षडयंत्र विफल तभी होगा, जब उसे पहचानेंगे !


जरा याद कीजिए 26 मार्च 2014 की, जब एक इस्लामी देश - बांग्ला देश की राजधानी ढाका के नेशनल परेड ग्राउंड पर 254,537 मुसलमानों ने पूरी दुनिया को सुना कर एक गीत गया - आमार सोनार बांग्ला देश - 

यह था बांग्ला देश का राष्ट्र गीत और उस दिन की यह घटना 9 अप्रैल 2014 को गिन्निस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में दर्ज हुई !

आपको हैरत होगी यह जानकर कि इस गीत में देश को न केवल माँ बताया गया है, वरन उसका मानवीयकरण भी किया गया है - जैसा हम भारत का भारत माता के रूप में करते हैं !

मगर बांग्ला देश के किसी मौलवी या इस्लामिक संस्था ने इस पर आपत्ति नहीं उठाई ! देश को माँ कहने और उसकी प्रतिमा की कल्पना से मना नहीं किया... 

फिर क्या कारण है कि सिर्फ भारत का इस्लाम मना करता है भारत को भारत माता कहने से ?

सच्चाई यह है कि देश में एक वर्ग खड़ा हो रहा है जो भारत की हर परम्परा, हर रीति रिवाज़ पर सवालिया निशान खड़ा करता है ! 

वास्तविकता यह है कि इसके पीछे हिन्दुओं के मनोबल को तोड़ने का एक बड़ा षड़यंत्र है, जिसमें कुछ बेगैरत हिन्दू भी अपने स्वार्थ के लिए शामिल हैं !
ज़रूरत है इस षड़यंत्र को पहचानने और विफल करने की !

सन्दर्भ के लिए बांग्लादेश का राष्ट्रगीत और उसका अर्थ प्रस्तुत है -

आमार सोनार बांग्लादेश
आमि तोमाय भालो बाशी
चिरोदिन तोमार आकाश
तोमार बातास
आमार प्राणे बाजाय बासी
ओ माँ
फागुने तोर आमेर बोने
घ्राणे पागोल कोरे
मोरी होए होए रे
ओ माँ
अघ्राने तोरा भोरा खेते
आमि कि देखछि मोधुर हासी
की शोभा की छाया गो
की स्नेहो की माया गो
की आचोल बिछायेछो
बोतेर मुले,
नोदिर कुले कुले
माँ, तोर मुखेर बानी
आमार काने लागे
सुधा’र मोतो
माँ तोर बोदोन खानी मोलिन होले
आमि नोयोन
ओ माँ आमि नोयोन जोले भासी
सोनार बांग्ला
आमि तोमाय भालोबाशी

बैसे तो अर्थ बताने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि बोल बहुत सरल हैं, फिर भी बताने में कोई हर्ज भी नहीं, इसलिए लिखे देता हूँ -

हे स्वर्णिम बांग्ला, मैं तुझे (बहुत) प्यार करता हूँ
हमेशा तेरा आकाश, तेरी हवा, मेरे प्राणों में बांसुरी बजाती है.
ओ माँ, फागुन में तेरे आम के जंगल अपनी सुगंध से मुझे पागल कर देते हैं.
अगहन में तेरे (धान से) भरे खेत, मैं क्या देखता हूँ – तेरी मधुर हंसी
(तेरी) क्या शोभा हैं, क्या छाया है, कितना स्नेह है, कितना लगाव है,
(पीपल की) हवाओं के मूल में, नदियों के कूल (किनारे)
ओ माँ, तेरे मुख के वाणी मेरे कानों को अमृत की तरह लगती है.
माँ, तेरे बदन थोडा भी मलिन हो तो मेरे नयन न, मेरे नयन जलने लगते हैं,
हे स्वर्णिम बांग्ला, मैं तुझे (बहुत) प्यार करता हूँ

इसी परिप्रेक्ष में एक मित्र की यह पोस्ट पठनीय भी है, और मनन करने योग्य भी  -

आप एक प्रयोग कीजिये, एक भगौने में पानी डालिये और उसमे एक मेढक छोड़ दीजिये। फिर उस भगौने को आग में गर्म कीजिये।
जैसे जैसे पानी गर्म होने लगेगा, मेढक पानी की गर्मी के हिसाब से अपने शरीर को तापमान के अनकूल सन्तुलित करने लगेगा।
मेढक बढ़ते हुए पानी के तापमान के अनकूल अपने को ढालता चला जाता है और फिर एक स्थिति ऐसी आती है की जब पानी उबलने की कगार पर पहुंच जाता है। इस अवस्था में मेढक के शरीर की सहनशक्ति जवाब देने लगती है और उसका शरीर इस तापमान को अनकूल बनाने में असमर्थ हो जाता है।

अब मेढक के पास उछल कर, भगौने से बाहर जाने के अलावा कोई चारा नही बचा होता है और वह उछल कर, खौलते पानी से बाहर निकले का निर्णय करता है।
मेढक उछलने की कोशिश करता है लेकिन उछल नही पाता है। उसके शरीर में अब इतनी ऊर्जा नही बची है की वह छलांग लगा सके क्योंकि उसकी सारी ऊर्जा तो पानी के बढ़ते हुए तापमान को अपने अनुकूल बनाने में ही खर्च हो चुकी है। कुछ देर हाथ पाँव चलाने के बाद, मेढक पानी मर पर मरणासन्न पलट जाता है और फिर अंत में मर जाता है।
🎤 अब उठेंगे सवाल : यह मेढक आखिर मरा क्यों?
सामान्य जन मानस का वैज्ञानिक उत्तर यही होगा की उबलते पानी ने मेढक की जान ले ली है लेकिन यह उत्तर गलत है।
सत्य यह है की मेढक की मृत्यु का कारण, उसके द्वारा उछल कर बाहर निकलने के निर्णय को लेने में हुयी देरी थी। वह अंत तक गर्म होते मौहोल में अपने को ढाल कर सुरक्षित महसूस कर रहा था। उसको यह एहसास ही नही हुआ था की गर्म होते हुए पानी के अनुकूल बनने के प्रयास ने, उसको एक आभासी सुरक्षा प्रदान की हुयी है। अंत में उसके पास कुछ ऐसा नही बचता की वह इस गर्म पानी का प्रतिकार कर सके और उसमे ही खत्म हो जाता है।
मुझे इस कहानी में जो दर्शन मिला है वह यह की यह कहानी मेढक की नही है, यह कहानी हिन्दू की है।यह कहानी, सेकुलर प्रजाति द्वारा हिन्दू को दिए गए आभासी सुरक्षा कवच की है। यह कहानी, अपने सेकुलरी वातावरण में ढल कर, सकून की ज़िन्दगी में जीते रहने की, हिन्दू के छद्म विश्वास की है। यह कहानी, अहिंसा, शांति और दुसरो की भावनाओ के लिहाज़ को प्राथिमकता देने में, उचित समय में निर्णय न लेने की है। यह कहानी, सेकुलरो के बुद्धजीवी ज्ञान, 'मेढक पानी के उबलने से मरा है' को मनवाने की है।
यह कहानी, धर्म के आधार पर हुए बंटवारे के बाद, उद्वेलित समाज के अनकूल ढलने के विश्वास पर, वहां रुक गए हिन्दुओ के अस्तित्व के समाप्त होने की है। यह कहानी, कश्मीरियत का अभिमान लिए कश्मीरी पंडितो की कश्मीर से खत्म होने की है। यह कहानी, सेकुलरो द्वारा हिन्दू को मेढक बनाये रखने की है। यह कहानी, आपके अस्तिव को आपके बौद्धिक अहंकार से ही खत्म करने की है।
लेकिन यह एक नई कहानी भी कहती, यह मेरे द्वारा मेढक बनने से इंकार की भी कहानी है.... मेरी कहानी, आपकी भी हो सकती है यदि आप, आज यह निर्णय करे की अब इससे ज्यादा गर्म पानी हम बर्दाश्त करने को तैयार नही है।
मेरी कहानी, आपकी भी हो सकती है यदि आप, आज जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषा और ज्ञान के अहंकार को तज करके, मेढक से हिन्दू बनने को तैयार है।
आइये! थामिये, एक दूसरे का हाथ और उछाल मार कर और बाहर निकल आइये, इस मृत्युकारकप सेक्युलरि सडांध के वातावरण से और वसुंधरा को अपनी नाद से गुंजायमान कीजिये,
'हम हिन्दू है! हम भारत है! हम ज़िंदा है!'


एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें