंने तायी को इतना गम्भीर पहले कभी नहीं देखा था. आज भी तायी मुस्कुरायीं, किन्तु यह एक फीकी मुस्कान थी, उनकी वह चिर-परिचित मुस्कान नहीं. मुझे लगा, मामला कुछ गम्भीर था. तायी ने मेरे कन्धे पर हल्के से हाथ रखा और भीतर आने का संकेत दिया. मैं पहली बार उनके घर में प्रवेश कर रहा था. घर के नाम पर दो छोटी-छोटी कोठरियाँ थीं. बाहर की कोठरी को वे रसोई और बैठक के रूप में प्रयोग कर रहे थे. भीतर की कोठरी को वे शयन के लिए प्रयोग करते होंगे. भीतर की अंधेरी कोठरी में एक चटाई बिछी हुई दिख रही थी और पास ही एक अटैची रखी हुई थी.

तायी ने बाहर की कोठरी में एक चटाई बिछायी और मुझे बैठने का संकेत दिया. स्वयं वह पहले से बिछे एक टाट के टुकड़े पर बैठ गयीं. पास ही एक चमचमाता हुआ गैस का चूल्हा, सिलिण्डर और स्टील की एक रैक में कुछ नये बरतन रखे थे. तायी गुमसुम बैठीं शून्य में ताक रही थीं.

मैंने चुप्पी तोड़ने के उद्देश्य से कहा, "आज चाय के लिए नहीं पूछेंगी तायी?" तायी ने मायूसी से उत्तर दिया, "कैसी अभागी है तेरी तायी. आज दो-दो बेटे घर आये और आज ही चाय के लिए घर में दूध नहीं है." तायी के नेत्र सजल थे. मैं चुपचाप तायी के आगे बोलने की प्रतीक्षा कर रहा था.

अचानक तायी के चेहरे पर वही मुस्कान बिखर गयी, "वह जो मोटर में आया था न, वह मेरा बेटा है. मेरा अपना बेटा," उनके मस्तक पर गर्व की लकीरें उभर आयीं, "बहुत बड़ा अफ़सर है मेरा बेटा. सरकार ने उसे मोटर-बंगला सब दे रखा है. बहुत रुतबा है उसका." कुछ क्षण रुक कर बोलीं, "दो नन्हें-नन्हें प्यारे बच्चे भी हैं उसके, पिंकी और बण्टू. भरा-पूरा परिवार है! बहुत ही भला है बेटा मेरा."

"इसीलिए आपको यहाँ छोड़ रखा है उसने," न चाहते हुए भी मेरे मुँह से अनायास निकल गया.

"ऐसे न कहो बेटे. सब भाग्य की बातें होती हैं. इसमें उसका कोई दोष नहीं. वह तो बार-बार वापस चलने को कहता है. पैसे से मदद करने की कोशिश भी करता है. तेरे ताऊ ही नहीं मानते."

मेरे चेहरे पर ढेर सारे प्रश्न लिखे थे, जिन्हें पढ़ना कठिन नहीं था. पता नहीं तायी ने वे प्रश्न पढ़े अथवा नहीं. वह तो कहीं और ही खोयी हुई थीं. फिर भी वह निर्बाध मेरे प्रश्नों का उत्तर बिना पूछे दिये जा रही थीं.

"इसकी पत्नी का भी कोई दोष नहीं. बस, उसके संस्कार कुछ अलग हैं. खुले विचारों वाली है वह. वैसे हम भी खुद को बहुत आज़ाद विचारों वाला मानते थे. बहू घर आयी तो पता चला, आज़ाद विचार कैसे होते हैं. हम सोचते थे, कुछ हम सीखेंगे और कुछ बहू भी हमें समझ जाएगी. यही सोचते-सोचते वर्षों बीत गये. शुरू के सालों में वह इतनी मुखर नहीं थी. बाद में जब पिंकी और बण्टू स्कूल जाने लगे तो शायद उसे हमारी ज़रूरत नहीं रही. उसके बर्ताव में तल्खी आनी शुरू हो गयी. मैं तो अभी भी ऐड्जस्ट कर लेती. किन्तु एक रोज़ तेरे ताऊ जी से बर्दाश्त नहीं हुआ और हम अटैची उठाकर उसके घर से चल दिये."

"आपने रोका नहीं ताऊ जी को?" मैंने पहली बार तायी के स्वगत-कथन में व्यवधान डाला.

"औरत तो परछाईं होती है अपने पति की, बेटा. ऐसे ही घर चलते हैं. वैसे इतने साल जो कट गये, वे मेरी सुनते रहे, तभी कट पाये. आज सोचती हूँ, व्यर्थ ही रोकती रही मैं उन्हें. लाभ क्या हुआ? जो होना था, वह तो हो कर ही रहा! बल्कि इन वर्षों में तेरे ताऊ जी का स्वास्थ्य भी पहले जैसा नहीं रहा. दिल के मरीज़ हो गये. दो अटैक आ चुके हैं उन्हें. इस हालत में उन्हें नयी ज़िन्दगी शुरू करनी पड़ रही है. पहले ही यह कदम ले लिया होता तो अब तक तो हम अपने पैरों पर खड़े हो भी गये होते.

"कोसती हूँ खुद को, क्यों मैं पढ़ी लिखी नहीं. क्यों मैं नौकरी पर नहीं जा सकती. इतनी बुरी सेहत में वह सारा दिन काम करते हैं और मैं हट्टी-कट्टी यहाँ आराम करती रहती हूँ," रुंधे गले के साथ तायी बोल रही थीं.

"तू चिन्ता मत कर बेटा," खुद को संभालती हुई बोलीं तायी, "सब ठीक हो जाएगा. देख, इस महीने ये बरतन और गैस-चूल्हा खरीद कर दिया है तेरे ताऊ की पहली कमाई से. इस महीने दो मोबाईल खरीदेंगे; एक तेरे ताऊ के पास रहेगा, एक मेरे पास. तेरे ताऊ की बहुत चिन्ता लगी रहती है सारा दिन. अगले महीने कुछ फ़र्नीचर खरीदेंगे. अभी इस हाल में तो पिंकी और बण्टू को यहाँ बुला भी नहीं सकते. हमें इस हाल में देखकर वे अपने माता-पिता के बारे में अच्छा नहीं सोचेंगे न. दो-तीन महीने बाद जब यह घर जैसा दिखने लगेगा, तब बुलाएंगे बच्चों को यहाँ."

तायी की आंखों में कुछ अश्रु थे, कुछ चमक, कुछ स्वप्न और थी अदम्य जिजीविषा!

नज़दीक से

-विक्रम शर्मा

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