देशद्रोह के आरोपी जेएनयू छात्रों को पनाह देने वाले यूनिवर्सिटी के डीन के विरुद्ध कायम हो आपराधिक प्रकरण - राजीव खण्डेलवाल


(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष हैं) 


‘‘जेएनयू दिल्ली’’ में विगत 9 फरवरी को अफ़ज़ल गुरू की बरसी कार्यक्रम में हुई राष्ट्रद्रोही गतिविधियों कार्यवाही के विरूद्ध दिल्ली पुलिस ने जब विश्वविद्यालय परिसर के अंदर जाकर जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष को गिरफ्तार किया था तब भी (विश्वविद्यालय की स्वायत्ता के नाम पर) दिल्ली पुलिस के द्वारा कैंपस के अंदर जाकर गिरफ्तारी करने की कार्यवाही पर कुछ वर्गो ने आपत्ती जताई थी। जेएनयू में अभी तक जो कुछ हुआ तथा पिछले 48 घंटों से अधिक समय से जेएनयू में पुनः जो कुछ हो रहा हैं, जहॉं पर देशद्रोह के आरोपी पनाह पाये हुये हैं इस सबको एक राष्ट्रवादी देश कैसे सहन कर सकता है? दिल्ली पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर पूछताछ व जांच करना चाहती हैं। पुलिस जेएनयू कैंपस में जाने के लिए पहले से चली आ रही परिपाटी के रहते प्रशासन की अनुमति मांग रही हैं, जो उन्हें अभी तक नहीं दी गई है। पुनः कुछ बुद्धिजीवी जेएनयू टी.यू. के शिक्षक वर्ग ने पुलिस के परिसर में प्रवेश के खिलाफ विरोध दर्ज कराया हैं। इन आरोपित देशद्रोही व्यक्तियों के द्वारा कैंपस के अंदर चर्चा-परिचर्चा-संवाद-भाषण इंटरव्यू सब कुछ बे-रोक-टोक हो रहा हैं। लेकिन इस पर न तो विश्वविद्यालय प्रशासन को ही कोई एतराज है और न ही स्वायत्तता के नाम पर बयान बाजी करने वाले बयान वीरो ने आरोपित छात्रों की उक्त कार्यवाही की निंदा की है, और न ही उन्हें पुलिस प्रशासन के समक्ष समर्पण करने की सलाह दी हैं। इन बयान वीरो से यह भी पूछा जाना चाहिए कि ‘‘हार्दिक पटेल’’ जिसने लोकतांत्रिक अधिकार के तहत पटेल आरक्षण के मुद्दे पर एक विशाल एवं ऐतहासिक आंदोलन का नेतृत्व किया था, लेकिन उक्त आंदोलन को कुचलने के लिये उस पर देशद्रोह का अपराध दर्ज किया जाकर उन्हे में जेल में डाला गया। तब हार्दिक पटेल के समर्थन में इनके बयान क्यों नहीं आये? 

आरोपी दस दिन अज्ञात वास में रहकर दिल्ली पुलिस की अंाखों में धूल झांेककर जेएनयू परिसर में वापस आ जाते हैं, और पुलिस उन्हें पकड़ नहीं पा रही हैं। पुलिस के द्वारा इस तरह इनके विरूद्ध कानूनी कार्यवाही करने के लिये अनुमति मॉंगना व अनुमति का इंतजार करना क्या उचित हैं? अभी तक पुलिस द्वारा इन समस्त आरोपित देशद्रोही व्यक्तियों को ‘‘गिरफ्तार न करके (मात्र दो लोगो को सरेंडर करवाकर गिरफ्तारी हुई) लगभग लाचारो जैसे मूक दर्शक बने रहना’’ क्या इससे यह प्रतीत नहीं हो रहा है कि पुलिस ने राजनीति के चलते कहीं जल्दबाजी में देशद्रोह का गंभीर मुकदमा तथ्यों के विपरीत तो दर्ज नहीं कर लिया हैं। क्या यह माना जावे कि उनके विरूद्ध प्रकरण कमजोर होने के कारण गिरफ्तारी की कार्यवाही करने का आत्मबल-नैतिक बल, सुरक्षा बलों में नहीं हैं? अन्यथा दिल्ली पुलिस द्वारा राष्ट्रद्रोह के आरोपियों को पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया से गुजारते हुये उन्हें भारतीय दंड़ संहिता के अंतर्गत अधिकतम सजा दिलवाने के लिए तुरंत प्रभावी और बिना किसी दबाव के सीधे कार्यवाही करनी चाहिए थी (हार्दिक पटेल का उदाहरण सामने है)। लेकिन अभी भी पुलिस उनसे समर्पण की उम्मीद कर रही हैं। मैं हमेशा एक बात कहता हूं कि इस सृष्टि में कोई चीज ‘‘पूर्ण’’ नहीं होती हैं उसी प्रकार देश के एक नागरिक की स्वतंत्रता भी पूर्ण नहीं, सापेक्ष है। जिस संविधान के अंतर्गत उसे स्वतंत्रता का अधिकार मिला हैं, उसी संविधान में उसके स्वतंत्रता के अधिकार पर कुछ प्रतिबंध भी लगाये गये है। 

बुद्धिजीवियों का एक वर्ग तो देशद्रोह के आरोप को नकारते हुये माननीय उच्चतम् न्यायालय के द्वारा केदारनाथ सिंह विरूद्ध स्टेट ऑफ बिहार में दिये गये निर्णय का हवाला भी दे रहा हैं। उच्चतम् न्यायालय द्वारा देशद्रोह को जिस तरह से उक्त प्रकरण में परिभाषित किया गया हैं उसका जेएनयू में की गई कार्यवाही के संबंध में गलत अर्थ निकाला जा रहा है। यदि तर्क के लिये यह मान भी लिया जावे तो भी जिस तरह के नारे लगाये गये (जिन्हे दोहराने की आवश्यकता नहीं हैं) क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आवरण में ढॅंककर उन्हें सही, जायज व नैतिक ठहराया जा सकता हैं? क्या देश के ‘‘टुकड़े-टुकडे़’’ दर्शाने वाले नारों के लिये उन छात्रों के गले में माला डालकर उनके ‘‘दुस्साहस’’ के लिये उनका नागरिक अभिनंदन किया जाना चाहिए? कोई भी कृत्य कितना ही कानून सम्मत एवं संवैधानिक ही क्यों न हो, जब तक उसके पीछे नैतिक बल नहीं होगा, तब तक वह प्रभावशाली नहीं हो पायेगा। 

एक बात और यदि उच्चतम् न्यायालय के निर्णय के प्रकाश में ‘‘भारत के टुकड़े कर दो’’ इत्यादि नारे देशद्रोह की सीमा में नहीं आते हैं, तो शाहबानो प्रकरण में आये उच्चतम् न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध भारत सरकार ने संसद में कानून पास कर उच्चतम् न्यायालय के निर्णय को पलट दिया तब वैसी ही कार्यवाही भारत सरकार धारा 124 ए में संशोधन कर उक्त कृत्यो को देशद्रोह के अपराध की सीमा में लाने का प्रयास क्यों नहीं कर रही है? अतः अभिव्यक्ति (बोलने) की स्वतंत्रता एवं उच्चतम् न्यायालय के उक्त निर्णय के तथाकथित पक्ष में निर्णय के प्रकाश में क्या अब समय नहीं आ गया हैं कि ‘‘देशद्रोह की परिभाषा’’ पुनः परिभाषित की जाएं। जिस प्रकार महिलाओं के प्रति बढ़ते हुये यौन अत्याचार के कारण भारतीय दंड संहिता की धारा 376 में कई महत्वपूर्ण संशोधन कर उसका फैलाव कर और परिणाम मूलक बनाया गया हैं, देशद्रोह को भी पुनः परिभाषित करना अब अति आवश्यक हो गया है। 

‘‘देशद्रोह’’ भारतीय दंड़ संहिता की धारा 124 ए के अंतर्गत एक गैर जमानतीय व संज्ञेय अपराध हैं। जेएनयू घटना के बाद ऐसा लगता हैं, देशद्रोह के अपराध की भी दो श्रेणी मानी जानी चाहिये। ‘‘देशद्रोह’’ दो प्रकार के तत्वो-कारको द्वारा होता हैं। एक वह भारतीय नागरिक द्वारा जो नागरिक होने के कारण देश का सपूत तो होेता है, लेकिन कपूत बनकर अपने कृत्यों से देश की एकता स्वाभिमान और सम्मान को धक्का व नुकसान पहॅंुंचाता है। दूसरे वे विदेशी व्यक्ति व शक्तियां जो आंतकवादी घटनाओं के माध्यम से देश की सुरक्षा सार्वभौंमिकता, एकता व सीमा पर हमला व अतिक्रमण कर देश को गहरी अपूरणीय क्षति पहुंचॉं कर जनमानस व देश के हृदय को बुरी तरह से आंदोलित करती रहती हैं। इन विदेशी दुश्मनों द्वारा अचानक हमले की घटना को अंजाम दिये जाने की संभावना लगातार होने के कारण भारत सरकार व नागरिक गण इनसे तो सतर्क रहते है। इनसे भी बडे़ अपराधी हमारे वे भारतीय कपूत हैं जिनका कर्त्तव्य व सवैंधानिकदायित्व तो देश की माटी की रक्षा करना है परन्तु वे विदेशी अखाडो के हाथो में खेल कर देश का बंटाधार कर रहे ेहैं।

जेएनयू में जो छः देशद्रोही आरोपी पनाह लिए हुए थे, उनमें से तीन के खिलाफ पुलिस द्वारा लुकआउट नोटिस जारी किया हुआ है | एक अपराधी को पनाह देना भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत दंडनीय अपराध है | तब जेएनयू के डीन के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत अपराधियों को पनाह देने के अपराध का प्रकरण अभी तक क्यों नहीं दर्ज किया गया ? उनके प्रति पुलिस इतनी सहिष्णु क्यों है ? एक अपराधी के न पकडे जाने की स्थिति में पुलिस उसके माता-पिता से कलर पूरे परिवार के साथ कैसा व्यवहार करती है, यह किसी से छुपा नहीं है | जब तक अपराधी समर्पण न करदे पूरा परिवार प्रताड़ित होता है | क्या डीन के विरुद्ध ऐसी कार्यवाही करने का कानूनी नैतिक संवैधानिक बल पुलिस में नहीं है ? 

इसी प्रकार विश्वविद्यालय की स्वायत्तता के प्रश्न पर पुनर्विचार का समय भी अब आ गया है | विश्वविद्यालय की स्वायत्तता असीमित नहीं हो सकती | जब मामला राष्ट्रद्रोह का हो तब तो कतई नहीं | ऐसी स्थिति में पुलिस को पूरा कानूनी और संवैधानिक अधिकार है कि वह बिना सूचना के या लिखित सूचना देकर अपराधियों के विरुद्ध आवश्यक कानूनी कार्यवाही कर सकती है | आज पूरे देश की साँसें बेबजह की बहसों में अटकी हुई हैं | पूरा वातावरण विचार प्रदूषण से इतना दूषित है, कि इन अटकी हुई साँसों में देश कब तक और कैसे जीवित रह पायेगा यही बड़ा यक्ष प्रश्न है |

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