शिवपुरी में श्री रमेश जी शर्मा की परशुराम कथा का समापन –


अन्न और धन पूरी शक्ति से कमायें, इस प्रकार कमायें, जैसे सृष्टि के अंत तक जीना है | धर्म इस प्रकार कमायें, जैसे इसी क्षण जाना है |

शक्ति विहीन सत्य कुचला जाता है | जीत शक्ति व युक्ति की होती है, किन्तु वह धर्म सम्मत होनी चाहिए |

सेना भले ही कुत्तों की हो, किन्तु सेनापति अगर सिंह है तो कुत्ते भी शेर की तरह लड़ेंगे | किन्तु अगर सेना सिंहों की है और नेतृत्व कुत्ते के हाथ में है तो सारे सिंह कुत्ते की मौत मरेंगे | सुग्रीव कायर था, उसे क्षमताओं की पहचान नहीं थी | इसलिए उसने हनुमान जी की ड्यूटी लगाई कि वह आने जाने वालों पर नजर रखें | बॉस अगर कायर है तो योग्य व्यक्ति की योग्यता का मूल्यांकन नहीं हो सकता | सक्षम नेतृत्व ही प्रतिभा की कदर कर सकता है | भगवान राम से जैसे ही हनुमान जी मिले, दोनों ने एक दूसरे को समझ लिया | हनुमान जी ने झटपट पाला बदल कर उनकी अधीनता स्वीकार कर ली और रामजी ने भी उनके पराक्रम का सही सही उपयोग किया | 

सहस्त्रवाहु पहला विश्व विजेता था | फिलीपींस से मेडास्कर तक उसके राज्य की सीमा थी | उसने कम्बोडिया, खुरासान, यवनों को परास्त किया था | उसके समान सीमा विस्तार किसी और ने नहीं किया | उसने रावण को जीता, बंदी बनाया | बाद में ऋषि पुलस्त्य के कहने पर उसे मुक्त किया | इसका सीधा सा अर्थ निकलता है कि वह ऋषियों का सम्मान करता था, उनका विरोधी नहीं था | वह बाली से भी राजस्व बसूलता था |

विरोध शुरू हुआ देवी लोम हर्षिणी को लेकर | लोम हर्षिणी का विवाह सहस्त्रवाहू से तय हुआ | किन्तु उन्हें यह विवाह सम्बन्ध मान्य नहीं था, अतः वे अपना राज्य छोड़कर महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में चली गईं तथा ऋषिकन्या बनकर रहने लगीं | जब सहस्त्रवाहू को यह पता चला, तब वह बहुत क्रुद्ध हुआ और आवेश में उसने न केवल वशिष्ठ का आश्रम तहस नहस किया, बल्कि महर्षि जमदग्नि जो रिश्ते में उसके सगे साढू थे, उनका आश्रम भी लूटा | कामधेनु गाय को भी लूटकर ले गया | 

वह वापस अपनी राजधानी भी नहीं पहुँच पाया, तब तक भगवान् परशुराम जी भीषण रूप लिए वहां आ पहुंचे | भगवान परशुराम नारायण के अवतार थे और सहस्त्रवाहू सुदर्शन का अवतार | अगर वह लडता तो युद्ध लंबा चलता | किन्तु जैसे ही भगवान् परशुराम ने उसकी ओर परशु फेंका, उसे समझ में आ गया कि उसके उद्धार का समय आ गया है | उसने शस्त्रास्त्र त्याग दिए, हाथ जोड़कर खड़ा हो गया | परशु उसके सीने में लगा और वह सुदर्शन रूप धारण कर परशुराम जीके ह्रदय में समाहित हो गया | युद्ध आधे दिन में ही समाप्त हो गया | 

परशुराम जी ने उसके आठ पुत्रों को बुलाकर उनके बीच राज्य का बटवारा कर दिया और वापस लौट गए | किन्तु उनमें से पांच पुत्र अपने पिता की ह्त्या का बदला लेने के भाव से भरे हुए थे | उनकी माता देवी महामाया ने उन्हें बहुत समझाया, किन्तु वे नहीं माने और परशुराम जी जब कैलाश गए हुए थे, उन्होंने महर्षि जमदग्नि की ह्त्या कर दी | उनका सिर भी वे अपने साथ ले गए |

जमदग्नि की पत्नी और परशुराम की माता रेणुका ने तय किया कि सिर मिलने पर ही ऋषि का अंतिम संस्कार किया जाएगा | यह समाचार पाकर परशुराम जी वापस आये | जिस जयद्रथ ने महर्षि जमदग्नि का वध किया था, उससे परशुराम जी का कुरुक्षेत्र में युद्ध हुआ | भीषण रक्तपात हुआ | कहा जाता है कि रक्त से पांच तालाब भर गए | जयद्रथ वहां से जान बचाकर भागा और अवन्ती पहुंचा | पीछे पीछे परशुराम जी भी अवन्ती आये | यहाँ हुए युद्ध में जयद्रथ मारा गया | किन्तु महर्षि जमदग्नि का सिर नहीं मिला | सिर की खोज में सौराष्ट्र में नासिक व गुजरात में सोमनाथ पर संग्राम हुए | यहाँ उन्हें पिता का सिर मिला, जिसे लेकर वे वापस लौटे व पिता का अंतिम संस्कार किया | जहाँ जहाँ भी युद्ध हुए, वहां भृगु सरोवर बने | सोमनाथ में परशुराम मंदिर भी बना, जिसे महमूद गजनवी ने सोमनाथ के साथ ही विध्वंस किया | परशुराम जी ने 21 राजवंशों को विजय किया, किन्तु राजा उन्हीं राजवंशों को बनाया | इनमें से यवन म्लेच्छ, शक, कम्बोज आदि छः राजवंश विदेशी थे, जैसा कि उनके नाम से ही स्पष्ट होता है | 

इन युद्धों के कारण बड़ी संख्या में नारी समस्या उत्पन्न हो गई | अनेक महिलायें विधवा व निराश्रित हो गईं | बच्चे अनाथ हो गए | तब परशुराम जी ने मातृ सत्तात्मक व्यवस्था चलाई | ऋषि आश्रमों से ब्रह्मचारियों को बुलाकर इन महिलाओं से उनका विवाह करवाया, किन्तु परिवार की मुखिया महिलाओं को ही रखा ताकि पूर्व पतियों से उत्पन्न बच्चों का लालन पालन भी भली प्रकार से हो सके | पिता किसी अन्य के बच्चों के प्रति वह अपनापन नहीं रख सकता जो नारी रख सकती है | जैसे कि कुंती ने कभी अपने और माद्री के दोनों बच्चों नकुल सहदेव में कोई भेद नहीं किया | इस प्रकार विधवा विवाह को समाज मान्यता दिलाने वाले परशुराम जी पहले व्यक्ति थे |

इन व्यवस्थाओं को बनाने के बाद परशुराम जी ने अपना परशु समुद्र में प्रवाहित कर दिया और स्वयं महेंद्र पर्वत पर तपस्या करने चले गए | जहां उनकी भेंट दत्तात्रय जी से हुई | दत्तात्रय जी से परशुराम जी ने श्री विद्या सीखी | 

त्रेता युग में राम को विष्णु धनुष, व द्वापर में कृष्ण को सुदर्शन परशुराम जी ने ही दिया | महाभारत कालीन भीष्म, द्रुपद, द्रोण, कर्ण आदि अधिकाँश महारथी उनके ही शिष्य थे | 

यह एक बड़ी भ्रान्ति है कि महिलाए वेद पाठ नहीं कर सकतीं | जबकि 26 ऋषिकाओं ने वेद की रचना की है | जो वेद की रचना करा सकती हैं, वे पढ़ क्यूं नहीं सकतीं | यह तथ्य भी सभी जानते हैं कि जब मंडन मिश्र और शंकराचार्य जी में शास्त्रार्थ हुआ, तब निर्णायिका बनीं मंडान मिश्र की पत्नी भारवी | 

इसी प्रकार वेद की ऋचाएं जिन्होंने लिखीं, उनमें ऋषि धनाक, ऋषि प्रजापति, ऋषि वाल्मीकि के नाम भी हैं | यह विचारणीय बात है कि हम धनाक के वंशज धानुकों, प्रजापति व वाल्मीकि के वंशजों के साथ क्या व्यवहार करते हैं ?

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