चुनावी कुप्रबंधन की पराजय से विजई नीतीश के सम्मुख भविष्य की चुनौतियां |

बिहार चुनाव लोकतंत्र के लिए भी चिंताजनक संकेत हैं | वह यह कि क्या सचमुच आरएसएस और भाजपा, भ्रष्टाचार और अनैतिकता से बड़ा खतरा हैं ? आखिर घोषित भ्रष्ट लालू का पुनरुत्थान लोकतंत्र के हित में कैसे माना जा सकता है ? यह चुनावी विजय नातो विचारधारा को प्रतिबिंबित करती है, और नाही विकास के महत्व को दर्शाती है | यह तो महज चुनावी कुप्रबंधन की पराजय है, जो भाजपा खेमे ने प्रारम्भ से अंजाम दिया | 

एक भाजपा सांसद वी.के. सिंह ने आरोप लगाया कि पैसे लेकर टिकिट बांटे जा रहे हैं तो दूसरे सांसद व वर्षों से भाजपा के की केम्पेनर रहे फिल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा खुलकर नीतीश खेमे से नजदीकी जताकर अपने सहयोगियों को भाजपा को पराजित करने का संकेत देते रहे | इन दोनों को समय रहते संतुष्ट किया जा सकता था, जिसे नजर अंदाज किया गया | लगता है इनके प्रभामंडल से डरा हुआ प्रादेशिक नेतृत्व इन्हें येन केन प्रकारेण पार्टी से बाहर करवाने पर आमदा था | चुनाव परिणामों ने सिद्ध भी कर दिया है कि टिकिट वितरण में त्रुटि हुई |

यह उस समय और स्पष्ट हो गया जब 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी जी के चुनाव प्रबंधक रहे प्रशांत किशोर नीतीश कुमार के सहयोगी बन गए । प्रशांत किशोर नीतीश की अपेक्षाओं पर खरे उतरे और प्रचार युद्ध में भी भाजपा की शिकस्त हो गई । गूगल एड पर आये नारे – झांसे में नहीं आयेंगे, नीतीश को जिताएंगे, सोशल मीडिया पर हर वेव साईट पर युवाओं को रिझाते रहे | और भाजपा के अज्ञानी नेता गूगल एड के विज्ञापन को पाकिस्तान में किया गया प्रचार बताते रहे |

इस अवसर पर प्रजातंत्र की प्लेटो द्वारा की गई व्याख्या ध्यान देने योग्य है - "जनता भावना में बहती है सिद्धांत से प्रभावित नहीं होती, उसका ध्यान दीर्घकालिक योजनाओं पर नहीं अल्पकालिक स्वार्थ पर होता है" । वस्तुतः महागठबंधन ने अपने चुनावी प्रबंधन के माध्यम से सामान्य बयानों को भी बिहारी अस्मिता से जोड़ने और पिछड़े वर्ग को बरगलाने में सफलता पाई |

उदाहरण के लिए आरएसएस के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत के एक पुराने बयान को नया बताकर प्रचारित किया गया | और उस बयान का भी गलत मतलब लोगों को समझाया गया | और मजे की बात यह कि भाजपा खेमा बचाव मुद्रा में आ गया | जबकि स्थिति को स्पष्ट कर वे लाभ ले सकते थे | आखिर इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि क्रीमी लेयर ही आरक्षण के सारे लाभ डकार रहा है और उसे रोके बिना समाज के अंतिम व्यक्ति तक आरक्षण के लाभ नहीं पहुंच सकते ? इस विषय को अगर चुनाव में चर्चा का केंद्र बिंदु बनाया जाता तो निश्चय ही भाजपा को लाभ होता |

यह सर्व विदित तथ्य है कि नीतीश कुमार और आरएसएस-भाजपा के बीच कोई सैद्धांतिक मतभेद कभी नहीं रहे, इस विरोध के पीछे केवल और केवल नीतीश कुमार की निजी महत्वाकांक्षा प्रमुख थी | इसी के चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वे नापसंद करते रहे हैं ।

इस समय जबकि नीतीश कुमार पांचवीं बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने जा रहे हैं, सब ओर भाजपा किंबहुना मोदी की पराजय की ही ज्यादा चर्चा है | स्वाभाविक भी है, किन्तु इस बीच उन चरम विरोधाभासों को भी ध्यान में रखना होगा, जिनका प्रबंधन नीतीश जी को इतना आसान नहीं होगा ।

यह सही है कि नीतीश अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं, इसलिए उन्हें उन चुनौतियों के बारे में पता न हो यह संभव नहीं है । इसीलिए उन्होंने लालू के समान केंद्र पर सीधा हमला नहीं बोला है | बिहार जैसे महत्वपूर्ण राज्य में मोदी का विजय रथ रोकने से कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती अब जन आकांक्षाओं की पूर्ति होगी ।

अगर उन्हें सफल होना है तथा सचमुच बिहार का विकास करना है तो सबसे पहले तो मोदी जी द्वारा घोषित पैकेज को प्राप्त करना होगा और निश्चय ही यह काम लड़कर नहीं होगा | पारस्परिक समन्वय व संतुलन से ही देश व प्रदेश चल सकता है | इस चुनावी विजय के बाद, मोदी जी को अहंकारी बताने वाले लालू जी की तो हर गतिविधि में अहंकार साफ़ झलकने लगा है | अगर नीतीश के तेवर लालू जैसे नहीं हुए तो ही केंद्र राज्य के सम्बन्ध मधुर रह पायेंगे, जो प्रदेश के विकास की प्राथमिक शर्त है |

नीतीश जी के सामने दूसरी सबसे बड़ी चुनौती खुद लालू सिद्ध होने वाले हैं | लालू की अदम्य महत्वाकांक्षा कब तक उनके लिए सरदर्द नहीं बनेगी, इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती |

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