क्या पाकिस्तान आजाद होने जा रहा है ? - भाऊ तोर्सेकर


पिछले दो-तीन वर्षों से दुनिया का रंगढंग बदल रहा है। जो इसका अर्थ समझने में असमर्थ हैं, उन्हें इतिहास भी बिसरा देगा । चार साल पहले पश्चिम एशिया में अरब विद्रोह का प्रारंभ हुआ । यह छोटे से ट्यूनीशिया से प्रारम्भ हुआ और देखते ही देखते जंगल की आग की तरह कई अरब देशों में फैल गया । अपनी राजनीतिक स्थिरता के कारण केवल मिश्र इसका सफलतापूर्वक सामना करने में कामयाब रहां । अतः कहा जा सकता है कि जहाँ समझ का अभाव रहा, वहां अराजकता आमंत्रित हुई । ऐसा नहीं है कि केवल पश्चिम एशिया के मुस्लिम अरब देशों को ही इस प्रक्रिया से नुकसान हुआ हो, यूरोप को भी आघात सहन करना पड़ा। नाटो सेना जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही अमेरिका के नेतृत्व में सन्नद्ध रहा करती थी, टूटने के कगार पर है | साथ ही यूरोपीय संघ जो तीन दशक से अस्तित्व में है, उसका धरातल भी अस्थिर दिखाई दे रहा है |

एक ओर तो अमेरिका का प्रभाव कम हो रहा है, जबकि दूसरी ओर कई साल पहले नष्ट हुआ रूस पुनः अपनी ताकत स्थापित करने की कोशिश कर रहा है । इस सब में एक महत्वपूर्ण बात यह हुई है कि अरब मुस्लिम देशों में सैन्य शासन का अंत हो रहा है । गद्दाफी, सद्दाम या मुबारक जैसे तानाशाहों का सफाया हुआ है, साथ ही सीरिया की बशर अल असद की सरकार खंडित अवस्था में है । इसराइल के खिलाफ इस्लामिक फ्रंट कुचला जा चुका है । कुल मिलाकर, वैश्विक समीकरण बदल रहे हैं। भारत इस बात को भली प्रकार समझ रहा है, और उसके अनुसार अपनी चाल बदल रहा है। चीन पर भी बदलने का दबाब है । लेकिन लगता है कि हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान की मानसिकता इतिहास से सीख लेने की नहीं दिखाई देती । शेष विश्व के विपरीत वहां आज भी मुस्लिम सैन्य शासन जारी है । यह स्थिति कब तक चलेगी, इसकी कोई भविष्यवाणी करना मुश्किल है | क्योंकि पाकिस्तान में नेता तो पांच दशक पुरानी मानसिकता से बाहर आने के लिए तैयार हैं, लेकिन सैन्य नेतृत्व इसके लिए तैयार नहीं प्रतीत होता ।

अरब विद्रोह के बाद, मिस्र, इराक और सीरिया में सेना टूटने लगी । हालांकि मिस्र में आज भी, सैन्य नियम स्थापित हैं, किन्तु सेना ने स्वयं के अस्तित्व को ध्यान में रखते हुए, होस्नी मुबारक को हटाना स्वीकार किया और नागरिक नेतृत्व के प्रति सम्मान व्यक्त किया है। लीबिया में गद्दाफी यह लचीलापन दिखाने के लिए तैयार नहीं हुआ और उसे मरना पड़ा । पड़ोसी सीरिया में असद आज भी अराजकता से बाहर नहीं आ सका है, जबकि ईराक में भी अराजकता गहराई तक पैठी हुई है। एक के बाद एक, मुस्लिम सेनाओं ने देशों का इतिहास बदल दिया है। पाकिस्तान इन देशों में अंतिम है। पिछले दस वर्षों में वहां भी सेना का प्रभुत्व घटता जा रहा है। एक ओर तो वहां का नागरिक समाज और अधिक स्वतंत्रता चाहता है, जबकि सेना द्वारा पोषित जेहादी भस्मासुर पाकिस्तान को ही कमजोर कर रहे हैं । पूर्व तानाशाह परवेज मुशर्रफ ने कुछ साल पहले ही स्वीकार किया था कि तालिबान, मुजाहिदीन और जिहादी, पाकिस्तान द्वारा ही निर्मित हैं | यह दूसरी बात है कि अब वे उस पर ही पलटवार कर रहे हैं । 

आतंक के जिस जिन्न को उसने बोतल से बाहर निकाला, वही अब बलूचिस्तान में उसे ही परेशान कर रहा है | यह जानामाना तथ्य है कि उन जिहादियों को स्वयं पाकिस्तानी सेना ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में ट्रेनिंग दी थी | वहां करीब एक लाख व्यक्ति आतंकवादी कार्रवाई, सेना की कार्रवाई या जिहाद में विगत एक वर्ष में ही मारे जा चुके हैं। और उन्हें नियंत्रित करने का कोई संकेत भी नहीं हैं। अभी कुछ दिन पहले ही हजारों लोग पाक अधिकृत कश्मीर में भारत जिंदाबाद के नारे लगाते हुए सड़कों पर आ गए थे । केवल बन्दूक की नोक पर ही पाकिस्तान की सेना उन्हें नियंत्रित कर पाई थी । और बलूचिस्तान भी लगातार सेना के जूतों के नीचे कुचला जा रहा है । कराची और अन्य महानगरों में जगह जगह आतंकवादी घटनाएँ हो रही हैं। संक्षेप में, पाकिस्तान लगभग नष्ट होने के कगार पर है।

पाकिस्तान की धर्मांध राजनीति और सेना का राजनीतिक सत्ता के लिए लालच पाकिस्तान की वर्तमान दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। प्रारम्भ से ही, सैन्य अधिकारियों ने राजनीतिक नेताओं की हत्या की और राजनीतिक स्थिरता स्थापित नहीं होने दी । उनका प्रयत्न रहा कि किसी भी हालत में आत्मविश्वास युक्त राजनीतिक नेतृत्व का निर्माण न होने पाए । जिस किसी भी नेता में इस तरह का साहस दिखाई दिया, उसे सेना ने या तो मार डाला, या उसके हाथ से राजनीतिक सत्ता छीन ली । अपनी सत्ता की हबस के चलते ही पाकिस्तान की सेना जनता को भारत का हौआ दिखाकर उनका समर्थन हासिल करने का प्रयत्न करती है | वे जानते हैं कि सैन्यबल से भारत को पराजित करना संभव नहीं है, इसीलिए धर्म के नाम पर भारत के साथ छद्म युद्ध चलाया जाता है । 

इसीलिए जिया उल हक जैसे लोगों ने पुराने संविधान को बदलकर नया इस्लामी राष्ट्र का संविधान बनाया | नतीजतन, धर्म के नाम पर सेना ने अच्छी तरह से अपना वर्चस्व कायम कर लिया और सेना के अनुपूरक रूप में कार्य करने के लिए आतंकवादी संगठनों को खड़ा किया गया । वे अफगान में जिहाद के लिए और कश्मीर में उपद्रव पैदा करने के लिए उपयोगी साबित हुए । यह जहर धीरे-धीरे पूरे समाज के लोगों में फैल गया। और पाकिस्तान में हिंसा मुख्य तत्व बन गया, नतीजतन आतंकवाद ने पाकिस्तानी समाज को अपनी जकड में ले लिया । प्रारंभिक अवस्था में तो पढेलिखे समझदार लोगों को भी इसमें मजा आया । लेकिन जल्द ही इसकी तपिस ने उन्हें झुलसाना शुरू कर दिया | और आज हालत यह है कि पाकिस्तान में शांतिप्रिय, शिक्षित और परिष्कृत वर्ग इस अराजकता से तंग आ गया है । हालांकि अब उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा है कि वे इस झंझट से बाहर कैसे आयें । पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते है। यही कारण है कि वे भारत के साथ दोस्ती और शान्ति का मतलब समझ रहे है ।

1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से हाथ मिलाने और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हाथ मिलाने वाले नवाज शरीफ में बड़ा अंतर है।उस समय दिल्ली लाहौर के बीच बस में यात्रा करने वाजपेई चढ़े थे, तो आज लाहौर हवाई अड्डे पर मोदी उतरे हैं । आज शरीफ में उस समय जैसा आत्मविश्वास नहीं है, इसलिए उसके व्यवहार में पवित्रता दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि उन्हें मुशर्रफ द्वारा अपने ही देश से कपट पूर्वक निर्वासित कर दिया गया था । 

भारत के पोखरण परीक्षण के जबाब में परमाणु परीक्षण की अनुमति देने वाले शरीफ आज पाकिस्तान सेना की छाया से बाहर आने की कोशिश कर रहे है | उस समय के शरीफ और आज के शरीफ में जमीन आसमान का अंतर है । आज शरीफ भारत को एक दुश्मन नहीं, बल्कि सेना की गुलामी से बाहर निकालने वाले त्राता के रूप में देख रहे हों तो कोई अचम्भा नहीं | अगर अपनी ही सेना की तुलना में भारत की दोस्ती उनके लिए कहीं अधिक आवश्यक और विश्वसनीय है, तो इसमें शायद आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं । शरीफ समझ चुके हैं कि भारत आज अकेला नहीं है, उसके साथ विश्व की सभी लोकतांत्रिक शक्तियां भी हैं । इसके साथ ही वे दुनिया के बदलते राजनैतिक समीकरणों को भी बूझ रहे हैं । पिछले तीन साल में उन्होंने समझ लिया है कि जब नागरिक समाज आगे आता है, तो सेना की शक्ति को परास्त किया जा सकता है । गद्दाफी, सद्दाम और मुबारक को उन्होंने अपनी आंखों के सामने गायब होते देखा है। इस पृष्ठभूमि में, यह स्वाभाविक है कि अगर वे भारत के साथ हाथ मिला रहे हैं तो पाकिस्तान के सैन्य अधिकारियों को पसीना आ रहा है । जहाँ तक पाकिस्तान के आम नागरिक का सवाल है, वह हिंसा से तंग आ चुका है | नागरिक समाज जेहादी भस्मासुर के नियंत्रण से बाहर है और इसे देखते हुए शरीफ ने अपने फैसले खुद लेने शुरू कर दिए हैं | पाकिस्तान के हताश सैन्य अधिकारी आतंकवादी दुस्साहस तो कर सकते हैं, लेकिन यह उनके आत्म-विनाश का भी कारण बन सकता है।

पठानकोट में हुआ हमला कुछ ऐसा ही दुस्साहस है | यह उनकी पुरानी नीति या रणनीति का हिस्सा है, लेकिन बदलते समय में यह उपयोगी साबित नहीं हो सकता। बलूचिस्तान उबल रहा है। पाक अधिकृत कश्मीर में अशांति है । कराची सहित पकिस्तान के अन्य भागों में भी विद्रोह की स्थिति है, और ऐसे में भारत में रक्तपात की योजना बनाना पाकिस्तानी सेना के लिए आसान नहीं है, और वह भी तब जब प्रधानमंत्री और पाकिस्तान का राजनीतिक नेतृत्व सेना के साथ सहयोग करने से मना कर रहा हो | यह स्थिति बहुत कुछ मिस्र जैसी बनती दिखाई दे रही है । T सेना के शासन को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से मिस्र के छात्र और युवा वहां के तहरीर चौक में एकत्र हुए थे । जब लाखों लोग लोकतंत्र की स्थापना की मांग को लेकर सड़कों पर आ गये थे, उन पर टैंक चलाने जैसे पुराने उपाय भी किये गए थे । लेकिन लोगों ने उन टेंकों के डर से वापस जाने से इनकार कर दिया, तब सेना ने भी तानाशाह मुबारक के आदेश मानने से इनकार कर दिया | इस बात को अधिक समय नहीं हुआ है | महज चार साल पहले यह घटा है 

सेना ने अपने स्वयं के प्रमुख को जेल में डाला और जन शक्ति को सलाम किया । इस दृष्टि से पाकिस्तान की स्थिति भी कोई अधिक बेहतर नहीं है। यदि वहां भी नागरिक समाज सेना के अत्याचार का विरोध करने के लिए सड़क पर आता है, तो पाकिस्तान की सेना अपनी शक्ति को बनाए रखने की खातिर आखिर कितने लोगों को मार सकती है ? अगर यह होता है, तो जनता की चीखपुकार से प्रभावित गलियों में छुपे उनके अपने जिहादी कारिंदे, मियाँ की जूती मियाँ के सिर करते हुए, उनके ही हथियार उनके ही खिलाफ उपयोग नहीं करेंगे, इसकी क्या गारंटी ? जैसा कि मिस्र में मुबारक द्वारा बनाए गए मुस्लिम ब्रदरहुड के अनुयायियों द्वारा किया गया । सेना के अधिकारी इस प्रकार के विद्रोह को रोकने में सक्षम नहीं होते, क्योंकि आम सैनिक भी आम जनता से ही आते हैं, वे भी आम नागरिक ही होते हैं । यही स्थिति पाकिस्तान में खदबदा रही है, क्योंकि पाकिस्तान ही अब दुनिया का वह अंतिम देश है जहां सेना की तानाशाही चल रही है। क्या होगा अगर शरीफ इस स्थिति से मुक्त होने का फैसला करते हैं ?

अपने जीवन को दांव पर लगाकर भी अगर मोदी ने लाहौर यात्रा की जोखिम उठाई है, तो यह उनकी शरीफ के साथ बढ़ती हुई निकटता का प्रतीक है। इसी पृष्ठभूमि में पठानकोट में हुई आतंकी घटना को देखना चाहिए । शरीफ-मोदी की मीटिंग पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों को परेशान कर रही है, यह बात दिन के उजाले की तरह साफ़ है । पाकिस्तानी सेना ने जिहादियों की मदद से संभावित संवाद को रोकने और इस विश्वास के माहौल में दरार डालने की खातिर ही यह आतंकी कार्यवाही करवाई है । और निश्चय ही इसकी ठोस प्रतिक्रिया होगी ।

यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि शरीफ में सेना पर लगाम लगाने का ज़रा भी साहस नहीं है। अगर भारत सरकार इस हमले का जबाब देने का फैसला करे तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि पाकिस्तान की सरकार के कितने लोग सेना के पक्ष में होंगे । पाकिस्तान की सेना के अधिकारियों ने वही जोखिम उठाई है जो मुबारक और गद्दाफी ने उठाई थी । इसे समझते हुए मोदी या भारत सरकार ने भी इस संबंध में सीधे सीधे पाकिस्तान पर उंगली नहीं उठाई, उन्होंने पठानकोट हमले में पाकिस्तान की सेना का हाथ होने का ही आरोप लगाया है। इस प्रकार यह संकेत मिलता है कि भारत सरकार ने शरीफ और पाक सेना के बीच अंतर किया है। भारत की रणनीति पाकिस्तान की राजनीति और सेना के प्रशासन के बीच की दरार को चौड़ा करना है। लेकिन इसमें यह भी अंतर्निहित अर्थ है कि भारत शरीफ पर भरोसा कर सकता है, किन्तु पाकिस्तान की सेना पर कतई नहीं । इसके अलावा मुंबई और पठानकोट हमलों के बीच का अंतर भी ध्यान देने योग्य हैं।, शरीफ ने खुद होकर कोलंबो से मोदी को फोन किया और हमले के आरोपियों पर कार्रवाई का वायदा किया | आने वाले समय में बारीकी से पाकिस्तान के घटनाक्रमों पर नजर रखने और समझने की जरूरत है। सेना द्वारा शासित एक इस्लामी देश क्या वास्तव में मुक्त हो पायेगा ?

भाऊ तोर्सेकर 
bhaupunya@gmail.com
विश्व संवाद केन्द्र, पश्चिम महाराष्ट्र
पुणे

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