भीख मांगकर हजारों असहाय बच्चों की माँ बनने वाली सिन्धुताई सपकाल की प्रेरणादायी कथा !


१४ नवम्बर १९४८ का वह दिन जिसे पूरा देश बाल दिवस के रूप में मन रहा था ठीक उसी दिन महाराष्ट्र के वर्धा जिल्हे मे 'पिंपरी मेघे' गाँव मे एक बालिका ने जन्म लिया, यह वह दौर था जब किसी गरीब परिवार में बिटिया का जन्म होना किसी अभिशाप से कम नहीं माना जाता था अतः उस बच्ची का घर का नाम रखा गया चिंधी अर्थात कपडे का फटा हुआ टुकड़ा ! किसी को क्या मालूम था कि यही चिंधी एक दिन देश के हजारों बेसहारा बच्चों की माँ बन जायेगी !

आज सिन्धुताई सपकाल को अनाथ बच्चों के लिए समाजकार्य करनेवाली मराठी समाज कार्यकर्ता के रूप में जाना जाता है ! उन्होने अपने जीवन मे अनेक समस्याओं के बावजूद अनाथ बच्चों को सम्भालने का कार्य किया है ! सिन्धुताई के पिताजी का नाम 'अभिमान साठे' है, जो कि एक चरवाहा (जानवरों को चरानेवाला) थे ! उनके पिताजी चाहते थे कि सिन्धु पढ़ लिख कर अपना एक मुकाम बनाए परन्तु सिन्धु की माता इसके खिलाफ थी फिर भी सिन्धुताई के पिताजी उनकी माता के निर्णय के खिलाफ जाकर भी सिन्धु को पाठशाला भेजते थे परन्तु माँ का विरोध और घर कि आर्थिक परस्थितीयों की बजह से सिन्धु की शिक्षा मे बाधाएँ आती रही ! आर्थिक परस्थिती, घर कि जिम्मेदारीयाँ और बालविवाह इन कारणों कि बजह से उन्हे पाठशाला छोड़नी पड़ी जब वे चौथी कक्षा कि परीक्षा उत्तीर्ण हुई !

जब सिन्धुताई १० साल की थी तब उनकी शादी ३० वर्षीय 'श्रीहरी सपकाळ' नामक व्यक्ति से हुई ! जब उनकी उम्र २० साल की थी तब वे ३ बच्चों कि माँ बनी थी ! गाँव की दूसरी औरतो की तरह चिंदी की ज़िन्दगी भी शोषण और मुश्किलों से भरी हुई थी परन्तु उनका आत्मविश्वास, और लोगो के बीच अपनी बात रखने का ढंग उन्हें अन्य महिलाओं से अलग करता था !

एक दिन गाँववालों को उनकी मजदुरी के पैसे ना देनेवाले गाँव के मुखिया कि शिकायत सिन्धुताई ने जिला अधिकारी से कर दी ! एक औरत के हाथो अपमानित होना गाँव के मुखिया के लिए अपमान का घूंट पीने जैसा था ! वह किसी तरह चिंदी से बदला लेना चाहता था ! इस वक़्त चिंदी ९ महीने से गर्भवती थी ! अपमान से जले भुने मुखिया ने किसी तरह चिंदी के पती को ये यकीन दिला दिया कि चिंदी के पेट में पलने वाला बच्चा उसके पती का नहीं बल्कि साहूकार का है ! इसी बात पर उसके पती ने उसे बहुत मारा और बेहोश हो जाने पर उसे गौशाला में लेटा दिया ताकि गांय की लाते लगकर वो और उसका बच्चा मर जाए !

अगले दिन जब चिंदी को होश आया तो वो एक बच्ची को जन्म दे चुकी थी ! असहाय, अकेली चिंदी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे ! बच्चे की जन्मनाल को काटना ज़रूरी था ! पर उसके पास कुछ नहीं था, कोई नहीं था ! आखिर उसने वहाँ पड़े पत्थर से पटक पटकर अपनी जन्मनाल काटी ! सिन्धु ताई ने एक कार्यक्रम के दौरान इस बात का उल्लेख करते हुए बताया कि “मुझे याद है सोलह बार पथ्थर से वार करने के बाद वो नाल कटी थी !”

पति के द्वारा घर से निकाल दिए जाने के पश्चात जब वे अपनी माँ के घर गयी तब उनकी माँ ने उन्हे घर मे रहने से इनकार कर दिया (उनके पिताजी का देहांत हुआ था वरना वे अवश्य अपनी बेटी को सहारा देते) ! अकेली बेसहारा चिंदी अपने १० दिन की बच्ची को साथ लिए मरने जा ही रही थी कि रास्ते में उसे एक अधमरा भिखारी मिला जो पानी के लिए तड़प रहा था ! चिंदी ने उसे पानी पिलाया और थोड़ी रोटी भी खिलाई ! अब भिखारी को थोडा होश आया ! इस वाकये ने चिंदी का मन बदल डाला ! उसने सोचा ये दूसरा जीवन उसे बेसहारो को सहारा देने के लिए ही मिला है ! इसके बाद एक बार जब वे बस में चढ़ने ही वाली थी कि कंडक्टर ने उन्हें टिकट न होने की वजह से निकाल दिया ! खूब लड़ने के बाद उन्हें बस से उतरना ही पडा ! पर थोड़ी दूर जाते ही उस बस पर बिजली गिर पड़ी !

चिंदी के लिए यह उसका पुनर्जन्म था। उसके लिए अब चिंदी का कोई अस्तित्व ही नहीं रहा और चिंदी अब सिंधु बन गयी ! सिंधु- वो नदी जिसके बारे में वो बचपन में पढ़ा करती थी – वो नदी जो बहते हुए लोगो के जीवन में शीतलता प्रदान करती है !

सिन्धुताई अपनी बेटी के साथ रेल्वे स्टेशन पर रहने लगी ! पेट भरने के लिए भीख माँगती और रात को खुद को और बेटी को सुरक्षित रखने हेतु शमशान मे रहती और वहीँ फैके हुए वस्त्रों को धारण करती ! 

सिंधुताई अपने और अपनी बच्ची की भूख मिटाने के लिए ट्रेन में गा गाकर भीख मांगने लगी ! उनके इस संघर्षमय काल मे उन्होंने यह अनुभव किया कि देश मे कितने सारे अनाथ बच्चे है जिनको एक माँ की जरुरत है ! तब से उन्होने निर्णय लिया कि जो भी अनाथ उनके पास आएगा वे उनकी माँ बनेंगी ! उन्होने अपनी खुद कि बेटी को 'श्री दगडुशेठ हलवाई, पुणे, महाराष्ट्र' ट्र्स्ट मे गोद दे दिया ताकि वे सारे अनाथ बच्चों की माँ बन सके !

धीरे धीरे सिन्धु ताई की जान पहचान कुछ आदिवासियों से हो गयी ! अब सिंधुताई ने उनके हक़ के लिए भी लड़ने की ठानी ! यही नहीं एक बार तो ताई आदिवासियों की लडाई लड़ने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक भी पहुँच गयी ! सिंधुताई अब भजन गाने के साथ साथ भाषण भी देने लगी थी और धीरे धीरे लोकप्रिय होने लगी थी ! सन् २००९ में सिंधुताई को भाषण देने के लिए अमरिका भी बुलाया गया ! अमेरिका जाते समय ताई शुरू में थोड़ा घबराई पर फिर सोचा मैं तो भारत से जा रही हूँ… भारत जिसे हम माता कहते है और माँ तो सबसे बड़ी होती है !

अपनी पिछली ज़िन्दगी की काली छाया से निकलने के बाद भी सिंधुताई ने अपने पति का उपनाम कभी नहीं छोड़ा ! जब ८० साल की उम्र में उनके पति उनके पास रहने का अनुरोध करने आये तो ममतामयी सिन्धु ताई ने उन्हें अपने बच्चे के रूप में स्वीकारा, ये कहते हुए कि अब उनमे सिर्फ एक माँ बसती है, पत्नी नहीं !

आज सिंधुताई के २००० से भी ज्यादा बच्चे है, जिनमे कोई वकील है तो कोई डॉक्टर, कोई इंजीनियर है तो कोई समाज सेवक ! उनका एक बेटा तो खुद उन्ही पर P.H.D कर रहा है !

कविताओ की शौक़ीन सिंधुताई अक्सर अपने भाषणों में गर्व से कहती है-

“लकीर की फ़कीर हूँ मैं, उसका कोई गम नहीं,
नहीं धन तो क्या हुआ, इज्ज़त तो मेरी कम नहीं!”

उनकी वह बेटी जिसे उन्होंने 'श्री दगडुशेठ हलवाई, पुणे, महाराष्ट्र' ट्र्स्ट मे गोद दे दिया था जिसका नाम ममता है वह भी अब एक बच्ची की माँ है और वह भी माई के पदचिन्हों पर चलते हुए ‘ममता बाल सदन’ नामक अनाथ आश्रम चलाती है, क्यूंकि माई का मानना है कि जिस गौशाला में ममता का जन्म हुआ था वहां की गांयो ने ही उनकी रक्षा की थी इसलिए उन्होंने गाय के संरक्षण के लिए नवरगाँव हेटी, वर्धा में ‘गोपिका गाय रक्षण केंद्र’ की शुरुवात की ! इस केंद्र में फिलहाल १७५ गायो का संरक्षण किया जाता है !

बहिणा बाई की कविताओं से प्रभावित होकर, सालो पहले जिस तरह चिंदी ने गाना गाकर चिंदी से सिंधुताई बनने का सफ़र शुरू किया था, उसी तरह आज भी अपने भाषणों के दौरान वो गाती है –

“हमसे न तू खाने की न पीने की बात कर,मर्दों की तरह दुनिया में जीने की बात कर!जिस मातृभूमि की अरे तू गोद में पला,जिसकी पवित्र धूल में घुटनों के बल चला,उसके फटे आँचल को तू सीने की बात कर,मर्दों की तरह दुनिया में जीने की बात कर !”

७५० से भी ज्यादा पुरस्कारों से सम्मानित सिंधुताई के जीवन से निर्माता-निर्देशक अनंत महादेवन इतने प्रभावित हुए कि २०१० में उन्होंने माई के जीवन पर आधारित एक मराठी फिल्म बनायीं – ‘ मी सिंधुताई सपकाळ‘ ! इस फिल्म को राष्ट्रिय पुरस्कार के साथ सम्मानित किया गया तथा इसे ५४ वे लन्दन फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाया गया !इसके अलावा उनके जीवन पर आधारित किताब – ‘ ‘मी वनवासी’ तथा एक डाक्यूमेंट्री फिल्म – ‘ अनाथांची यशोदा’ भी बन चुकी है !

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें