रानी का ग्वालियर युद्ध - डॉ. शिव बरुआ


भारतीय इतिहास लेखन को राजाओं बादशाहों एवं अंग्रेजों के शासन में इनके द्वारा लिखी डायरियों, लगाये गये शिलालेखों तथा राज कवियों द्वारा लिखे गये काव्यों को आधार बनाया गया है। इसलिए इसमें एक पक्षीय घटनाओं का वर्णन मिलता है। स्वतंत्रता पश्चात जो इतिहास लेखन किया गया उसमें विदेशी दृष्टिकोण के साथ विदेशी राजनैतिक सोच का भी प्रभाव अधिक होने से इतिहास में यथार्थ दृष्टि दुर्लभ है। कालान्तर में इतिहास का यथार्थ चित्रण करने का प्रयास हुआ, जिसे यह कहकर नकारने की कोशिश की गई कि यह राष्ट्रवादिता के पूर्वाग्रह से ग्रसित है।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के संदर्भ में अंग्रेज लेखकों ने ब्रिटिश हुकूमत के रिकार्ड्स एवं तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियों के पत्र व्यवहार को आधार मानकर विद्रोही अथवा ''डकैत'' शब्दों का प्रयोग किया है। अंग्रेजों ने रानी की छवि धूमिल करने के लिए अनेक बातें जोड़ी हैं जिनमें महाराजा जियाजी राव सिंधिया द्वारा बेशकीमती मोतियों का कण्ठा रानी को भेंट करना शामिल है जबकि यह कण्ठा सिंधिया के अपमानित दरबारी रामराव जिसे नाना साहब ने सेनाओं का प्रधानमंत्री बनाया गया था के आदेश पर दिया गया था। रामराव के सम्मान में ग्वालियर किला से तोपों के इक्कीस गोले दागे गये थे। इसी तरह अंग्रेज इतिहासकार यह नहीं मानते हैं कि झांसी की रानी एवं अंग्रेजों में ग्वालियर में कोई युद्ध हुआ था। उनके अनुसार अंग्रेजों के सैनिकों ने रानी को झांसी के किला में बंदी बनाकर लंदन भेज दिया था जहां बाद में उनकी मौत हो गई। हकीकत यह है कि अंग्रेज जिसे रानी समझ रहे थे वह झलकारी बाई थी जो संयोग से रानी से मिलती-जुलती सूरत की थी। रानी को झांसी के किला से बाहर निकालने के लिए झलकारी बाई ने रानी की वेशभूषा धारण कर ली थी। अंग्रेज सैनिकों से झलकारी बाई का सामना हुआ था। यहां वह मारी गईं अथवा उन्होंनेे स्वयं के कटार से स्वयं पर वार कर बलिदान किया। दरअसल अंग्रेज झांसी की रानी को शक्ल से जानते नहींं थे। इस लिए उन्होंने किसे रानी मानकर अथवा ब्रिटिश हुकूमत को खुश करने के लिए किसे गिरफ्तार कर लंदन भेज दिया था, प्रमाणित नहीं है। अंग्रेजों का एक अफसर रानी के प्रति सहानुभूति रखता था उसे कलकत्ता (कोलकाता) भेज दिया गया था। विरोधाभासी इतिहास यह है कि ब्रिटेन के एक इतिहासकार ने लिखा कि रानी झांसी के किले से भागकर कालपी आई जहां उनका घोड़ा मर गया। रानी के साथ उनके पिता मोरोपंत भी भागे थे किन्तु रात्रि में भटक गये जो दतिया पहुंचे। जहां का राजा अंग्रेजों का वफादार निकला उसने मोरोपंत को अंग्रेजों के हवाले कर दिया। अंग्रेजों ने उन्हें मार डाला।

अंग्रेज इतिहासकार कहते हैं कि झांसी की रानी कालपी से कोटा की सराय पहुंची। वे कालपी के युद्ध पर मौन साधते हैं। कालपी में रानी के साथ राव साहब एवं तात्याटोपे थे। ह्यूरोज रानी का पीछा करते कालपी पहुंच गया जहां उसे रानी की सेना ने कड़ी टक्कर दी। रानी की सैन्य शक्ति कम थी इसलिए उन्होंने रणनीति बनाई और ग्वालियर की ओर कूच किया। ग्वालियर के राजा जियाजीराव सिंधिया की फौज में असंतोष था। इसलिए तात्याटोपे ने अपने सैनिकों को फकीरों के वेश में राजा के सैनिकों के बीच भेजकर असंतोष को पहले ही हवा दे दी थी। इसलिए सिंधिया के सैनिक विद्रोहियों के पक्ष में थे। 

योजना के अनुसार रानी, राव साहब, तात्या बांदा एवं बरेली के नवाब 31 मई 1858 को कैन्टोमेन्ट पहुंचे और उस पर कब्जा कर लिया। इस खबर से महाराजा सिंधिया आश्चर्य चकित रह गये। उन्हें बताया गया कि विद्रोहियों के पास सात हजार पैदल, चार हजार अश्वारोही तथा बारह तोपें हैं। सिंधिया ने 31 मई 1858 को छह हजार पैदल, पन्द्रह सौ अश्वारोही एवं आठ तोपों के साथ युद्ध करने की तैयारी की और एक जून को सेना को हमला करने का आदेश दिया। इसमें उन्होंने अपने छह सौ अंगरक्षकों को भी भेजा। इन सैनिकों ने जब पहली तोप चलाई तभी इन्हें खबर मिली कि विद्रोही सेना का नेतृत्व रानी झांसी कर रही है। यह जानकर सिंधिया ने स्वयं तोप संभाली किन्तु तब तक अंगरक्षकों को छोड़कर उनकी सेना रानी की सेना में जा मिली। सिंधिया फूलबाग के रास्ते महल लौटे तथा तैयारी कर कुछ साथियों एवं अंगरक्षकों के साथ आगरा की ओर कूच कर गये। इतिहास कार यह नहीं बता सके कि वह कहां पहुंचे। हकीकत में सिंधिया जंगल के रास्ते आसन नदी के किनारे घने जंगल में बसे कुतुबार जो महाभारत कालीन कुन्तलपुर है जहां की कुंती थी के हरि सिद्ध देवी के मंदिर में जाकर छिप गये। सिंधिया के महल छोडऩे के बाद महल में बचे लोगों ने महल में लूटपाट मचा दी।

कूटनीति के तहत राव साहब ने महारानी बैजाबाई के पास राज्य की बागडोर संभालने का प्रस्ताव भेजा, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया तथा अन्य साथियों के साथ नरवर कूच कर गई। उनके जाते ही एक जून की रात को विद्रोहियों ने महल पर कब्जा कर लिया। दूसरे दिन बड़ी धूमधाम से ग्वालियर नगर में प्रवेश किया। तात्याटोपे ने पुलिस थाना से मुनादी करवा दी कि राजा को किसी प्रकार कष्ट न होने दिया जाये तथा महल से लूटा हुआ सामान थाना में जमा करा दिया जाये ताकि राजा का सामान वापस लौटा दिया जाये। राव साहब ने सिंधिया के खजांची अमर चंद बाठिया को बुलाकर दो जून 1858 को सैनिकों को दो माह का वेतन तथा तीन माह के वेतन के बराबर बोनस बंटवा दिया। अगले दिन बलदेव सिंह किलेदार ने ग्वालियर का किला राव साहब के सुपुर्द कर दिया। रानी तथा राव साहब ने शास्त्रगार का निरीक्षण कर किला की मोर्चाबंदी कर दी। नाना साहेब को पेशवा तथा राव साहब को वायसराय घोषित किया गया। तात्या टोपे ने 4 जून को सेना के कमांडर घोषित किये। सिंधिया का अपमानित दरबारी रामराव को सेनाओं का प्रधानमंत्री बनाया गया। जिसके सम्मान में किले से तेतीस तोपें दागी गई। प्रधानमंत्री ने सौनिकों को बांटने के लिए जितना धन मांगा उतना अमरचंद बाठिया ने सिंधिया के खजाने से उपलब्ध करा दिया। राव साहब ने गंगाजली राज कोषागार की चाबियां लेकर निरीक्षण किया तथा महारानी बैजाबाई से 9 जून को फिर कहलवाया कि वे ग्वालियर आकर राज्य की बागडोर संभालें। किन्तु वह नहीं आई। राव साहब गंगा दशहरा उत्सव, ब्राह्मणों को भोज एवं प्रमुखों को भोज देने में मशगूल थे। रानी उन्हें आगाह कर रही थी कि अंग्रेज सेना हमला कर सकती है इसलिए तैयारी करना चाहिए।

ग्वालियर किले पर जितनी आसानी से रानी का कब्जा हो गया उससे अंग्रेज चकित थे। वे ग्वालियर किले की अहमियत समझते थे। जून के अंत में बरसात शुरु होने पर कुछ नहीं हो पायेगा का डर सता रहा था। ह्यूरोज ने ग्वालियर पर चारों ओर से आक्रमण करने की योजना बनाई। रानी के साथ जो लोग भी थे जो रानी के नेतृत्व को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे इनमें रानी की ससुराल पक्ष के लोग थे जो यह चाहते थे कि गंगाधर राव की मृत्यु के बाद दत्तक पुत्र की जगह उन्हें राजा बनाने का प्रस्ताव अंग्रेजों को भेजा जाये। रानी ने इस राय को महत्व नहीं दिया था। ह्यूरोज की योजना के अनुसार उसने कालपी से कूच किया। उससे इनुरखी में स्टुअर्ट की सेना काली सिंध पर आकर मिली। आगरा से कर्नल रीमेक की भारी भरकम सेना एवं तोपखाना ग्वालियर की ओर कूच किया। चंदेरी से ब्रिगेडियर स्मिथ की सेना पनिहार होकर ग्वालियर की ओर आई। सोलह जून को ह्यूरोज ने पूरी शक्ति के साथ मुरार कंटोन्मेंट पर हमला किया। विद्रोही सेना को ग्वालियर की ओर हटना पड़ा।

अंग्रेज इतिहासकारों के अनुसार रानी कोटा की सराय में जब शर्बत पी रही थी तभी ठीक सामने से अंग्रेज सैनिक ने उनके चेहरे पर तलवार चलाई जिसमें वह घायल हो गई और गंगादास की शाला की ओर उसके सैनिक ले भागे। यह तथ्य इसलिए सटीक नहीं बैठता है क्योंकि ह्यूरोज ने गरगज की पहाड़ी से ग्वालियर किले पर तोप का गोला यह समझकर चलवाया था कि उसे वहां रानी के खड़े होने का दूरबीन से आभास हुआ था। हकीकत यह है कि 17 जून को राव साहब एवं तात्याटोपे से स्मिथ का कड़ा मुकावला हुआ जिसमें अंग्रेजों से उनकी तोपें छीन ली गई। ग्वालियर किला के उरवाई द्वार पर अंग्रेजों ने हमला बोल दिया तथा उनकी सेना किला पर चढऩे लगी। उस समय रानी किला के मुख्य द्वार किलागेट से बाहर युद्ध करने के लिए निकली। रानी का ससुराल पक्ष चाहता था कि रानी विधवा हो गई है इसलिए उन्हें सिर का मुण्डन कराकर सामान्य विधवा की तरह सफेद व पहनकर रहना चाहिए। रानी ने मुंडन कराया तथा मर्दाना सफेद व धारण करना शुरु कर दिया था। वह कमर में पीताम्बरी पट्टा बांधती थी। रानी जब किला गेट से किला तलहटी के इलाके में पहुंची तब वहां भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में रानी की रक्षा करते हुए अनेक वेश्याएं तथा सैकड़ों साधुओं ने बलिदान दिया। यहां रानी के नौ वफादार मुस्लिम तोपचियों ने अंग्रेजों को रोका जो मारे गये। इस इलाके को आज नौ गजा रोड कहा जाता है।

रानी ने युद्ध करते हुए नाला पार करने के लिए अपने घोड़े को कुदवाया जो घायल होकर गिर पड़ा। रानी के सैनिक दूसरे घोड़े का इंतजाम करना चाहते थे किन्तु अंग्रेज सैनिकों के हमले के कारण नहीं कर पाये। रानी युद्ध करते हुए महल परिसर होते हुए फूलबाग की तरफ के महल के द्वार पर पहुंचती इससे पहले वह तलवार के प्रहार से घायल हो गई। रानी को लेकर नवाब साहब बांदा आगे बढ़े। वे अंग्रेजों से युद्ध भी कर रहे थे। उस समय ह्यूरोज ने तोप का गोला दागा जिससे नवाब साहब बलिदान हो गये। रानी घायल हो गई। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि रानी को अंग्रेज ने गोली मारी थी जिसे रानी ने तत्काल मौत के घाट उतार दिया। इस युद्ध में सहेली मुन्दर भी मारी गई। अंग्रेज इतिहासकार मानते हैं कि रानी एवं मुन्दर को गंगादास की शाला के बड़े हवन कुण्ड में लेटाकर अंतिम संस्कार कर दिया। हकीकत यह है कि रानी को फूलबाग से बाबा गंगादास की शाला ले जाया गया। यहां रानी ने दत्तक पुत्र की रक्षा करने तथा उनके शरीर को अंग्रेज छू न पायें कहते हुए देह त्याग दी। रानी के साथ मौजूद सैनिक दत्तक पुत्र को लेकर भागे। रात हो गई थी। बाबा गंगादास ने रानी एवं मुन्दर के अंतिम संस्कार की क्रियाएं की। शाला में घोड़े अधिक थे इसलिए घास काफी थी। इस घास में रानी का अंतिम संस्कार कर बाबा एवं शिष्यों ने स्थान छोड़ दिया। बाबा के आदेश पर एक साधु रुका वहां भीषण आग देखकर अंग्रेजों ने शाला को घेर लिया। वहां मौजूद साधु ने अंग्रेजों को भ्रमित करने के लिए कहा कि कुण्ड की चिन्गारी से घोड़ों की घास में आग लग गई। यह साधु वहां रुका रहा उसने राख का ढेर बनाकर पत्थरों का चबूतरा बनाया और वह भी भाग गया। रानी के बलिदान के साथ युद्ध समाप्त हो गया था। वह 17 जून 1858 की रात थी। अंग्रेजी समय से उसे 18 जून माना जाता है।


साभार – स्वदेश

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