बेपेंदी की राजनीति और शहादत जवानों की


आज जनमानस में सेना के प्रति सम्मान तथा राजनेताओं के प्रति अनादर का भाव स्पष्ट देखा जा रहा है | आत्म बलिदान और अनुपम शौर्य से सेना के वीर जवान दुश्मनों का मुकाबला करते हैं, लेकिन नतीजा क्या होता है ? वे मैदानी लड़ाई जीतते है, और राजनेता टेबिल पर उनके किये कराये पर पानी फेर देते हैं | कई बार इससे अलग भी कुछ होता है | राजनेता स्थितियां बिगाड़ते हैं और फिर उसे सुधारना सेना के जिम्मे कर दिया जाता है | या फिर फटे में टांग अडाकर सेना को बलि का बकरा बना दिया जाता है | सैनिक जान से जाता है और बदले में उसे मिलते हैं केवल मैडल |
ऐसा ही कुछ भारतीय राजनीति ने श्रीलंका में गुल खिलाया था | याद कीजिए श्रीलंका में तमिल सिंघली संघर्ष का दौर | भारतीय मूल के तमिलों की संख्या वहां कुल आवादी का महज 18 प्रतिशत है | सिंघली बहुल श्रीलंका की सरकार तमिल हितों की लगातार अनदेखी कर रही थी | स्वाभाविक ही तमिलों में असंतोष की भावना बढ़ती जा रही थी | असंतोष इतना तीव्र हुआ कि एक समूह ने सरकार के खिलाफ हथियार उठा लिए और प्रथक तमिल ईलम राज्य की मांग शुरू कर दी | श्रीलंका सरकार ने भी बातचीत के द्वारा समस्या का समाधान करने के स्थान पर दमन का मार्ग चुना | बड़ी संख्या में तमिल शरणार्थी जान बचाकर भारत आने लगे | आखिर भारतीय मूल के तमिल भारत न आते तो और कहाँ जाते ?
अब शुरू हुई राजनीति | 29 जुलाई 1987 को भारत और श्रीलंका की सरकारों के बीच एक संधि हुई, एक अनुबंध हुआ, जिसके अनुसार भारत की शान्ति सेना (इंडियन पीस कीपिंग फ़ोर्स IPKF) का श्रीलंका जाना तय हुआ | और हैरत की बात तो यह कि भारतीय सेना वहां गई तमिल विद्रोहियों को कुचलने के लिए | सेना भारत की और लड़ने गई भारतीय मूल के तमिलों से | गुनाह और बेलज्जत की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी श्रीलंका दौरे पर गए | गार्ड ऑफ़ ओनर के दौरान एक सिंघली सैनिक ने अपनी राईफल की बट से उन पर प्रहार कर दिया | सिंघलियों के मन में भारत के प्रति नाराजगी का यह स्पष्ट प्रगटीकरण था | अब इसे राजनैतिक अदूरदर्शिता की पराकाष्ठा नहीं तो क्या कहा जाए कि तमिलों के खिलाफ सेना भेजकर उनके मन में भी राजीव जी ने अपने प्रति घृणा पैदा कर दी, जिसका खामियाजा आगे चलकर उन्हें अपनी जान देकर चुकाना पड़ा |
खैर यह तो हुई दूसरे के फटे में टांग अडाने की राजनीति | अब बात करते हैं, हमारी सेना के पराक्रम की | भारतीय शान्ति सेना ने श्रीलंका पहुंचकर तमिल उग्रवादी संगठन लिट्टे पर शिकंजा कसना शुरू किया | जब सशस्त्र और प्रशिक्षित भारतीय सेना के सामने लिट्टे ने स्वयं को कमजोर पाया, तो उन्होंने सीधी लड़ाई छोड़कर छापामार गोरिल्ला युद्ध की रणनीति अख्तियार कर ली | ऐसी स्थिति में वहां की परिस्थितियों से पूर्णतः अनजान भारतीय सेना को भी हर पल चोंकन्ना रहना पड़ता था | 
इसी शांतिसेना की 8 महार बटालियन में थे हमारे आज के कथानक के नायक मेजर रामास्वामी परमेश्वरन |उनका समूह भारत और श्रीलंका के बीच अनुबंध होने के अगले ही दिन, अर्थात 30 जुलाई 1987 को श्रीलंका जा पहुंचा | इस सैन्य दल में 91 इन्फेंट्री ब्रिगेड तथा 54 इन्फेंट्री डिवीजन शामिल थे | इनकी नियुक्ति जाफना पेनिसुला में हुई | उनके अभियान को ऑपरेशन पवन नाम दिया गया |
24 नवम्बर 1987 को मेजर रामास्वामी की बटालियन को सूचना मिली कि केजारीताई के एक घर में भारी मात्रा में हथियारों व गोला बारूद का जखीरा उतारा गया है | सूचना मिलते ही कैप्टिन डी.आर. शर्मा के नेतृत्व में 20 सैनिकों का एक दल इस सूचना की सत्यता का पता लगाने को रवाना कर दिया गया | इस गश्ती दल पर उस मकान के पास स्थित एक मंदिर से गोलियां बरसाई गईं | भारतीय सैनिकों ने भी जबाबी कार्यवाही की | साथ ही कम्पनी कमांडर को सूचना भेजी कि संदिग्ध मकान में तमिल टाईगर्स का अड्डा है और उनकी संख्या हमारे अनुमान से कहीं अधिक है |
इस सूचना के आधार पर मेजर रामास्वामी तथा कम्पनी कमांडर ने तय किया कि इस स्थिति का मुकाबला नियोजित ढंग से किया जाना चाहिए | कार्यवाही के लिए रात साढ़े आठ बजे कूच किया गया तथा 25 नवम्बर 1987 को रात लगभग डेढ़ बजे मेजर रामास्वामी का पूरा दल उस स्थान पर पहुँच गया | उस समय उन्हें वहां कोई हलचल नजर नहीं आई, सिवाय इसके कि उस संदिग्ध मकान के बाहर एक खाली ट्रक खड़ा था | मेजर रामास्वामी के दल ने घर को चारों तरफ से घेर लिया और तय किया कि तलाशी अभियान सुबह की पहली किरण के साथ शुरू किया जाए |
सुबह पांच बजे तलाशी का काम शुरू हुआ, लेकिन उक्त मकान में कुछ नहीं मिला | आखिर ये लोग वापस लौटने लगे | लेकिन तभी मंदिर के पास स्थित बगीचे से इनपर फायरिंग शुरू हो गई | अचानक शुरू हुई इस गोलीबारी से एक जवान मारा गया और एक घायल हो गया | इस दल ने भी जबाई कार्यवाही की | मंदिर की बगिया और नारियल के झुरमुट के बीच शत्रु छुपकर गोली चला रहा था, जबकि भारतीय सेना खुले में थी | ऐसी विषम परिस्थिति में मेजर रामास्वामी अद्भुत साहस दिखाते हुए बगीचे में जा घुसे | जहाँ उनका सीधा सामना उग्रवादी टाइगर्स के दल से हो गया | गोलियां बरसाते रामास्वामी की छाती में गोली आ धंसी, किन्तु उन्होंने हिम्मत नही हारी | गंभीर घायल अवस्था में भी उन्होंने न केवल छः उग्रवादी तमिल टाइगर्स को मार गिराया, बल्कि अपने दल को निर्देश भी देते रहे | मेजर रामास्वामी के पीछे पीछे अन्य भारतीय सैनिक भी बगीचे में जा घुसे | जैसे ही शत्रु को यह अनुमान हुआ कि वे अब आक्रामक रुख नहीं अपनाए रह सकते, उन्होंने पीठ दिखाने में ही अपनी भलाई समझी | वे अपने पीछे बम लगे हुए दो राकेट लांचर तथा तीन ए.के.47 रायफल छोड़कर भाग खड़े हुए | 
और इस प्रकार 46 वर्ष की आयु में मेजर रामास्वामी परमेश्वरन वीरगति को प्राप्त हुए | बाद में उन्हें युद्ध में दिया जाने वाला सर्वश्रेष्ठ सम्मान “परम वीर चक्र” प्रदान किया गया |
मेजर रामास्वामी का जन्म 13 सितम्बर 1946 को मुम्बई में हुआ था | सेना के कमीशंड अधिकारी के रूप में वे 16 जनवरी 1972 को महार रेजीमेंट में आये | इसके पूर्व उन्होंने मिजोरम तथा त्रिपुरा में भी सैन्य कार्यवाहियों में भाग लिया था | उनके स्वभाव में कठोर अनुशासन के साथ सहनशीलता भी समाहित थे | वे बहुत ही लोकप्रिय अधिकारी थे | उनके साथी आत्मीयता पूर्वक उन्हें “पैरी साहब” कहकर सम्बोधित करते थे | 
विचार करने योग्य बात यह है कि 1987 से 1990 तक श्रीलंका में चले भारतीय शान्ति सैनिकों के अभियान से भारत को क्या हासिल हुआ | न केवल अनेक बहादुर जांबाजों की शहादत हुई, बल्कि आगे चलकर भारत को अपने युवा प्रधान मंत्री को भी खोना पडा |
राजनीति का एक गलत निर्णय –

लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पाई |

परमवीर चक्र विजेता, मेजर रामास्वामी परमेश्वरन की दास्तान,
आखिर क्यूं चलाया गया श्रीलंका में तमिलों के खिलाफ अभियान ?
राजनीति करती है- गुनाह पे गुनाह,
शहीद होते जवानों की किसे परवाह ?
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