एक राजा की मौत – आचार्य चतुरसेन शास्त्री

नेपाल नरेश त्रिभुवन 11 दिसंबर 1911 से 7 नवम्बर 1950

सामंतशाही के दौरान प्राचीन राजाओं में प्रथा थी कि राजा के मरते ही दूसरा राजा गद्दी पर बैठ जाता था | ‘राजा मर गया’ और ‘राजा चिरंजीवी रहे, ये दोनों घोषणाएँ एक साथ होती थीं | प्रथा थी कि राजा के मरते ही जब उसका पुत्र या कोई भी उत्तराधिकारी गद्दी पर बैठता था, तब सबसे पहली सूचना उसे यह दी जाती थी कि एक सैनिक मर गया है, उसके क्रिया कर्म की राजाज्ञा प्रदान हो |

तब नया राजा कहता था – उचित सम्मान के साथ उसकी क्रिया की जाये | राजा न उस मातम में सम्मिलित होता था और न शव को देखता था | 

नेपाल के भूतपूर्व राजा त्रिभुवन की मृत्यु रोग शैया पर ज्यूरिच में हुई | उनका शव जब दिल्ली लाया गया, तब पालम हवाई अड्डे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, अन्य केन्द्रीय मंत्री, विदेशी राजदूत, उच्च अधिकारी, तीनों सेनाओं के प्रधान, नई दिल्ली स्थित नेपाली राजदूत तथा दिल्ली के सहस्त्रों नागरिकों ने शव को श्रद्धांजलि अर्पित की | शव पर नेहरू जी ने व राष्ट्रपति, उप राष्टपति की ओर से तीनों सेनाओं के प्रधानों ने पुष्प चक्र चढ़ाए |

भारतीय सेना के एक हजार सैनिक हवाई अड्डे पर तैनात थे | बैंड और ढोल काले कपडे से ढके हुए थे | सैनिकों ने सैनिक ढंग से शव का सम्मान किया, बैंड पर मृत्युगीत बजाया गया | अंत में सेना के जनरलों ने शव को विमान पर चढ़ाकर नेपाल रवाना किया | उस दिन भारत सरकार के सारे कार्यालय बंद रहे और राष्ट्रीय झंडे झुका दिए गए |

जब शव नेपाल के हवाई अड्डे पर पहुंचा, तब 49 तोपों की सलामी दागी गई | नेपाल में बागमती नदी के किनारे, पशुपतिनाथ मंदिर के नजदीक राजा का दाह संस्कार संपन्न हुआ | दाह संस्कार में लगभग एक लाख नर नारी एकत्रित हुए | अंतिम संस्कार में भारत, ब्रिटेन, फ़्रांस, अमेरिका और स्वीडन के सरकारी प्रतिनिधि उपस्थित हुए |

राजा की मृत्यु पर शोक प्रदर्शन करने के लिए, नेपाल के प्रत्येक पुरुष को उस्तरे से अपना सिर तथा दाढी. मूछें मुडानी पडीं | नेपाल राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को तेरहवीं हो जाने तक निरामिष भोजन करना, चमड़े का जूता नहीं पहिनना और किसी प्रकार का उत्सव नहीं मनाना, जैसे नियमों का पालन करना पडा | नियम के उल्लंघन का दण्ड था – छः माह की जेल |

किन्तु मृत राजा के पुत्र और उसकी रानी ने न तो शोक मनाया, न बाल मुंडाए, न शव दाह में सम्मिलित हुए | यह राज मर्यादा थी | इसका आंशिक उल्लंघन कर उन्होंने तेरहवीं तक सादा भोजन करने और चटाई पर सोने का नियम पालन किया |

प्राचीन परंपरा के अनुसार नेपाली ब्राह्मण निरामिषभोजी होने से पवित्र होते हैं तथा श्राद्ध का दान नहीं लेते, अतः काठमंडू में पुस्तक बेचने वाले एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण को श्राद्ध का दान लेने हेतु चुना गया | ग्यारहवीं के दिन, बागमती नदी के तट पर एक विशेष समारोह किया गया | ब्राह्मण की कुटिया में मृत राजा त्रिभुवन के सोने चांदी के बर्तन सजाये गए, सोफा सेट तथा पलंग पर बहुमूल्य गलीचे आदि बिछाए गए | कुटिया के बाहर नेपाल नरेश का हाथी तथा कई मोटरें खडी की गईं | इन सबके बाद ब्राह्मण नेपाल नरेश के वस्त्र धारण कर आया और उसने फिर दान स्वीकार किया | उसे सोने चांदी के बर्तनों में उत्तम प्रकार का भोजन कराया गया, चालीस हजार रुपये नगद तथा दस लाख रुपये मूल्य का राजा का निजी सामान दिया गया | 

ब्राह्मण ने श्राद्ध का दान स्वीकार करते ही ब्राह्मणत्व को छोड़ दिया और वह इन सब बस्तुओं के साथ नेपाल नरेश के भूत को भी अपने ऊपर लेकर बागमती नदी के पार चला गया और पुनः काठमांडू की घाटी में प्रविष्ट नहीं हुआ | 

कुछ ऐसा ही किस्सा मेरे साथ भी घटित हुआ | संभवतः यह सन 1910 या 11 की बात है | उन दिनों में जयपुर संस्कृति कोलेज में पढ़ता था | आयु यही कोई उन्नीस बीस वर्ष की रही होगी | तभी जयपुर के राजा माधोसिंह का देहांत हो गया | मैंने देखा कि सिपाहियों के झुण्ड के साथ नाईयों की टोली बाजार – बाजार, गली – गली घूम रही है | वे राह चलते लोगों को जबरदस्ती पकड़कर सड़क पर बैठाते और अत्यंत अपमान पूर्वक उनकी पगड़ी एक ओर फेंककर सिर मूंड देते, दाढी मूंछ सफाचट कर देते थे |

मेरे अडौस पडौस में जो भद्रजन रहते थे, उन्होंने स्वेच्छा से सिर मुंडवाये थे | अजब समां था, जिसे देखो वह सिर मुंडवाये जा रहा था | यह देख मेरा मन विद्रोह से भर उठा | मेरी अवस्था कम थी, अतः दाढी मूंछ तो नाम मात्र की ही थीं, किन्तु सिर पर लम्बे बाल अवश्य थे | मुझे उन बालों से कोई विशेष लगाव भी नहीं था, किन्तु इस प्रकार जबरदस्ती सिर मुंडाने के क्या मायने ?

लोगों ने मुझे डराया कि अगर बाहर निकलोगे तो जबरदस्ती मूंड दिए जाओगे | छिपकर बैठे और पुलिस को पता चल गया, तो वे पकड़कर राजद्रोह के आरोप में जेल में डाल देंगे | परन्तु ज्यूं ज्यूं इस जोर जुल्म की व्याख्या होती थी, मेरे तरुण रक्त की एक एक बूँद विद्रोही हो उठती थी | मैंने निश्चय किया, सिर कटाना मंजूर है, पर सिर मुंडाना नहीं |

मैं दिन भर घर में छिपा बैठा रहा | पकडे जाने का डर तो था ही | बहुत से लोग घरों से पकडे जाकर मूंड़े जा रहे थे | मुझे किसी के भी आने की ज़रा भी आहट होती, तो मैं पाखाने में जाकर छिप जाता | अंत में रात आई और मैं किसी तरह घर से बाहर निकलकर अंधेरी रात में जंगल की ओर चल पडा | उन दिनों शहर के बाहर तक शेर आ जाया करते थे | 

मेरा इरादा अजमेर भाग जाने का था | किन्तु स्टेशन पर पकडे जाने का डर था | अतः मैंने आगे जाकर एक छोटे स्टेशन से रेल पकड़ी | 15 दिन बाद जयपुर लौटा | फिर भी यह डर सताता रहा कि अगर किसी ने पूछ लिया कि 15 दिन में बाल इतने बड़े कैसे हो गए, तो क्या जबाब दूंगा |

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