आरक्षण - कबीलों में बंटता समाज - प्रमोद भार्गव


आरक्षण की पुनर्समीक्षा और आर्थिक आधार पर आरक्षण के मुद्दे पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का सुझाव आने के साथ जो बहस छिड़ी थी, उस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहकर विराम लगा दिया कि, आरक्षण किसी भी सूरत में समाप्त नहीं किया जाएगा। भाजपा के विरोधी राजनैतिक दल चुनाव के समय यह भ्रम फैलाने की कोशिश में रहते हैं कि भाजपा सत्ता में आई तो आरक्षण खत्म हो जाएगा। यह बात मोदी ने मुंबई में डॉ भीमराव अंबेडकर के भव्य स्मारक की नींव रखते हुए कही। बहस तेज हो गई है। 

हालांकि श्री भागवत ने ऐसा कुछ विशेष नहीं कहा था, जिससे आरक्षण संबंधी सामाजिक न्याय की कथित परिभाषा या मानदंड एकाएक बदल जाते। भागवत ने कहा था, “समूचे राष्ट्र का वास्तविक हित का ख्याल रखने वाले और सामाजिक समता के लिए प्रतिबद्ध लोगों की एक समिति बने, जो विचार करे कि किन वर्गों को और कब तक आरक्षण की जरूरत है। इस गैर-राजनीतिक समिति को स्वायत्त आयोग की तरह, तय की गई नीति पर क्रियान्वयन का अधिकार भी मिले। साथ ही राजनीतिक आधिकारी उनकी ईमानदारी और सत्यनिश्ठा की निगरानी करें।“ इसकी प्रतिक्रिया पर सबसे तीखा तथा आरक्षण को और अन्यायपूर्ण बनाने वाला बयान लालू प्रसाद यादव का आया था। उन्होंने कहा था, “हमने लड़कर आरक्षण लिया है और अब आबादी के मान से आरक्षण लेकर रहेंगे।“ दरअसल यही वह मानसिकता है, जो सामाजिक न्याय के संवैधानिक आधिकार को विषम बनाए रखने का काम कर रही है।

संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की पैरवी करते हुए आरक्षण के जो आधार बनाए गए थे, उन आधारों की प्रासंगिकता की तार्किक पड़ताल करने में कोई बुराई नहीं है। दरअसल समाज में असमानता की खाई पाटने की दृष्टि से सामाजिक आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए लोगों को समान और सशक्त बनाने के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण के संवैधानिक उपाय किए गए थे। इसी नजरिए से मंडल आयोग की सिफारिशें प्रधानमंत्री विष्वनाथ प्रताप सिंह ने 1990 में लागू की थीं। हालांकि इस पहल में उनकी सरकार बचाने की मानसिकता अंतर्निहित थी। इस समय अयोध्या में मंदिर मुद्दा चरम पर था। देवीलाल के समर्थन वापसी से विश्वनाथ सरकार लड़खड़ा रही थी। इसे साधने के लिए आनन-फानन में धूल खा रही मंडल सिफारिशें लागू कर दी गईं। इनके लागू होने से कालांतर में एक नए तरह की जातिगत विषमता की खाई उत्तरोतर चौड़ी होती चली गई। इसकी जड़ से एक ऐसे अभिजात्य वर्ग का अभ्युदय हुआ, जिसने लाभ के महत्व को एकपक्षीय स्वरूप दे दिया। नतीजतन एक ऐसी ‘क्रीमीलेयर’ तैयार हो गई, जो अपनी ही जाति के वंचितों को आरक्षण के दायरे से बाहर रखने का काम कर रही है।

क्रीमीलेयर मसलन मलाईदार लोग आरक्षण के बाहर रहें, इस हेतु सर्वोच्च न्यायालय को भी 1992 में इसे परिभाषित करना पड़ा था। न्यायालय ने कहा था, कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग, यानी राष्ट्रपति, राज्यपाल, सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश, उच्चाधिकारी और निजी क्षेत्र के कर्मचारी, सेना और अर्द्ध-सैनिक बलों के कर्नल से ऊपर की रैंक प्राप्त कर चुके पिछड़े वर्ग के व्यक्तियों के बच्चों को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए। न्यायालय ने आर्थिक आधार पर भी क्रीमीलेयर तय की थी। इस अनुसार जिस परिवार की आय तीन साल लगातार 6 लाख वार्षिक से अधिक है, वे भी सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़े नहीं माने जाएंगे। इन्हें क्रीमीलेयर माना जाएगा। नतीजतन ऐसे परिवार के बच्चों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। लेकिन किसी भी राजनीतिक दल ने इस सलाह पर अमल की इच्छाशक्ति अब तक नहीं जताई है। लिहाजा आरक्षण का स्वरूप यथास्थिति में बना रहकर जड़ता को प्राप्त हो गया है। इसमें तरलता नहीं लाई गई तो वे बालक सिर्फ इसलिए श्रेष्ठ शिक्षा हासिल करने से वंचित रह जाएंगे, जो अपने पालकों के आर्थिक दारिद्रय के चलते गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल नहीं कर पा रहे हैं। इस नाते सामाजिक न्याय की कथित अवधारणा, आर्थिक वंचितों के साथ सामाजिक अन्याय की कारक बनती जा रही है। मोदी सरकार से इस अन्याय से निपटने की उम्मीद थी, किंतु इस सरकार ने भी वोट की राजनीति के समक्ष घुटने टेक दिए हैं।

दरअसल संविधान में आरक्षण का प्रबंध इसलिए किया गया था, क्योंकि देश में हरिजन, आदिवासी और दलित ऐसे बड़े जाति समूह थे, जिनके साथ शोषण और अन्याय का सिलसिला शताब्दियों तक जारी रहा। लिहाजा उन्हें सामाजिक स्तर बढ़ाने की छूट देते हुए आरक्षण के उपायों को किसी समय-सीमा में नहीं बांधा गया। किंतु विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ों को आरक्षण देने के उपाय राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धी के चलते इसलिए किए, जिससे उनका कार्यकाल कुछ लंबा खिंच जाए। जबकि ये जातियां शासक जातियां रही हैं। अनुसूचित जातियों और जनजातियों का टकराव भी इन्हीं जातियों से ज्यादा रहा है। 

पिछड़ी और जाट जातियों के निर्विवाद नेता रहे चौधरी चरण सिंह न केवल आरक्षण के विरूद्ध थे, बल्कि मंडल आयोग के भी खिलाफ थे। पूरे देश में जाति, बिरादरी और संप्रदाय निरपेक्ष ग्रामीण मतदाताओं को जगरूक व सशक्त बनाते हुए एकजुट करने का काम चरण सिंह ने ही किया था। वे अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अलावा अन्य जाति को आरक्षण देने के विरुद्ध थे। उनका मानना था कि ‘पिछड़ों को आरक्षण न केवल समाजों में परस्पर ईर्ष्या और विद्वेष को जन्म देगा, बल्कि जातीय भावना का भी पोषण करेगा।‘ 

समाजवाद के प्रखर चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया भी केवल दलितों को आरक्षण देने के पक्ष में थे। लोहिया का कहना था, ‘यदि जातीय आधार पर देश को बांटते चले जाएंगे तो हम भीतर से दुर्बल होते चले जाएंगे। विकास को जाति पर केंद्रित करने का दीर्घकालिक अर्थ कबीलाई समाज में परिवर्तित होन होगा ।‘ और आज हम देख ही रहे हैं कि समाज का कबीलाई स्वरूप विकसित हो रहा है, जो सामाजिक न्याय नहीं, अन्याय का द्योतक है।

कांग्रेस भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की पैरवी कर ही है। मायावती ने तो आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को आरक्षण देने का प्रस्ताव विधानसभा से भी पारित करा दिया था। दरअसल संघ के सिद्धांत के विचारक एवं प्रचारक रहे दीनदयाल उपाध्याय ने जब ‘एकात्म मानवतावाद’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया तो उसके मूल में ग्राम और ग्रामीण विकास ही सर्वोपरि था। जबकि ‘अंत्योदय’ की अवधारणा के सूत्र विकास से वंचित अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति तक पहुंचने की कोशिशों से जुड़े थे। मसलन आर्थिक आधार पर समाज के प्रत्येक गरीब व्यक्ति का उत्थान हो, फिर उसकी जाति या धर्म कोई भी हो। यह आवधारणा ग्राम और व्यक्ति के सर्वांगीण विकास से जुड़ी है। 

भागवत, दीनदयाल के इसी आदर्श को स्थापित करने की नीति के लिए आरक्षण पर पुनर्विचार की बात कर रहे थे। जब आरक्षण का वर्तमान प्रावधान अपने लक्ष्य में एकांगी व अप्रासंगिक होता चला जा रहा है तो आरक्षण संबंधी अनुच्छेदों की समीक्षा में दिक्कत क्यों होनी चाहिए ? दरअसल आर्थिक उदारवाद के बाद पिछले 20-25 सालों में आरक्षण और त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का सबसे ज्यादा किन्हीं जाति समूहों को लाभ मिला है, तो वे चंद पिछड़ी जातियां ही हैं। इनका नाटकीय ढंग से राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षिक सशक्तीकरण हुआ है। इनमें भी यह दायरा चंद घरानों में सिमटकर रह गया है। गोया ये घराने आरक्षण लाभ से निष्कासित कर दिए जाते तो इन्हीं जातियों के वंचितों को लाभ मिलेगा।

कमोवेश इसी परिप्रेक्ष्य में 18 मार्च 2015 को आए सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले में सवाल उठाया गया कि ‘पिछड़े वर्ग की सूची में लाभार्थी समुदायों की संख्या जरूर बढ़ी, किंतु किसी जाति को उससे बाहर नहीं किया गया ? क्या सूची में शामिल समुदायों में से कोई भी समुदाय पिछड़ेपन से बाहर नहीं आ सका है ? यदि ऐसा है तो पिछड़ा आरक्षण शुरू होने से अब तक देश में हुई प्रगति के बारे में हम क्या कहें ? दरअसल राजनीति का खेल ही ऐसा है कि आरक्षण का लाभ आर्थिक संपन्नता और सामाजिक वर्चस्व प्राप्त कर चुके लोग भी इसके लाभ से वंचित होना नहीं चाहते। सामाजिक न्याय की राजनीति के बहाने प्रभुत्व में आए शरद, मुलायम और लालू यादव जैसे प्रभावशाली नेता भी इन समुदाय या व्यक्तियों को आरक्षण के दायरे से बाहर करने का प्रश्न कभी नहीं उठाते ! अलबत्ता उनसे भी बीस पड़ने वाले समुदायों को आरक्षण के दायरे में लाने की कवायद करते हैं। यह स्थिति आरक्षण से वंचित समुदायों के सशक्तीकरण का जरिया बनने की बजाय, आरक्षित सूची में दर्ज शक्तिशाली लोगों के लिए लाभ हड़पने का माध्यम बन गई है।

गोया, आरक्षण के आर्थिक परिप्रेक्ष्य में कुछ ऐसे नए मापदंड तलाशने की जरूरत थी, जो आरक्षण को सिद्धांतनिश्ठ समरूप दिशा देने का काम करते। भारतीय समाज के हिंदुओं में पिछड़ेपन का एक कारक निसंदेह जाति रही है। लेकिन 68 साल की आजादी के बाद देश का जो बहुआयामी विकास हुआ है, उसके चलते पिछड़ी जातियां मुख्यधारा में आकर सक्षम भी हुई हैं। इसलिए मौजूदा परिदृष्य में पिछड़ेपन का आधार एकमात्र जाति का निम्न या पिछड़ा होना नहीं रह गया है। लोक-कल्याण व बढ़ते अवसरों के चलते केवल अतीत में हुए अन्याय को पिछड़ने का आधार नहीं माना जा सकता है। जाहिर है, वक्त का तकाजा है कि आरक्षण को नई कसौटियों पर कसा जाता | वर्तमान समय में किस समुदाय विशेष की स्थिति कैसी है, इसकी सुनिश्चितता पुराने आंकड़ों के बनिस्वत नए प्रामाणिक सर्वेक्षण कराकर किया जाता। इस लिहाज से सर्वोच्च न्यायालय का किन्नरों को आरक्षण का लाभ देने का फैसला अहम् है। इस निर्णय की मिसाल पेश करते हुए न्यायालय ने दलील दी थी कि ‘ऐसे वंचित समूहों की पहचान की जा सकती है, जो वास्तव में विशेष अवसर की सुविधा के हकदार हैं, परंतु उन्हें यह अधिकार नहीं मिल रहा है।‘ ऐसे ही समावेशी उपाय खोज कर आरक्षण सुविधा को प्रासंगिक और वंचितों के सर्वांगीण विकास का आधार बनाया जा सकता था, किंतु अब मोदी ने आरक्षण में बदलाव की संभावनाओं पर विराम लगाकर विरोधियों के समक्ष हथियार डाल दिए हैं। 

प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
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लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।


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