गलत राह जाना, तो दुःख क्यूं मनाना ?
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मुझे जाना था ग्वालियर से कन्याकुमारी,
ट्रेन में चढ़ा, लिए आँखों में खुमारी |
दो रात ठीक से सो नहीं पाया था,
सो नींद से व्याकुल हो आया था |
सोचा अब ट्रेन में आराम से सोऊंगा,
है तीन दिन का सफ़र सपनों में खोऊंगा |
देखा कोई घुटनों में सर दिए रोये जा रहा है,
अपना दामन आंसुओं से भिगोये जा रहा है |
सोचा शायद अपनों से बिछुड़ने का होगा गम,
कुछ देर बाद अपने आप हो जाएगा कम |
मैं अपनी बर्थ पर चुपचाप सो गया,
पूर्व योजनानुसार सपनों की दुनिया में खो गया |
सुबह उठा तो देखा यात्री अभी भी है रोता,
हिचकियों से शरीर कम्पायमान होता |
मुझे लगा जरूर मामला तिल नहीं ताड़ है,
इस आदमी के सर पर दुखों का पहाड़ है |
मेरा पूछना कहीं और दुःख न बढाए,
मैं चुप रहा उससे नजरें चुराए |
पर तीसरा दिन आया, उसका रोना न रुका,
अब मैं मजबूर उसकी तरफ झुका |
उसका कंधा थपथपाया,
कुछ अपनापन जताया |
कहा बांटने से दुःख होता है कम,
मुझे समझो दोस्त, अपना हमदम |
उसने अपनी परेशानी बताई,
बताकर मेरी खोपड़ी घुमाई |
बोला तीन दिन से गलत गाडी चिपकी है जैसे कोई बीमारी,
टिकिट लिया था गोहाटी का, पर पहुचूँगा कन्याकुमारी |
किसी भी स्टेशन पर वह उतर सकता था,
वापस अपना सही सफ़र कर सकता था |
मुझे उसपर हंसी आई, गुस्सा भी आया
पर साथ ही एक विचार से दिमाग चकराया |
हम भी तो कुछ ऐसा ही करते आ रहे है,
सेंतालीस से ही गलत राह चले जा रहे हैं |
गांधी ने बताई थी ग्रामीण विकास की राह,
संत युगों से जगाते आये अर्थ छोड़ परमार्थ की चाह |
पर हमें भ्रष्टाचार ओ अनैतिक भौतिकवाद ही सुहाता है,
फिर सुरसा के मुख समान समस्याएं देख रोना क्यूं आता है ?
Tags :
काव्य सुधा
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