क्या हम नष्ट हो जाने योग्य है ?



स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व अनेक विचारकों और सुधारकों ने हिन्दू मुस्लिम विचार प्रवाहों के सम्मिश्रण का प्रयत्न किया | इस द्रष्टि से मिश्र खानपान व मिश्र भाषा का उपक्रम प्रारम्भ हुआ | इस प्रयत्न का परिणाम मात्र इतना हुआ कि पाकिस्तान बन गया | भारत खंडित हो गया | इतना ही नहीं तो उस पाक अर्थात पवित्र स्थान से अपवित्र हिन्दुओं का उच्चाटन शुरू हो गया |
समाज सुधारक और तत्कालीन चिन्तक यह भूल गए कि सम्मिश्रण तभी संभव हो सकता है, जब दोनों पक्ष उसके लिए तैयार हों | दोनों में से अगर एक भी इसके लिए तैयार नहीं हो, तो सम्मिश्रण भी असंभव है | पाकिस्तान को निर्हिंदू करने के पाकिस्तानी प्रयास हों अथवा कश्मीर घाटी से हिन्दुओं को भगाने का घटनाक्रम, यह स्पष्ट है कि मुसलमान सम्मिश्रण नहीं चाहते |

इतिहास में अगर झांकें तो गुरु नानक ने भी हिन्दू और मुसलमानी संस्कृति को मिलाने का बड़ा प्रयत्न किया था | पर वे कितने सफल हुए ? अंततः गुरु गोविन्दसिंह व उनके पुत्रों के बलिदान के साथ वह वंश ही समाप्त हो गया | राजपूतों ने भी मुग़ल बादशाहों को अपनी बहिन बेटियाँ व्याह कर इन दोनों संस्कृतियों को मिलाने की भरसक चेष्टा की थी, किन्तु वह प्रयत्न भी इकतरफा ही रहां | कहा जा सकता है कि हिन्दू इस मिश्रण के लिए सदा तत्पर रहे, किन्तु दूसरा पक्ष न केवल उदासीन, अपितु सम्मिश्रण विरोधी ही रहा | उनका एक सूत्रीय कार्यक्रम रहा, समूचे भारत का यवनीकरण | उनके नजरिये में यही समन्वय का एकमेव तरीका है |

अब प्रश्न उठता है कि ऐसी स्थिति में किया क्या जाए ? आजकल के पढेलिखे कुछ प्रबुद्ध जन कह सकते हैं कि इस प्रश्न पर भेजा खपाना ही व्यर्थ है | अगर सब हिन्दू मुसलमान भी हो जाएँ तो क्या फर्क पड़ता है ? लेकिन क्या यह मानवता के हित में होगा ? क्या हिन्दू संस्कृति नष्ट हो जाने योग्य है ?

यजुर्वेद में भारतीय संस्कृति को “प्रथमो विश्ववारा संस्कृति” कहा गया है | अर्थात ऐसी संस्कृति जो सम्पूर्ण विश्व के लिए वरणीय, अनुकरणीय है |

प्रश्न उठता है कि ऐसा क्या खास है इसमें ?

भारतीय चिंतन में यह विश्व परमात्मा का ही रूप है | अतः केवल मनुष्य ही नहीं, प्राणीमात्र परमात्मा के रूप हैं | इसलिए लोगों में कोई भेद नहीं है | सभी समान हैं | यह किसी ख़ास मजहब से नाता नहीं रखती | इसका एक ही मजहब है, और वह है मानवता |

यही वह दृष्टिकोण है, जिसका उद्घोष स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म सम्मेलन शिकागो में किया था | आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दू समाज आत्म निंदा के मोड़ से बाहर आकर आत्म तेज को पहचाने और विश्व को हिन्दू संस्कृति के मूल तत्व से अवगत कराये | आतंकवाद और असहिष्णुता से विश्व मानवता को त्राण केवल हिन्दू संस्कृति के सर्व समावेशी दर्शन से ही मिल सकता है |

अदीनाः स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात |

अर्थात जिसमें दीनता नहीं, वही कायम रहता है | 

अतः दीनता त्यागो और वीरता से ओतप्रोत हो जाओ |

यही है भारतीय तत्व ज्ञान, जिसे स्मरण रखना होगा, यदि अस्तित्व कायम रखना है तो | 

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें