कैसे बन रहे हैं नक्सली ? - विशाल यादव

रायपुर । बस्तर के आदिवासी किसी विचारधारा के तहत नक्सली नहीं बन रहें हैं। उनका नक्सली बनने के पीछे मुख्य कारण नक्सलियों का प्रचार तथा उनके प्रति आकर्षण है। बस्तर के जो आदिवासी नक्सली बने हैं उनमें से करीब 90 फीसदी नक्सलियों की वर्दी, हथियार, चेतना नाट्य मंच, नृत्य और नारे के कारण नक्सली बने हैं। यह बात एक सर्वे से सामने आई है, सर्वे करने वाली फोरम फॉर इंटीग्रेटेड नेशनल सिक्युरिटी की टीम के माओवादी समस्या को लेकर अध्ययन का निष्कर्ष बताता है कि राज्य सरकार की सरेंडर पॉलिसी नक्सलियों तक नहीं पहुंच पा रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर की संस्था फोरम फॉर इंटीग्रेटेड नेशनल सिक्युरिटी, फिंस की ओर से आत्मसमर्पित नक्सलियों पर की गई स्टडी रिपोर्ट के मुताबिक नक्सली किसी मार्क्सवाद या माओवाद की विचारधारा से प्रेरित होकर नहीं बन रहे हैं। नक्सलियों ने साक्षात्कार में खुद स्वीकारा है कि वे किसी भी नक्सली, मार्क्सवाद और माओवाद की विचारधारा को नहीं समझते हैं। नक्सलियों ने माना है कि सरकार की आत्मसमर्पण नीति का प्रचार नहीं होने से इसका फायदा नहीं हो रहा है। 

फोरम फॉर इंटीग्रेटेड नेशनल सिक्युरिटी, फिंस अंतराष्ट्रीय स्तर की संस्था है। इसमें रिटायर्ड डीजीपी, हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज, वकील, रिटायर्ड आर्मी आॅफिसर आदि संयुक्त रूप से कई समस्याओं का अध्ययन करते हैं। फिंस ने दिसम्बर 2014 में महाराष्ट्र के धुर माओवादी इलाके चंद्रपुर, गढ़चिरौली, बलारशाह नागपुर में माओवादी के 2 परिवार, 13 आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के समूह और आईजी रैंक के पुलिस आॅफिसर्स एवं अन्य पुलिस अधिकारियों से लेकर पुलिस और नक्सली दोनों से साक्षात्कार लिया। इसी तरह जुलाई 2015 में छत्तीसगढ़ के जगदलपुर, सुकमा और दंतेवाड़ा नक्सली परिवार और 12 आत्मसमर्पण करने वाले नक्सली समूह और एक आईजी रैंक, एसपी, एएसपी एवं अन्य पुलिस अधिकारियों के साक्षात्कार लेकर स्टडी रिपोर्ट तैयार की है। नक्सली विचारधारा के कवि वरवरा राव ने समाचारों के हवाले से कहा, दण्डकारण्य में जो लोग जल, जंगल, जमीन और इज्जत के लिए लड़ रहे हैं वे मजबूरी में बंदूक उठा रहे हैं. ऐसे लोगों के भीतर अपनी जमीन के लिए प्रेम की विचारधारा है। उनकी सम्पति की बंदरबांट कर उन्हें बेरोजगार कर दिया जा रहा है। जहां तक बंदूक और वर्दी के आकर्षण के कारण नक्सली बनने की बात की जा रही है तो मेरा मानना है कि यहां बंदूक तो सरकार की ओर से आदिवासियों पर हमला करने के लिए काम कर रहे सरकारी सुरक्षा बलों के पास भी है। आकर्षण यदि बंदूक के प्रति है तो दोनों ओर झुकाव होना चाहिए लोग अपनी हिफाजत के लिए बंदूक उठा रहे हैं। 

उल्लेखनीय है कि दस साल पहले सीपीआई माओवादी के गठन के बाद से माओवादी हिंसा में छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा लोग मारे गये हैं। इन मरने वालों में नागरिक, सुरक्षाबल तथा माओवादी शामिल हैं। वर्ष 2005 से सितंबर 2014 के मध्य छत्तीसगढ़ में माओवादी गतिविधियों के फलस्वरूप 661 नागरिक, 812 सुरक्षा बल के लोग तथा 690 माओंवादी मारे गयें हैं। जबकि इसी दौरान सारे देश में 2705 नागरिक, 1706 सुरक्षा बल के लोग तथा 2149 माओवादी मारे गये। 

पूरे देशभर में इन 10 वर्षो में अति वामपंथी हिंसा में मारे गये नागरिकों, सुरक्षा बलो के लोग तथा माओवादियों की संख्या के अनुसार आंध्रप्रदेश में 709, असम में 4, बिहार में 607, छत्तीसगढ़ में 2163, झारखंड में 1302, कर्नाटक में 31, केरल में 1, मध्यप्रदेश में 2, महाराष्ट्र में 419, ओडिशा में 607, तमिलनाडु में 1, उत्तरप्रदेश में 15 तथा पश्चिम बंगाल में 699 लोग मारे गये। 

गौरतलब है कि नक्सलवाद की शुरूआत वर्ष 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में किसानों के विद्रोह से हुई थी। जिसने 70 के दशक में पश्चिम बंगाल, बिहार, आंध्रप्रदेश, ओडीशा तक अपने पैर फैला लिये. इसके शीर्ष नेता चारु मजूमदार की मौत के बाद इस संगठन में बिखराव आ गया। इसके बाद जितने नेता तथा जितने राज्य थे उतने संगठन बन गये। आगे जाकर 21 सितंबर 2005 में दो बड़े नक्सली संगठन बिहार के एमसीसी तथा आंध्र के पीपुल्स वार का विलय हुआ। उससे पहले पीपुल्स वार के साथ नक्सली संगठन पार्टी यूनिटी का विलय हो चुका था। 21 सितंबर 2005 में बने संगठन का नाम सीपीआई माओवादी रखा गया।

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