शंकराचार्य - शिव संवाद !

· आदि शंकराचार्य गंगा स्नान के पश्चात अपने शिष्यों के साथ बाबा विश्वनाथ के दर्शनों को जा रहे थे | तभी उनके सामने एक चांडाल अपने चार श्वानों के साथ आ गया | परम्परा में पले होने के कारण उनके मुंह से अचानक निकल गया दूर हट, दूर हट | इस पर चांडाल ने विनम्रता पूर्वक प्रतिप्रश्न किया –


अन्नमयादन्नमयमथवा, चैतन्यमेव चैतान्यात |

द्विजवर दूरीकर्तुम वान्छसि, किम ब्रूहि गच्छ गच्छेति ||

ओ महात्मन आप किसको किससे दूर हटाना चाहते हैं ? यदि आप इस पञ्चभौतिक अन्नमय शरीर को दूर हटाना चाहते हैं, तो संसार में जितने भी शरीर हैं, सबके सब पञ्च तत्व से निर्मित हैं | किन्तु यदि आप चेतन को चेतन से दूर हटाना चाहते हैं, तो वह कैसे हटाया जा सकता है, आप ही बताएं ?

किम गंगाम्बुनि बिम्बितेSम्बरमनौ चंडाल बाटी पय

पूरे वाSतरमस्ति कांचनघटी-मृतकुम्भयोर्वाSम्बरे |

प्रत्यग्वस्तुनि निस्तरंगसहजानन्दावाबोधाम्बुधौ

विप्रोयम श्वपचोSयमित्यपि महान कोSयं विभेदभ्रमः ||

भगवान् भास्कर का प्रतिबिम्ब पवित्र गंगाजल में दिखाई दे अथवा घाट पर एकत्रित दूषित जल में, मिट्टी के घड़े में या स्वर्ण कलश में, इन जड़ वस्तुओं के संयोग से भगवान सूर्य को कोई दोष कैसे स्पर्श कर सकता है ?

हे द्विज श्रेष्ठ | जो प्रज्ञानघन है, तरंगों से रहित सिन्धु के समान विक्षेपों से सर्वथा रहित परमानंद स्वरुप है, उसमें चांडाल और ब्राह्मण का भेद कैसा ?

भगवत्पाद श्री शंकराचार्य ने चांडाल रूप में पधारे आदिगुरू भगवान साम्ब सदाशिव को प्रणिपात किया और उनकी अर्चना में पांच श्लोकों की अलौकिक मंजरिका समर्पित की जिसमें हर श्लोक के अंत में कहा गया –

चांडालोSस्तु स तु द्विजोSस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम |

वह चांडाल हो या ब्राह्मण, वही मेरा गुरू है |

शंकराचार्य जी ने सही कहा है -

जन्मना जायते शूद्रः, कर्मणा जायते द्विजः |

वेदाध्यायि भवेद्विप्रो, ब्रह्मम जानाति ब्राह्मणः ||