अगर कृष्ण भगवान तो भीष्म क्यों नही ? – आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

बात सन 35-36 की है | मैं उन दिनों शांति निकेतन में था | श्रद्धेय आचार्य क्षितिमोहन सेन की प्रेरणा से प्रातः भ्रमण के लिए निकलता था | सही बात यह है कि निकलते वे थे, मैं पीछे हो लेता था | तो एक दिन प्रातः भ्रमण के लिए निकला था | देखा गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर धीरे धीरे अपने बगीचे में टहल रहे थे | कुछ गंभीर मुद्रा में थे | आचार्य सेन ने कहा, चलो प्रणाम कर लें | धीरे धीरे दबे पाँव हम लोग उनके पास पहुँच गए | चरण छूकर प्रणाम निवेदन किया | उनका ध्यान भंग हुआ | देखकर प्रसन्न हुए | उन्होंने उस दिन मुझे संबोधित करके कहा – तुमने कभी सोचा है कि भीष्म को अवतार क्यों नहीं माना गया और श्रीकृष्ण को ही अवतार रूप में सम्मान क्यों दिया गया ?

मैंने कभी ऐसा सोचा ही नहीं था, क्या जबाब देता ? मैं मन ही मन अपनी सोचने की क्षमता की दरिद्रता पर लज्जित हो रहा था | आचार्य सेन ने रक्षा की | गुरुदेव ने हंसते हुए कहा – आपने तो कुछ सोचा ही होगा, मगर मैं इस पंडित को ही छेड़ना चाहता था | अभी नौजवान है, नया खून है, मार खाने की अभी शक्ति है, मेरी पीठ तो जर्जर हो चुकी है | कहकर गुरूदेव खूब प्रसन्न भाव से हँसे |

मैंने विनीत भाव से कहा – ऐसा प्रश्न तो मेरे मन में कभी उठा ही नहीं, परन्तु आप कहते हैं तो सोचूंगा | परन्तु क्या सोचूँ यह बता दें | 

गुरुदेव के शब्द ध्यान नहीं, पर उनके कथन की मेरे मन पर जो छाप रह गई है, वह यह कि शर – शैया पर पड़े भीष्म ने जब भयंकर नरसंहार देखा होगा, उनके जैसे ज्ञानी के मन में अपनी प्रतिज्ञा, उसके पारवर्ती परिणाम आदि बातें क्या नहीं उठी होंगी ? 

मैंने सोचना शुरू किया था | कई प्रतिभाशाली मित्रों से भी सोचने को कहा था, पर सोचता ही रह गया | जिन्होंने सोचने के लिए उकसाया था, वह चले गए | 

भीष्म शर सैया पर सोये उपयुक्त काल की प्रतीक्षा कर रहे थे – मरने के लिए | साधारण मनुष्य, मुहूर्त का विचार किये बिना ही मर जाते हैं | भीष्म ऐसे नहीं थे, उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था | जैसे तैसे, जब तब, जहाँ तहां मरना उन्हें स्वीकार नहीं था | जब तक उत्तम मुहूर्त न आ जाए तब तक वह मृत्यु नहीं चाहते थे | 

इसका फायदा उठाया युधिष्ठिर ने | सारी शंकाएं उनसे कह डालीं और उत्तर भी बसूल कर लिए | 

बेचारे वृद्ध करबट भी नहीं बदल पाते होंगे | बदलने की कोशिश करने पर वाण बुरी तरह चुभ जाते होंगे | और ऐसे में युधिष्ठिर प्रश्नों की बौछार कर रहे होंगे | युधिष्ठिर उस समय थोड़ी दया दिखाते तो क्या बिगड़ जाता ? मैं जब उस दृश्य की कल्पना करता, तो मुझे बड़ी पीड़ा होती थी | फिर लगता कि युधिष्ठिर ने अच्छा ही किया, जो उनका मन बातचीत में उलझाए रखा | परन्तु जब युधिष्ठिर और अन्य लोग उन्हें विश्राम करने के लिए छोड़कर चले जाते होंगे, तब एकांत में इस बूढ़े के मन में क्या चिंता रहती होगी ? कुछ तो सोचते ही होंगे ? 

गुरुदेव पूछते हैं कि भीष्म को अवतार क्यों नहीं माना गया | भारतवर्ष किसी बात पर मौन रह जाता है, तो उसका भी कुछ अर्थ होता है | किसी ने नहीं कहा कि भीष्म को अमुक अमुक कारणों से अवतार नहीं माना गया और श्री कृष्ण को अमुक अमुक कारणों से अवतार माना गया | 

दिनकर जी महामना और उदार कवि थे | उनके अनुसार भीष्म अपने बम भोलानाथ गुरू परशुराम से अधिक संतुलित, विचारवान और ज्ञानी थे | फिर भी परशुराम को दस अवतारों में गिन लिया गया और बेचारे भीष्म को ऐसा कोई गौरव नहीं दिया गया | क्या कारण हो सकता है ?

एकांत में भीष्म सर शैया पर लेटे लेटे क्या अपने बारे में सोचते नहीं होंगे ? मेरा मन कहता है कि जरूर सोचते होंगे | भीष्म ने कभी बचपन में पिता की गलत आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए भीषण प्रतिज्ञा की थी – वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे | अर्थात इस संभावना को ही नष्ट कर देंगे कि उनके पुत्र होगा और वह या उसकी संतान कुरुवंश के सिंहासन पर दावा करेगी | प्रतिज्ञा सचमुच भीषण थी | कहते हैं कि इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही वे देवदत्त से भीष्म बने | यद्यपि चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य तक तो कौरव रक्त रह गया था | तथापि बाद में वास्तविक कौरव रक्त समाप्त हो गया, केवल कानूनी कौरव वंश चलता रहा | जीवन के अंतिम दिनों में इतिहास मर्मज्ञ भीष्म को यह बात क्या खली नहीं होगी ?

भीष्म को अगर यह बात नहीं खली तो और भी बुरा हुआ | परशुराम चाहे ज्ञान विज्ञान की जानकारी का बोझ ढोने में भीष्म के समकक्ष न रहे हों, पर सीधी बात को सीधे समझने में निश्चय ही वे उनसे बहुत आगे थे | वह भी ब्रह्मचारी थे – बाल व्रह्मचारी | पर भीष्म जब अपने निर्वीर्य भाईयों के लिए कन्या हरण कर लाये और एक कन्या को अविवाहित रहने को बाध्य किया,तब परशुराम ने भीष्म के इस अशोभन कृत्य को क्षमा नहीं किया | समझाने बुझाने तक ही नहीं रुके तो लड़ाई भी की | पर भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के शब्दों से चिपटे ही रहे | वह भविष्य नहीं देख सके, वह लोक कल्याण को नहीं समझ सके | फलतः अपमानित अपहृत कन्या जल मरी |

नारद जी भी ब्रह्मचारी थे उन्होंने सत्य के बारे में शब्दों पर चिपटने को नहीं, सबके हित या कल्याण को अधिक जरूरी समझा था – सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत | (सत्य बोलना श्रेष्ठ है, किन्तु हितकारी होना उससे भी श्रेष्ठ है)

भीष्म ने दूसरे पक्ष की उपेक्षा की थी | वह “सत्यस्य वचनं” को “हित” से अधिक महत्व दे गए | श्रीकृष्ण ने ठीक इससे उल्टा आचरण किया | प्रतिज्ञा में “सत्यस्य वचनं” की अपेक्षा “हितं” को अधिक महत्व दिया | भारतीय सामूहिक चित्त ने भी उन्हें पूर्णावतार मानकर इसी पक्ष को अपना मौन समर्थन दिया | एक बार गलत सही जो कह दिया, उसी से चिपट जाना “भीषण” हो सकता है, हितकर नहीं | भीष्म ने भीषण को ही चुना |

एक प्रश्न बार बार पूछा जाता है कि भीष्म और द्रोण द्रोपदी का अपमान देखकर भी चुप क्यों रहे ? द्रोण गरीब अध्यापक थे,बाल वच्चे वाले थे | गरीब भी ऐसे कि गाय भी नहीं पाल सकते थे | बेचारी ब्राह्मणी को चावल का पानी देकर बच्चे को फुसलाना पडा | राज्याश्रय छोड़कर वापस उसी अवस्था में लौट जाने का साहस कम ही लोगों में होता है | पर भीष्म की चुप्पी ? उन्हें तो बालवच्चों की भी फ़िक्र नहीं थी | अतः भीष्म की चुप्पी समझ में नहीं आती | अतः लगता है कि भीष्म में कर्तव्य – अकर्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमजोरी थी | वह उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे | यद्यपि वह जानते बहुत थे, तथापि कुछ निर्णय नहीं ले पाते थे | उन्हें अवतार न मानना ठीक ही हुआ |

आज भी ऐसे विद्वान् मिल जायेंगे, जो जानते बहुत हैं, करते कुछ भी नहीं | करने वाला इतिहास निर्माता होता है, सिर्फ सोचते रहने वाला इतिहास के भयंकर रथचक्र के नीचे पिस जाता है | इतिहास का रथ वह हांकता है, जो सोचता भी है और सोचे हुए को करता भी है |

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें