बामन व बलि का पुरातन प्रसंग और आधुनिक भ्रष्टाचारी !


भारत पर विदेशी आक्रमण वैदिक काल से होता आया है | असीरियन देश के राजा बलि ने भी एक बार भारत पर अपना कब्जा जमा लिया था | वह असुर था किन्तु बहुत ही चतुर भी था | उसने भारत में अपना साम्राज्य चिर स्थाई बनाने के लिए योजना पूर्वक वैदिक धर्म की दीक्षा लेकर यज्ञ आदि करना तथा ब्राह्मणों व साधू सन्यासियों का सम्मान करना शुरू किया | उसकी योजना सफल हुई तथा देशभक्ति की भावना रखने वाला वर्ग भी शांत होकर बैठ गया | मुग़ल काल में अकबर का शासन जिस प्रकार चला, यह लगभग बैसा ही था |

बली वैदिक धर्मी हो गया, यज्ञ करने लगा, वेदशास्त्रों के अध्ययन को प्रोत्साहित करने लगा, देवों के महोत्सव मनाने लगा, यहां तक कि वैदिक धर्म के प्रति उसका आदर सम्मान, किसी अन्य आर्य राजा से कहीं अधिक प्रतीत होने लगा | स्वाभाविक ही ब्राह्मण व सन्यासी इससे अत्यंत संतुष्ट व प्रसन्न हुए | इस प्रकार विदेशी वली का साम्राज्य निष्कंटक और स्थाई प्रतीत होने लगा |

किन्तु उसके इतने प्रचंड साम्राज्य को बटुक वामन ने उखाड़ फेंका | दरअसल सूक्ष्मदर्शी ज्ञानियों से बलि का कपट छिप नहीं सका | बलि यज्ञ तो करता, ब्राह्मणों को दक्षिणा भी देता, किन्तु उसने राज्य के सभी प्रमुख पदों पर असुर लाकर बैठा दिए | साम्राज्य को असुर प्रधान कर दिया | कोई भी जगह असुरों से खाली नहीं रही, जहाँ देखो वहां असुर ही असुर | इस कारण असुर ऐश्वर्य संपन्न और अधिकार संपन्न होते गए, जबकि भारतीय तरुनाई में बेरोजगारी फ़ैल गई, वे दरिद्र हो गए | इस स्थिति का वर्णन करते हुए श्रीमद्भागवत में कहा गया है –

यत्सपत्ने ह्रितश्रीणाम व्यावितानां स्वधामतः |
तान्विनिर्जित्य समरे दुर्मदानसुरर्षभान |
प्रतिलब्धजयश्रीभिः पुत्रैरिच्छ्स्युपासितुम |

स्त्रियों ने समझ लिया कि बलि के साम्राज्य के पूर्व हम कितने संपन्न थे और आज हम कितने दरिद्र हो गए हैं ? अतः उन्होंने अपने बच्चों को बलि साम्राज्य के विरुद्ध आन्दोलन व संघर्ष खड़ा करने की प्रेरणा दी |

इस प्रकार यह तरुणों में प्रदीप्त हुई यह चिंगारी शीघ्र ही एक आश्रम से दूसरे आश्रम में फ़ैलने लगी | बलि के साम्राज्य को नष्ट कर आर्य साम्राज्य की स्थापना का विचार इन तरुणों में जोर पकड़ने लगा | इन तरुणों के नेता थे बटुक बामन |

आखिर एक दिन निश्चित हुआ | उस दिन सभी क्रांतिकारी युवक यज्ञ मंडप में जा पहुंचे | इन लोगों ने अपने शस्त्रास्त्र छुपा रखे थे | किसी ने कुषा में, किसी ने माला फेरने की गोमुखी में, किसी ने कमंडल में, किसी ने झोली में तो किसी ने शालों में अपने अस्त्र छुपाये हुए थे | किसी को कानों कान भी उनकी योजना की भनक नहीं लगी, यहाँ तक कि बयस्क द्विजों को भी नहीं | 

जब सभी नौजवान बटुक अपने अपने स्थान पर सन्नद्ध होकर बैठ गए तब निःशस्त्र बामन यज्ञ मंडप में पहुंचे | बामन ने आकर बलि से भूमि की मांग की | बलि भी बटुक बामन को भूमि दान करने को तैयार हो गया | तभी बामन ने फुर्ती से बलि को नीचे गिराकर उसे पाश में बाँध लिया | बलि की रक्षा को बलि के सैनिक आगे बढे, किन्तु पूर्व से ही तैयार नवयुवक उनकी राह में खड़े हो गए | 

इत्यायुधानि जग्रदुर्बलरनुचराSसुराः |
ग्रहस्यानुचरा विष्णुः प्रत्यवेधनूदायुधः ||

जब बलि के असुर अनुचर हाथों में हथियार लेकर बढे, तब विष्णु के अनुचर भी हंसते हुए शस्त्रास्त्र लेकर खड़े हो गए | थोड़ी बहुत लड़ाई हुई भी, किन्तु बलि की असावधान सेना सहज ही परास्त हो गई | पराजित बलि को बामन ने कोंकण में ले जाकर नजरबन्द किया | उसका कारण यह था कि पूर्व में भी भारतीयों ने बलि को हराकर असुर देश भेज दिया था, किन्तु वह पुनः शक्ति संचय कर बापस आ धमका था तथा भारत पर अपना पुनः अधिपत्य कायम कर लिया था | इसलिए बामन ने उसे उसके देश न भेजकर यहाँ ही नजरबन्द किया | 

आज के तारतम्य में भारत पर भ्रष्टाचार रूपी असुरों ने कब्जा जमाया हुआ है, जिनके खिलाफ तरुनाई उबल तो रही है, बस किसी ईमानदार वामन की प्रतीक्षा है | आप कह सकते हैं कि भ्रष्टाचारी विदेशी कहाँ, हमारे देश की मिट्टी की ही तो उपज है | हमारे देश की मिट्टी ने तो जिस विचार को जन्म दिया है, वह तो ऋग्वेद में कहा है –

सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात |
सभूमि विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठ्द्दशान्गुलम |
ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद वाहू राजन्यः कृतः |
उरुं तदस्य यद्वैस्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ||

इस विश्वरूपी देव के हजारों सिर, हजारों हाथ और हजारों पैर हैं | यह विश्वरूपी देव सम्पूर्ण प्रथ्वी पर फैला हुआ है | ज्ञानी इस ईश्वर के मुख, शूरवीर वाहु, पेट व्यापारी और कर्मचारी पैर है |
विचार कीजिए कि भारतीय मनीषा तो सबको ईश्वर रूप मानती है | जब सब ईश्वर हैं तो क्या हम किसी ईश्वर के साथ ही भ्रष्टाचार करेंगे | जो भ्रष्टाचार द्वारा शोषण कर रहे हैं, वे स्वदेशी हो ही नहीं सकते, वे परकीय है, विदेशी हैं, उनके साथ शत्रुवत व्यवहार ही करना चाहिए |

साभार आधार – वेदमूर्ति श्री दा. सातवलेकर जी की पुस्तक “भारतीय संस्कृति”

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