महाभारत के आदि पर्व से प्रेरित भारतीय वैज्ञानिक ने विकसित की अंग निर्माण तकनीक ! अमरीका से मिला पेटेंट !

क्या आपको यकीन होगा कि अब शरीर के अंदर ही नया गर्भाशय या किडनी तैयार किए जा सकते हैं? 25 साल पहले डाक्टर मातापुरकर की बात पर भी कोई यकीन नहीं करता था। पर उन्होंने साबित कर दिया कि जैसे पेड़ की डाल काट देने पर या छिपकली की पूंछ कट जाने पर वह फिर से आ जाती है, वैसा ही आदमी के शरीर के साथ भी संभव है। बीज कोशिका के आधार पर गर्भाशय, किडनी और यहां तक कि आंतें भी बनाई जा सकती हैं। 

एक ओर अमरीकी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में भ्रूण से मानव क्लोन तैयार करने का दावा कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भारत के डाक्टर बालकृष्ण गणपत मातापुरकर को किसी भी अंग से बीज कोशिका निकालकर अंग को पुन: उत्पादित करने का पेटेंट मिल चुका है। 1991 में उन्होंने इस तकनीकी पर पहला लेख लिखा, पर उसमें यह नहीं बताया कि यह किस प्रकार संभव होगा। वजह यह थी कि विश्व समुदाय स्टेम सेल यानी बीज कोशिका के आधार पर अंग या ऊतक निर्माण की बात पचाने के लिए उस समय तैयार नहीं था। यह लेख उनकी 15 साल की कड़ी मेहनत का नतीजा था। उन्होंने 1999 में जाकर यह खुलासा कर दिया कि 1991 में शरीर के अंदर ही अंग निर्माण का जो उल्लेख किया गया था, उसका आधार बीज कोशिका ही थी। यह बीज कोशिका का सिद्धांत ही है जिस पर क्लोनिंग का सारा दारोमदार टिका है।

मानव भ्रूण का निर्माण तीन कोशिकाओं से होता है। यही कोशिकाएं आगे चलकर पूरे शरीर का निर्माण करती हैं। स्टेम सैल यानी बीज कोशिका इन्हीं में से एक है और यह शरीर के हर अंग में पाई जाती है। मातापुरकर ने इसी कोशिका का उपयोग कर नए अंग व ऊतक बनाए। बंदरों व कुत्तों पर उनके द्वारा किए गए प्रयोग सफल रहे और इस विधि से सिर्फ तीन माह में उन्होंने एक गर्भाशय विकसित कर दिखाया। अब मानव पर प्रयोग शुरू हो गया है। जैविक गड़बड़ी की आशंका को ये पूरी तरह नकारते हुए कहते हैं "आदमी का स्वयं का शरीर एक ऐसा कारखाना है जो नया अंग बनाने के लिए कच्चा माल देता है, इसलिए गड़बड़ी की बात ही नहीं उठती। गुर्दा अथवा यकृत जैसे अंगों के खराब हो जाने पर प्रतिवर्ष लाखों लोगों की मौत हो जाती है। पर यह तकनीक स्थित बदल देगी।" 

यह पढ़कर शायद आपको और भी आश्चर्य होगा कि मातापुरकर अपने शोध को बिल्कुल भी नया नहीं मानते। वे कहते हैं "मैंने जो कुछ भी किया है उसमें कुछ भी नया नहीं है। हमारे पूर्वजों ने इसे महाभारत काल में ही कर दिखाया था। एक दिन अचानक मेरे मन में प्रश्न उठा कि हम महाभारत को सच मानें तो गांधारी ने किस तरह 100 बच्चों को जन्म दिया होगा? इस प्रश्न का उत्तर मुझे महाभारत के आदि पर्व के अध्याय 115 में मिल गया। मैं यह पढ़कर हैरान रह गया कि बीज कोशिका यानी स्टेम सैल के द्वारा 100 कौरवों को जन्म देने की पूरी वैज्ञानिक प्रक्रिया का उसमें वर्णन था। उस दिन मुझे अहसास हो गया है कि मैं कुछ भी नया नहीं कर रहा हूं।"

महाभारत के आदि पर्व में इसका वर्णन निम्नानुसार है-कुंती को सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ है, यह सुनकर गांधारी-जिसे दो वर्षों से गर्भ होने के बावजूद संतान प्राप्ति नहीं हुई, ने परेशान हो स्वयं गर्भपात कर लिया। गर्भपात के बाद लोहे के गोले के समान मांसपेशी निकली। इस समय द्वैपायन व्यास ऋषि को बुलाया गया। उन्होंने इस ठोस मांसपेशी का निरीक्षण किया। व्यास ऋषि ने इस मांसपेशी को एक कुंड में ठंडा कर विशेष दवाओं से सिंचित कर सुरक्षित किया। बाद में इस मांसपेशी को 100 पर्वों में बांटा तथा 100 कुण्ड घी से भरे हुए थे, उनमें इन्हें रखकर दो वर्ष तक सुरक्षित रखा। दो वर्ष बाद क्रमानुसार 100 कौरवों का जन्म हुआ।

ग्वालियर में 1941 में जन्मे मातापुरकर ने गजरा राजे मेडिकल कालेज से सर्जरी में डिग्री हासिल की। फिर मौलाना आजाद मेडिकल कालेज (दिल्ली) में काम करते हुए उन्होंने अंग प्रत्यारोपण के स्थान पर अंग निर्माण की तकनीक विकसित की। वे कहते हैं कि "इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि लोगों ने मेरे काम को तब माना जब मुझे अमरीका का पेटेंट मिल गया। क्या यह मानसिक गुलामी नहीं है?" उनके कार्य को देखकर अमरीका में तीन संस्थान खोले जा चुके हैं और बहुराष्ट्रीय कंपनियां अरबों डालर इस प्रोजेक्ट पर खर्च कर रही हैं। 1996 में जब उन्होंने अमरीका के पेटेंट के लिए आवेदन किया, तभी अमरीका में पहली बार स्टेम सैल पर काम शुरू हो गया था। उनके शोध के बाद ही पहली बार स्टेम सैल शब्द का चलन शुरू हुआ।


"मानव क्लोंनिग" एक नए हमशक्ल को पैदा करने की कोशिश है, मगर मातापुरकर की तकनीक अंगों को दोबारा बनाने के लिए है। हमशक्ल पैदा करना न सिर्फ प्रकृति विरोधी है बल्कि अनैतिक भी है। मातपुरकर कहते हैं, "तकनीक ऐसी होनी चाहिए जो आदमी की जिंदगी को बेहतर करे।"

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