नेताजी सुभाष – क्यूं कांग्रेस हैरान, क्यूं वामपंथी परेशान - प्रमोद भार्गव


देश की आजादी के लिए विदेशी धरती पर लड़ने वाली “आजाद हिंद फौज” के सेनानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मौत की पहेली बंद फाइलों से धूल झड़ने के बाद भी अनसुलझी ही रही। कथित हवाई दुर्घटना में नेताजी की मौत और ताशकंद में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की अचानक मृत्यु ऐसी दो बड़ी घटनाएं हैं, जो अवाम को आज भी हकीकत से वाकिफ होने के लिए बेचैन करती हैं। उम्मीद थी कि नेताजी के जीवन और मृत्यु से जुड़ी जो फाइलें गोपनीय बने रहने के चलते, रहस्य को गहराए हुए हैं, वे सार्वजनिक होंगी तो कुछ ऐसा सार निकलेगा, जिससे गुत्थी सुलझी हुई लगने लगे। 

हालांकि नेताजी की मौत के रहस्य से पर्दा उठाने के लिए जो तीन आयोग गठित किए गए थे, उन आयोगों ने इन फाइलों को जरूर जांचा-परखा होगा | यदि उन्हें रहस्य को बेनकाब करने के सूत्र मिलते तो वे जरूर अपनी रिपोर्ट में उनका हवाला देते। जवाहर लाल नेहरू द्वारा ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली को लिखे जिस पत्र को लेकर भाजपा खुशफहमी में है और कांग्रेस तिलमिला रही है, वह पत्र न केवल बहुत पहले से चर्चा में है, बल्कि आयोगों ने उस पत्र को जांच का आधार भी बनाया है। बावजूद यह अच्छा हुआ कि वे दस्तावेज सार्वजानिक हो रहे हैं, जिन्हें कतिपय राष्ट्रों से संबंध बिगड़ने का आधार माना जाता रहा है। साथ ही यह भ्रम भी बना हुआ था कि इन अभिलेखों में जरूर कुछ ऐसा है, जिससे कांग्रेस हमेशा के लिए कठघरे में बनी रहेगी |

राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखे दस्तावेजों के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सार्वजनिक करने की शुरूआत से दो बातें अच्छी हो रही हैं, एक तो यह कि दस्तावेजों से रहस्य का आवरण हमेशा के लिए उठ जाएगा। मसलन एक तरह से फाइलों के गोपनीय बने रहने के विवाद पर पूर्ण विराम लग जाएगा। दूसरे यह कि एक महानायक को जो लोग लाचार गुमनामी बाबा के छद्म वेश में प्रस्तुत करते रहे हैं, वह छद्म भी अनावृत्त हो जाएगा। मतलब, जिस व्यक्ति में महात्मा गांधी के राजनीतिक विरोध का साहस था, जिस व्यक्ति में विदेशी धरती से फिरंगी हुकूमत के खिलाफ सीधी जंग लड़ने की हिम्मत थी, वह भला अपने ही देश में गुमनामी का जीवन व्यतीत करने को क्यों विवश होता ? 

भले ही नेताजी पश्चिमी राष्ट्रों के लिए जर्मनी और जापान के सहयोग के कारण युद्ध अपराधी थे, मृत्युदंड के अभियुक्त थे, बावजूद इसके क्या यह संभव था कि स्वतंत्र भारत में उनका कोई बाल भी बांका कर लेता ? हालांकि यह बात अपनी जगह सच है कि स्वतंत्र भारत में सत्तारूढ़ कांग्रेसी नेताओं को सुभाष की जीवित वापसी की कल्पना से ही सांप सूंघ जाता था। वह इसलिए क्योंकि देश की जनता निर्विवाद रूप से उन्हें सर्वमान्य नेता मान सकती थी | तथापि कांगेस में ऐसे अनेक नेता रहे हैं, जो उनकी मौत से पर्दा उठाने की दृश्टि से अपने स्तर पर खोज-बीन में लगे रहे हैं। 

बिहार के कांग्रेसी सांसद एएन सिंह ने नेहरू के प्रधानमंत्री रहते हुए ही यह बात पुरजोरी से उठाई थी कि नेताजी की मौत ताइवान के पास 18 अगस्त 1945 की दोपहर दो बजे हुई हवाई दुर्घटना में नहीं हुई थी। फॉरवर्ड ब्लॉक के सांसद समर गुहा तो अपने स्तर पर की गई जांच के बाद लिखी पुस्तक “नेताजी सुभाष जीवित या मृत” में वायुयान दुर्घटना और उस समाचार को असत्य ठहरा चुके हैं, जो नेताजी की कथित मौत के बाद जारी किया गया था। गुहा का दावा था कि धुरी राष्ट्रों की निर्णायक पराजय के बाद नेताजी बच निकले थे और रूस में शरण ली थी, किंतु रूस का रूख नेताजी के प्रति सहानुभूति पूर्ण नहीं था। 

शायद इसी आषंका के चलते दस्तावेजों के खुलासे के बाद नेताजी के पौत्र चंद्रकुमार बोस ने कहा है कि “अब तक दस्तावेजों से विमान दुर्घटना के परिस्थितिजन्य साक्ष्य सामने आए हैं, न कि निष्कर्ष निकालने लायक सबूत | इसलिए नेताजी से जुड़ी जो सोवियत संघ में फाइलें हैं, उनका भी खुलासा होना चाहिए।“ यही मांग ममता बनर्जी ने उठाई है। 

मोदी सरकार यदि रूस पर पर्याप्त दबाव बनाए तो ये फाइलें भी सार्वजनिक हो सकती हैं। वैसे भी अब रूस से साम्यवादी लौह कवच उतर चुका है। पुतिन सरकार ने अपने गोपनीय ऐतिहासिक दस्तावेज सार्वजनिक करने शुरू कर दिए हैं। इन दस्तावेजों का गूढ़ परीक्षण हो तो इनसे स्तालिनवादी रूसी सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी का भारत की आजादी के संघर्ष का वास्तविक रुख, भारत पर उनके दबाव डालने के मंसूबे, हिटलर शासित जर्मनी से पहले मित्रता और फिर संबंध विच्छेद तथा साम्राज्यवादी चर्चिल से स्तालिन की दोस्ती से जुड़े पहलू सामने आ सकते हैं। यदि नेताजी से संबंधित फाइलें रूस खोल देता है तो यह तथ्य भी उजागार हो जाएगा कि सुभाष बाबू के संदर्भ में नेहरू की मंशा क्या थी ? क्योंकि नेहरू का एटली को लिखा जो पत्र सामने आया है, उस पर नेहरू के दस्तखत नहीं हैं। इस आधार पर कांग्रेस इसे षड्यंत्रपूर्वक कूटरचित पत्र बता रही है।

इस पत्र की प्रतिलिपि खोसला एवं मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट और प्रदीप बोस की किताब “सुभाष बोस एंड इंडिया टुडेः ए न्यू ट्राइस्ट विद डेस्टिनी” में भी दर्ज है। इस लिहाज से इस पत्र के रूप में कोई नया तथ्य सामने नहीं आया है। दरअसल ऐसा माना जाता है कि कथित हवाई दुर्घटना से बच निकलने के बाद नेताजी रूस पहुंच गए थे। किंतु वहां पहुंचने के बाद उन्हें लगा के वे एक जाल से निकलकर दूसरे जंजाल में फंस गए हैं। तब नेताजी ने रूस से मुक्ति के लिए एक गुप्त संदेश नेहरू को भेजा। नेहरू महत्वाकांक्षी थे। उनकी सत्ता प्राप्ति की इच्छा को लॉर्ड माउंट बेटन पहले ही ताड़ गए थे। लिहाजा बेटन ने नेहरू को सचेत किया कि सुभाष की गहरी जन लोकप्रियता के चलते, उनकी भारत वापसी का अर्थ होगा कि वही प्रधानमंत्री बनें। इस कष्मकश से उबरने के उपाय के चलते नेहरू ने ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली को 27 दिसंबर 1945 को पत्र लिखा - 

“हम मानते हैं कि आपके युद्ध अपराधी सुभाष बोस को स्तालिन ने रूस की सीमा में प्रवेश की इजाजत दी है। यह राजनीतिक शरण देकर रूस ने मित्र राष्ट्रों के आपसी समझौते का उल्लघंन किया है। यह सीधे तौर पर रूस का धोखा है, क्योंकि वह अमेरिका व ब्रिटेन का साथी है। अतः कृपया इसे संज्ञान में ले।“ 

यह पत्र आसफ अली के घर लिखाया गया था। इसे टाइप नेहरू के मेरठ के आशुलिपिक श्यामलाल जैन ने किया था। यह रहस्योद्घाटन खुद जैन ने खोसला आयोग को किया था। मुखर्जी आयोग की जांच का आधार भी यह पत्र रहा है। गैर हस्ताक्षरित यह छोटा पत्र, कुछ बड़े सवाल खड़ा करता है। आखिर सुभाष का संदेश नेहरू को किसने दिया ? 

सुभाष के जीवित रहने की जानकारी क्या केवल नेहरू के पास थी या उन्होंने इसे गांधी और पटेल के साथ भी साझा किया ? 

यदि किया तो इसे क्यों दबाकर रखा गया ? 

और नहीं किया तो क्यों ?

इन फाइलों के खुलासे से कांग्रेस और वामदल परेशान हैं। नतीजतन उनके प्रवक्ता कह रहे हैं कि फाइलों को गुप्त सूची से बाहर लाना तृणमूल कांग्रेस और भाजपा की मिलीभगत है। दरअसल इन 100 फाइलों के सार्वजनिक होने से पहले सितंबर 2015 में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नेताजी से जुड़ी 64 फाइलों के 12,744 पन्ने उजागर कर चुकी हैं। इन फाइलों से भी यह सूचना मिली थी कि हवाई दुर्घटना के बाद भी नेताजी 10 साल तक जीवित थे। साथ ही एक अहम् जानकारी यह भी आई थी कि पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे के कार्यकाल में गैर जरूरी मानते हुए 34 फाइलें नष्ट भी की गई थीं। 

दरअसल इतिहास में नए साक्ष्यों के आधार पर अनुसंधान, विश्लेषण और पुनर्मूल्यांकन की प्रक्रिया सतत जारी रहनी चाहिए। इस लिहाज से मोदी सरकार का दायित्व बनता है कि वे चंद्रकुमार बोस और ममता की मांग को आगे बढ़ाते हुए रूस के अभिलेखागर में नेताजी से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक कराने की दिशा में तो पहल करें ही, उस मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को भी संसद में पूर्ण रूप में प्रस्तुत करें, जिसके अब तक संपादित अंश पेश किए गए हैं। नेताजी की प्रपौत्री राज्यश्री चौधरी का दावा है कि यदि यह रिपोर्ट संपूर्ण रूप से सामने आ जाती है तो हवाई दुर्घटना का सच सामने आ जाएगा।

इस सब के बावजूद यह मुष्किल ही है कि अतीत की इस घटना से पूरी तरह पर्दा हट जाएगा। लेकिन जो दस्तावेज जहां भी हैं, वे यदि उजागर होते हैं तो इससे वर्तमान केंद्र सरकार की सक्रियता और पारदर्शिता सामने आएगी। इन दस्तावेजों से कुछ ऐसे तथ्य उजागर होते भी हैं कि जिनसे यह पता चले कि नेताजी के समकालीन नेताओं ने उनकी जानबूझकर उपेक्षा की थी, तब भी उन राजनीतिक दलों के वर्तमान अनुयायिओं को दोषी ठहराना कतई उचित नहीं होगा। क्योंकि नेतृत्वकर्ता देश, काल और परिस्थिति के अनुसार फैसले लेने को मजबूर होते हैं। इन्हीं परिस्थितियों की लाचारी के चलते देश के बंटवारे के रूप में आजादी स्वीकारी गई। फिर आज ऐसे कई राजवंशों के वंशज सांसद, विधायक और मंत्री हैं, जिनके पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई में रोड़ा बनकर अंग्रेजों का साथ दिया था। तब नेताजी के साथ समकक्षों का क्या व्यवहार रहा, इससे ऐतराज क्यों ? वैसे भी इतिहास उन्हीं का होता है, जो जीतता है। 

प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224
फोन 07492 232007

लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।


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