हिन्दुओं का मनोबल तोड़ना - सिक्यूलरों की संजय नीति !

संग्राम में प्रतिपक्षी पर विजय प्राप्त करने का एक सूत्र है, उसका मनोबल तोड़ना, उसे युद्ध की इच्छा से विमुख करना | जैसा कि महाभारत काल में धूर्त ध्रतराष्ट्र ने पांडवों के साथ किया था | कौरवों के पास ग्यारक अक्षौहिणी सेना थी, जबकि पांडवों के पास महज सात अक्षौहिणी सेना ही थी | इसके बाद भी कौरव अपनी विजय के प्रति आश्वस्त नहीं थे | वे पांडवों के पराक्रम को जानते थे | इसलिए धृतराष्ट्र ने पांडवों को युद्ध से विमुख करने का प्रयत्न किया | उसने इस कार्य के विशेषज्ञ संजय को पांडवों के पास भेजा |

संजय ने तत्वज्ञान के उपदेश के नाम पर पांडवों को कायरता की घुट्टी पिलाई |इसका वर्णन महाभारत के संजययान नामक उपपर्व में मिलता है | संजय ने धर्मराज युधिष्ठिर को इस प्रकार उपदेश दिया –

हे धर्मराज तुम पांडव तो जन्म से ही सज्जन हो, जबकि दुर्योधन आदि कौरव तो स्वभावतः ही महादुष्ट हैं | तुम धन्य हो, जो अभी तक कौरवों के अपराध क्षमा करते आये हो | तुम तो सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति रहे हो | किन्तु आज क्या हुआ जो तुम अपना स्वभाव बदल रहे हो और अपने ही कुल के नाश का कारण बन रहे हो | तुम धन्य हो, जो तुम्हारे मन में शत्रुओं के प्रति भी दुश्मनी का कोई भाव नहीं रहता | दुर्योधन कुछ भी करे, पर है तो तुम्हारा भाई ही | उसे मारकर अपने कुल का क्षय क्यों करना चाहते हो | युद्ध को टालो और कौरवों से संधि करलो |

हे पांडवो तुम तो दयालु हो, जबकि कौरवों की दुष्टता सीमातीत है | किन्तु धार्मिक होने के कारण तुम्हें यह हिंसक युद्ध शोभा नहीं देता | युद्ध में विजय किसकी होगी यह तो अनिश्चित है, किन्तु कुलक्षय तो निश्चित ही है | अपने ही कुल का विनाश क्या तुम जैसे धर्मशील व्यक्ति को शोभा देता है ?

युद्ध करना नीच मनुष्यों का काम है | मैं जानता हूँ कि धृतराष्ट्र पुत्रों के प्रति तुम्हारे ह्रदय में अपार प्रेम भी है | जब चित्रसेन गन्धर्व ने उन्हें पकड़ लिया था, तब तुम्हीं ने उन्हें छुडाया था | यह कितने आश्चर्य का विषय है कि अब तुम्हीं उन्हें मारने जा रहे हो |

हे धर्मराज यह जीवन क्षणभंगुर है | कौरवों का संहार करके क्या तुम चिरकाल तक जीवित रहोगे ? तुम्हारे राज्य को कौरवों ने कपट पूर्वक छीन लिया, यह सत्य है, किन्तु आखिर वे तुम्हारे भाई ही तो हैं | राज्य आदि नश्वर भोग तुम्हारे पास रहें, या उनके पास क्या फर्क पड़ता है ? तुम तो शास्वत सुख की खोज में रमे रहो | क्षणभंगुर राज्य के विलास की तुलना में शास्वत धर्म का पालन ही श्रेयस्कर है |

विषय वासना ही मनुष्य को क्रूर कर्मों में प्रवृत्त करती है | तुम जैसे ज्ञानियों का इस प्रकार विषय वासना में लिप्त होना बहुत बुरी बात है | सम्पूर्ण प्रथ्वी का राज्य भी पारलौकिक शास्वत सुख के सामने तुच्छ है, अतः तुम उसकी प्राप्ति का ही प्रयत्न करो | चाहो तो योग साधना करो, ध्यान – धारणा में निमग्न हो जाओ, हिमालय पर जाकर तपस्या करो और आत्मोन्नति के द्वारा मुक्ति को प्राप्त करो | किन्तु युद्ध करके भीष्म, द्रोण आदि गुरुजनों व अपने बांधवों के विनाश को प्रवृत्त न होओ | यह तुम्हें शोभा नहीं देता |

और आगे हम देखते हैं कि संजय के इस उपदेश का असर अर्जुन पर कितना गहरा हुआ | वह तो हतोत्साहित हो ही गया था, अगर भगवान कृष्ण ने कौरवों की इच्छा पर पानी न फेरा होता | अगर कृष्ण न होते तो निश्चय ही पांडव सब कुछ छोड़कर बैरागी बाबा बन ही जाते |

अब जरा आज की स्थिति पर विचार करें | हिन्दुओं की सहिष्णुता और मुसलमानों के व्यवहार को लेकर तथाकथित सिक्यूलर क्या इसी रणनीति पर काम नहीं कर रहे ? क्या उनकी कट्टरता को नजर अंदाज कर लगातार हिन्दुओं की सहिष्णुता का बखान इसी संजय नीति का भाग नहीं है ? उन्हें सुधरने का आग्रह करने के स्थान पर हिन्दुओं को सहिष्णु बने रहने का आग्रह क्या देश हित में है ?

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