जानिये कहाँ डेढ़ शताब्दी तक तर्पण को तरसती रही 1857 के क्रांतिकारीयों की आत्माएं ?

अमृतसर के समीप स्थित है अजनाला गांव ! अजनाला गांव में मौजूद "कालों का कुआं" ! इस कुएँ में अंग्रेजी हुकूमत की दरिन्दगी की ऎसी खौफनाक दास्तान छिपी हुई है, जिसे जान कर किसी की भी आंखों के आंसू नहीं रूक पाएंगे ! यह कुँवा ‘शहीदां वाला खूह’ के नाम से भी जाना जाता है ! यह वहीं कुआं है जिसमें 1857 की क्रान्ति के दौरान अंग्रेजों ने 282 क्रान्तिकारियों को जिन्दा दफन कर दिया था !

पंजाब के अजनाला कस्बे में 1857 को हुए देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सैकड़ों क्रांतिकारियों की आत्माएं डेढ़ शताब्दी के बाद तक तर्पण की प्रतीक्षा करती रही ! दुर्भाग्य की बात है कि जिस कुएं में क्रांतिकारियों की लाशों को अंग्रेजों ने फेंका वह कुछ समय पहले तक कालेयांवाला खूह अर्थात् काले लोगों का कुआं कहा जाता रहा ! हमने अपने शहीदों का सम्मान तो क्या बल्कि उन्हें कुछ समय पूर्व तक काले कह कर अपमानित करते रहे ! 

2 मार्च 2014 यानि, 157 साल बाद जब इस कुएं की खुदाई की गई तो इस कुएं से एक बाद एक 283 क्रान्तिकारियो के नरकंकाल मिले ! स्थानीय गुरूद्वारा शहीदगंज प्रबंधन समिति की ओर से सिख इतिहासकारों की राय पर यह खुदाई शुरू की गई थी ! खुदाई करने वाले जैसे-जैसे इस कुएं की गहराई में जाते गए, वैसे-वैसे इस कुएं से शहीदों की अस्थियां मिलनी शुरू हुई ! खुदाई कार्य के दौरान मौजूद लोगों की आंखों से आंसूओं की धारा माहौल को गमगीन कर देती ! कुएं से खुदाई के दौरान न सिर्फ अस्थियां ही मिली बल्कि ईस्ट इंडिया कंपनी की मुहर वाले सिक्के और ज्वैलरी निकाली गई ! करीब दस दिन तक चली इस खुदाई में सभी शहीद सैनिकों की अस्थियां बरामद होने के बाद उन्हें हरिद्वार और गोइंदवाल साहिब में प्रवाहित किया गया ! 

इतिहास

10 मई 1857 को पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों ने क्रांति की, जिसे अंग्रेजों व उनके वेतनभोगी इतिहासकार सिपाही विद्रोह भी कहते हैं ! 13 मई को लाहौर की मीयांमीर छावनी में प्रात: 8 बजे बंगाल नेटिव इन्फेंट्री (पैदल सेना) के सिपाहियों का निशस्त्रीकरण कर दिया गया ताकि इस क्षेत्र में सेना विद्रोह न कर पाए ! सुबह की परेड के बाद इन सिपाहियों को कैद कर लिया गया !

3० जुलाई तक कैद में रहने के बाद सैनिकों ने भी क्रांति का झंडा उठा लिया और अंग्रेजों की कैद से भाग निकले ! 31 जुलाई को इन सैनिकों का जत्था अजनाला कस्बे के 5—6 किलोमीटर पीछे रावी नदी के किनारे स्थित डडीयां गांव के पास पहुंचा ! भूख व थकान के मारे इन सैनिकों का बुरा हाल था, इनके पास देश के लिए लड़ने का जज्बा तो था परंतु हथियार व राशन नहीं ! गांव के जमींदारों ने इन सैनिकों को रोटी-पानी देने का लालच देकर गांव में ठहरा लिया और तहसीलदार दीवान प्राण नाथ को इसकी सूचना दे दी ! तहसीलदार ने अमृतसर के तत्कालीन उपायुक्तफेड्रिक कूपर को इसकी जानकारी भेजी !

उस समय थाने व तहसील में जितने भी सशस्त्र सिपाही थे उक्त गांव में भेज दिए गए ताकि इन सैनिकों को शहीद किया जा सके ! गांव में पहुंचते ही ब्रिटिश सेना व पुलिस के जवान इन थके मांदे व भूखे सिपाहियों पर भूखे भेडि़यों की तरह टूट पड़े ! 150 सिपाही जख्मी होकर अपनी जान बचाने के लिए रावी नदी में कूद गए और शहीद हो गए ! 50 सिपाही लड़ते हुए नदी में गिर गए और सदा के लिए अलोप हो गए !

इतने में उपायुक्त कूपर अपने सैनिकों के साथ गांव में पहुंच गया ! गांव के लोगों की सहायता से कूपर ने 282 सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया और रस्सियों से बांध कर इन्हें अजनाला लाया गया ! 237 सैनिकों को थाने में बंद करने के बाद बाकी सैनिकों को एक कोठरी में ठूंस दिया गया ! योजना के अनुसार इनको 31 जुलाई को फांसी लगाया जाना था, परंतु भारी बरसात के कारण इस योजना को अगले दिन के लिए लंबित कर दिया गया !

अगले दिन 1 अगस्त को ईद वाले दिन 237 सिपाहियों को 10—10 की टोली में बाहर निकाला गया और गोलियों से भून दिया गया ! सफाई कर्मचारियों ने इन लाशों को एक-दूसरे के ऊपर इस तरह गिराना शुरू कर दिया कि वहां लाशों का ढेर लग गया !

इन सिपाहियों को शहीद किए जाने के बाद कोठडी (बुर्जी) में बंद सिपाहियों को बाहर निकाला गया तो यहां पर बहुत से सैनिक तो दम घुटने, भूख-प्यास व थकान के मारे पहले ही शहीद हो चुके थे ! कूपर के आदेश पर ब्रिटिश सेना ने अर्ध बेहोशी की हालत में बाकी सैनिकों को भी शहीद कर दिया ! जिला गजेटियर 1892-93 के पृष्ठ क्रमांक 170-71 के अनुसार इन सैनिकों के शव एक खाली पड़े कुएं में डलवा कर ऊपर टीला बनवा दिया गया जिसे कालेयांवाले दा खूह नाम दे दिया गया !

कैसे हुआ रहस्योद्घाटन

वैसे तो इस स्थल के इतिहास की गांव व आसपास के लोगों को मौखिक जानकारी आरंभ से ही थी परंतु, इसको समाज के सामने लाए लेखक व अनुसंधानकर्ता श्री सुरिन्दर कोचर ! उन्होंने पंजाबी अजीत में लेख प्रकाशित कर सरकार व समाज को इसकी अधिकृत जानकारी दी ! उन्होंने इस कुएं से शहीदों की अस्थियां निकालने, उनका विधिविधान से तर्पण करने व अस्थियों का गंगाप्रवाह करने की मांग की और सरकार को इस स्थान का नाम शहीदों के नाम पर करने का सुझाव दिया ! श्री अमरजीत सिंह सरकारिया के नेतृत्व में 11 सदस्यीय समिति का गठन किया गया, जिसके नेतृत्व में इस स्थल की खुदाई व यहां पर भव्य गुरुद्वारा साहिब के निर्माण का निर्णय लिया गया !



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