1857 का अल्पज्ञात सेनानी : किसान योद्धा वीर शाहमल जाट

प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 में सैनिकों के अतिरिक्त किसानों ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। उत्पीड़न एवं शोषण के विरुद्ध किसान और उनके बेटे जो सेना में सेवारत थे, इस क्रांति के मूलाधार थे। क्रांति के ऐसे ही सूत्रधारों में से एक थे जनपद बागपत के ऐतिहासिक ग्राम बिजरौल के कुल्ली पट्टी में एक जाट किसान परिवार जन्मे महान क्रांति पुत्र बाबा शाहमल । 

शाहमल में स्वाभिमान, मातृ- भूमि के प्रति प्रेम और किसानों के हित की भावना अत्यन्त प्रबल थी। किसानों का दमन-शोषण और उनसे लूट खसोट उसे असह्य थी। क्षेत्र के असंतुष्ट जमींदार और काश्तकारों की स्थिति ने ब्रिटिश अद्दिकारियों, व्यापारियों और उनकी जमीन को कुर्की में खरीद लेने वाले व्यक्तियों तथा सूदखोर महाजनों के विरुद्ध उसके मन में प्रचंड विद्रोहाग्नि जला दी थी। चौरासी (देश) के ग्रामीण अपनी खाप की बैठकों में इन परेशानियों की चर्चा करते थे और किसानों को एकजुट करने का प्रयास करते थे। शाहमल इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। शाहमल खाप की बैठकों में यह स्पष्ट करने से नहीं चूकता था कि इन सारे कष्टों की जड़ अंग्रेजी राज है और इनके खात्मे से ही दुःख दर्द दूर हो सकते हैं। शाहमल की चौरासी खाप में कड़ी पकड थी और ये उसके नेतृत्त्व में किसी भी सीमा तक जाने को तैयार थे।

11 मई से 21 जुलाई 1857 तक के उनके क्रिया-कलाप ने सामान्यता सभी किसानों को आत्म सम्मान, मरने-मिटने की जिजीविषा तथा देशभक्ति की प्रबल भावना से ओत-प्रोत कर दिया था। जिस ब्रिटिश शक्ति को भारत के राजा महाराजा अजेय मान कर उसके पिछलग्गू बने हुए थे, बाबा शाहमल ने अपने क्षेत्र में सीमित साधनों से अपने उत्सर्ग, स्वाभिमान और शौर्य से उस शक्ति को भयभीत कर दिया था। 

प्रारम्भिक जीवन 

इनके पिता का नाम चौ0 अमीचन्द था। प्राप्त जानकारी के अनुसार इनका जन्म 1797 ई0 में हुआ था। इनकी पहली पत्नी ग्राम नान्दनौर (हरियाणा) के चौ0 रामसुख की सुपुत्री राजवन्ती थी, जिससे तीन पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं। दूसरा विवाह ग्राम हेवा (बागपत) के चौ0 किशनलाल की पुत्री धन्नो के साथ हुआ, जिससे गरीब, दिलसुख और मैदा नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए। दिलसुख का शाहमल के साथ विशेष लगाव था। उसका पुत्र लिज्जाराम अपने दादा शाहमल की छाया की भांति उनके साथ रहता था। वह भी अपने बाबा की तरह स्वाभिमानी और राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत था। शाहमल के बाद क्रांति की बागडोर उसी ने संभाली थी।

दादा शाहमल बुद्धिमान होने के साथ-साथ परिश्रमी किसान, कुश्ती व घुड़सवारी के शौकीन और गरीब किसानों के हमदर्द थे। छोटी उम्र में ही उनमें राष्ट्रीय भावना हिलोर लेने लगी थी। आस पास के ग्रामीण अपनी समस्याओं को लेकर आने लगे थे। क्षेत्र की चौधर बाबा शाहमल को मिल गई थी। समीपस्थ गांव बिजवाड़ा इनकी गतिविधियों का केन्द्र बन गया था।

बड़ौत का क्षेत्र सुमरू बेगम की रियासत सरधना के अन्तर्गत आता था। उसका दीवान राव हरवंश सिंह त्यागी जाटों की उपेक्षा करता था और अपने समर्थकों तथा जाति भाईयों पर कम लगान निर्धारित करता था। जाट किसान सीधे-सच्चे एवं कुशल तथा परिश्रमी थे तथा कृषि उत्पादन में निपुणता के कारण अन्य वर्गों से आगे थे। पक्षपातपूर्ण तथा अपमानजनक व्यवहार के कारण दीवान हरवंश सिंह जाटों में काफी अलोकप्रिय हो गये थे। फलस्वरूप 1825 ई0 में किसानों ने दीवान हरवंश सिंह की हत्या कर दी थी। दीवान हरवंश सिंह की हत्या के बाद उसका पुत्र राव देवी सिंह दीवान नियुक्त किया गया। देवी सिंह ने अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध स्वरूप 100 से अधिक जाट किसानों को जमीन से बेदखल कर दिया और उनकी भूमि पर बेगम का अधिकार हो गया। 

किसानों ने दादा शाहमल के नेतृत्व में बेगम से देवी सिंह को हटाने की माँग की लेकिन बेगम ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। बेगम सुमरु की मृत्यु (1938) के बाद उसकी जागीर को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने राज्य में मिला लिया। बंगाल सिविल सर्विस के अधिकारी इलियट और प्लांउडन को बंदोबस्त का दायित्व सौंपा गया। उन्होंने जाटों को संतुष्ट करने का प्रयास किया। लेकिन हापुड़ तहसील और बुलंदशहर जिले की अपेक्षा, जहाँ गैर जाट काश्तकार ज्यादा थे, लगान की दर ऊँची ही रखी। किसानों ने इसका विरोध किया। अंग्रेज अधिकारियों ने जबरदस्ती वसूली करनी शुरू की। इससे छोटे-बडे़ सभी किसानों में रोष फैल गया। 

1840 और 1850 ई0 के दशकों में बागपत और बड़ौत के इलाकों में भारी तनाव उत्पन्न हो गया। बंदोबस्त द्वारा उत्पन्न प्रक्रिया के कारण पुराने जमींदारों और काश्तकारों की जमीन उनके हाथ से निकल गई। बिजरौल में भी जमीन नीलामी की गई। फांसू नामक यूरोपियन ने जो बेगम समरू के दरबार में भी रहा था, हरचन्दपुर गांव खरीद लिया। शाहमल इससे बहुत रूष्ट हुए। उस समय देश खाप के चौधरी शरद राय थे। शाहमल की योग्यता से प्रभावित होकर उन्होंने अपने सम्पूर्ण अधिकार चौधरी शाहमल को सौंप दिए।

शाहमल में संगठन करने की अद्भुत शक्ति थी और तत्कालीन स्थितियों में उसने पूरा लाभ उठाया। उसके पास लगभग 6 हजार सैनिक ऐसे थे कि हर समय उसके कहने पर लड़ने मरने के लिए तैयार रहते थे। उन सैनिकों में ऐसे भी बहुत से सैनिक थे जो ब्रिटिश फौज के भगौड़े थे।

शाहमल ने अपनी योग्यता, बुद्धिमत्ता, सांगठनिक शक्ति के बल पर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ने के लिए अभियान छेड़ दिया। उनके साथ के क्रांतिकारियों में हिलबाड़ी के पंडित रूढे़राम, धीरा कहार, फिरोजपुर का अचल सिंह गूजर, हेवा का सूरत सिंह, बड़का का अल्ला दिया व अनेकां रवा राजपूत और दूसरी जातियों के लोग थे।

10 मई 1857 को मेरठ में सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध बिगुल बजा दिया, जिसे सैनिक क्रांति का नाम दिया गया। इस घटनाचक्र का समाचार सर्वत्र आग की तरह फैल गया। मेरठ के विद्रोही सैनिकों ने अंग्रेज अधिकारियों की हत्या की और लूटपाट कर 11 मई 1857 को प्रातः दिल्ली में मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के सम्मुख उपस्थित हुए। शाहमल ने सर्वप्रथम 12 व 13 मई को अपने साथियों के साथ फिरंगी परस्त व्यापारियों के दल पर आक्रमण किया और उन्हें लूट लिया। रात में ही उन्होंने बड़ौत की पुलिस चौकी पर चढ़ाई कर दी। चौकी पर कोई अंग्रेज अधिकारी मौजूद नहीं था। वहाँ उपस्थित सिपाही भाग खडे हुए। अगले दिन उन्होंने बड़ौत तहसील पर आक्रमण किया। जैसे ही क्रांति कारियों ने तहसील में प्रवेश किया अंग्रेज तहसीलदार चुपके से निकल गया, लेकिन उसकी मेम वहीं रह गई। लूटपाट और तोड़-फोड़ के बाद शाहमल मेम को अपने साथ किशनपुर बराल के रास्ते से बिजरौल ले गए। 

खलिहानों में गेंहू की फसल गहाई चल रही थी। मेम को बैल हांकने पर लगा दिया गया। तपती धूप में बैलों के पीछे चलते हुए मेम बेहोश होकर गिर पड़ी। यह तमाशा देखने के लिए आस पास के सारे ग्रामवासी इकट्ठे हो गए। होश में आने पर शाहमल ने मेम से कहा कि आपसे हमारी कोई रंजिश नहीं है, आपको यह दिखाना था कि हम और हमारी औरतें कितनी मेहनत से अनाज पैदा करते हैं और तुम्हारे साहब लोग हमसे सारा ही छीनना चाहते हैं। आप हमारा कष्टपूर्ण जीवन महसूस करो और देखो कि हम कहाँ गलत हैं। रमाला के एक व्यक्ति ने तहसील में छिपे अंग्र्रेजों को यह खबर दी पर तहसीलदार 3 मील दूर बिजरौल जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। मेम से कोई अभद्रता नहीं की गई और अगले दिन मेम को वापस बड़ौत भेज दिया गया।

जीन्द (पंजाब) के अंग्रेज परस्त राजा स्वरूप सिंह की फौजें मेरठ तथा हापुड़ की छावनियों में आती-जाती रहती थीं और ये बागपत में पड़ाव डालती रहती थीं। इलाके के किसान स्वरूपसिंह को जाट सिक्ख तथा उसकी फौजों को अतिथि मानकर उनके लिए रसद तथा घास का प्रबन्ध करते थे। किसानों ने अंग्रेजों के विरुद्ध जींद नरेश से सहायता मांगी। स्वरूपसिंह ने कोई उत्तर नहीं दिया तो शाहमल ने बागपत की सराय व बाजार, जहाँ सेनाएँ ठहरती थीं, लूट लिया और अंग्रेजों को मार भगाया। रात में ही उन्होंने यमुना नदी का पुल, जो पंजाब को जोड़ने का एकमात्र रास्ता था, तोड़ दिया।

शाहमल साधारण किसान था परन्तु उसमें असाधारण सूझबूझ थी। दिल्ली के क्रांतिकारियों की मदद करके उसने अपना प्रभाव बढ़ा लिया था। वह उन्हें खाने पीने के सामान की आपूर्ति करता था। दिल्ली में क्रांति के नेताओं ने उसकी उपयोगिता व समर्पण देखकर उसको सूबेदार बना दिया। शाहमल ने बिलौचपुरा गांव के एक बलूची नदीबख्श के पुत्र अल्ला दिया को अपना दूत नियुक्त करके दिल्ली भेजा ताकि अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए मदद व सैनिक मिल सकें। बागपत के थानेदार वजीर खां ने भी इसी उद्देश्य से सम्राट बहादुरशाह जफर को अर्जी भेजी। बागपत के नूरखां के पुत्र महताब खां से भी उनका सम्पर्क था। इन व्यक्तियों का दिल्ली सम्पर्क था। सभी ने शाहमल को बादशाह के समक्ष पेश किया और कहा कि वह (शाहमल) क्रांतिकारियों के लिए बहुत सहायक हो सकता है। ऐसा ही हुआ भी। शाहमल ने न केवल अंग्रेजों के संचार साधनों को ठप कर दिया बल्कि इस क्षेत्र को दिल्ली के लिए आपूर्त्ति क्षेत्र में बदल दिया।

बसौद गांव में शाहमल ने दिल्ली के क्रांतिकारियों के लिए 8 हजार मन गेंहू व दाल का भण्डार एकत्रित कर रखा था। शाहमल इस गांव में ठहरे हुए थे, परन्तु ब्रिटिश सेना के पहुंचते ही वे बचकर निकल गये। ब्रिटिश सैनिकों ने गांव वालों को बाहर आने के लिए मजबूर कर दिया। परन्तु दिल्ली से आए दो गाजी एक मस्जिद में मोर्चा लगाकर लड़ते रहे और अंग्रेजों की योजना सफल न हो सकी। शाहमल ने यमुना नहर पर स्थित सिंचाई विभाग के अधिकारी के बंगले को अपना कार्यालय बनाया हुआ था। उसने अपनी सक्षम सेना व गुप्तचर सेना भी कायम कर रखी थी, जो उसे समय पर गुप्त सूचनाएँ देती थी। एक बार ब्रिटिश सैनिकों ने क्रांतिकारियों पर आक्रमण किया, शाहमल को इसकी सूचना मिल चुकी थी। उन्होंने सैनिकों के मुकाबले के लिए हजारों क्रांतिकारियों को भेजा, जिससे ब्रिटिश सैनिकों की दशा खराब हो गई।

क्रांतिकारी वीर शाहमल को सभी जातियों ने भरपूर सहयोग दिया। उनके नेतृत्व में लड़ी जा रही क्रांतिकारी गतिविधियों में विभिन्न जातियों के नेताओं ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया। अहैडा के गूजरों ने बड़ौत और बागपत की लूट तथा दिल्ली मेरठ सड़क बन्द करने में हिस्सा लिया। सिसरौली के जाटों ने शाहमल के सहयोगी सूरजमल की मदद की। मुजफ्फरनगर जिले के शामली, जौला और सोरम के जाटों ने अन्य क्रांतिकारियों से मिलकर अंग्रेजों से बुढ़ाना का किला छीन लिया और शामली तथा थाना भवन तहसीलों पर कब्जा कर लिया। बुलंदशहर के मशहूर क्रांतिकारी वलीदाद खां को भी सहायता भेजी गई।

विलियम स्पेट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा (शाहमल) जाट ने जो बड़ौत परगना का गवर्नर हो गया था और जिसने राजा की पदवी धारण कर ली थी, उसने और अन्य तीन चार परगनों पर नियंत्रण कर लिया। दिल्ली के घेरे के समय वहां की जनता और दिल्ली गैरिसन इसी व्यक्ति के कारण जीवित रह सकी।

स्थिति बिगड़ते देखकर जून के अंत में मेरठ के मजिस्ट्रेट डनलप की सलाह पर जनरल हेबिट ने स्वयं सेवक घुड़सवारों की एक टुकड़ी भर्ती की जिसमें अधिकतर बेरोजगार युरोपियन युवक थे। इन्हें सबसे बढ़िया किस्म की एनफील्ड रायफलें मुहैया कराई गईं तथा किसानों से राजस्व इकट्ठा कराने में सहायता करने पर इनाम देने की बात भी कही गई। ये मटमैले कपडे़ पहनते थे, इसलिए इसे खाकी रिसाला पुकारा गया। इसके अलावा ठेके पर कुछ सिक्ख घुडसवार भी भर्ती किए गए जिन्होंने विद्रोह को दबाने के लिए स्वेच्छा से अपनी सेवाएं अर्पित कीं। इनकी मदद से मेरठ के भीतरी इलाकों से राजस्व इकट्ठा करने और कानून व्यवस्था बहाल करने का कार्य शुरू किया। 

बाबा शाहमल जिन्होंने स्वयं को अर्द्धस्वतंत्र घोषित कर रखा था, अंग्रेजों के खिलाफ छापामार युद्ध कर रहे थे। बागपत, बड़ौत, सरधना आदि तहसीलों में अंग्रेजों का शासन समाप्त सा ही था। डनलप ने 16 जुलाई को एक मजबूत घुड़सवार टुकड़ी लेकर मेरठ से प्रस्थान किया और हिण्डन नदी पर स्थित धौलाना पहुंचा, जहाँ कुछ धनी साहूकार अंग्रेजों का समर्थन कर रहे थे। वहाँ उसे सूचना मिली कि शाहमल डौला गांव पर हमला करने वाला है। इसका कारण था कि जब शाहमल ने बड़ौत तहसील पर हमला किया- वहाँ के तहसीलदार रोहतक निवासी कमर अली ने नवल सिंह राजपूत की सहायता से खजाने को हटाकर डौला गांव में पहुंचा दिया था। डनलप ने उन्हें बसौद में ही घेरने की योजना बनाई लेकिन बसौद पहुंचने पर उसे पता चला कि शाहमल रात के अंधेरे में बसौद से निकल गये। वहां डनलप को लगभग 6 हजार मन अनाज, दालें तथा खाद्य सामग्री हाथ लगी जो दिल्ली के स्वतंत्रता सेनानियों के पास भेजे जाने के लिए तैयार थी। गोरों ने इस सामग्री को नष्ट कर दिया। बासौद मुस्लिम त्यागियों का गांव था, पर शाहमल का साथ देने का मूल्य चुकाना पड़ा। गांव में पकडे़ गये सभी 180 वयस्क पुरुषों को गोली से उड़ा दिया गया।

जुलाई 1857 में क्रांतिकारी नेता शाहमल को पकड़ने के लिए ब्रिटिश सेना संकल्पबद्ध हुई। एक अंग्रेज अधिकारी ने लिखा है कि ‘ऐसा लगता था कि सारा देश हमारे विरुद्ध खड़ा हुआ है। लोगों को इकट्ठा करने के लिए चारों ओर ढोल बजाए जा रहे थे और भीड़ एकत्र होकर आगे बढ़ रही थी। शाहमल के भतीजे भगत ने हमले से बचकर ब्रिटिश सेना को बड़ौत तक खदेड़ा। इस समय शाहमल के साथ 2000 शक्तिशाली सैनिक थे। शाहमल आमने सामने की अपेक्षा गुरिल्ला प्रणाली से युद्ध करने के विशेषज्ञ थे। हथियारों और प्रशिक्षित सेनाओं की कमी के कारण प्रत्यक्ष युद्ध लड़ने की उनकी क्षमता नहीं थी। बड़ौत के दक्षिण भाग में खाकी रिसाला और शाहमल के अनुयायियों में घमासान संघर्ष हुआ। मुठभेड़ आमने सामने की थी।’

21 जुलाई 1857 को किसान सैनिक निर्भीकता के साथ लड़ रहे थे। युद्ध को क्रीडांगण समझने वाले किसान अंग्रेजों की प्रशिक्षित और हथियारों से लैस सेना के समक्ष मृत्यु का आलिंगन कर डटे रहे। शाहमल स्वयं भयंकर मारकाट मचा रहे थे। परन्तु स्थिति का चक्र अब उनके पक्ष में नहीं था। वे बुरी तरह घायल हो चुके थे। रुधिर की धारा बह रही थी। खाकी रिसाले ने जान की बाजी लगाकर आक्रमण किया। जिसमें शाहमल वीरगति को प्राप्त हुए।

उन्हें मारने वाले व्यक्ति ने युद्ध का वर्णन इस प्रकार किया- हमने दो घुडसवारों को, जो भालों से लैस थे, तेजी से भागते हुए देखा, मैंने अपना घोड़ा आगे बढ़ाया और दो मिनट में उनसे आगे हो गया, मेरे निकट के घुड़सवार, जिसके शाहमल होने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था, की तलवार मेरे निकट गिर गई, परन्तु उसका भाला अब भी उसका पास था। उसकी पगड़ी का किनारा अब भी जमीन पर लटक रहा था। दूसरे सैनिक ने शाहमल पर दो गोलियां दाग दीं। मेरा ख्याल था कि अब वह कभी नहीं उठ सकेगा, किन्तु वह खड़ा हुआ और उसने मुझ पर प्रहार किया जिससे मुझे दो चोटें आयीं, दूसरी चोट घातक हो सकती थी परन्तु मैंने ताकत लगाकर उसका भाला अपने शरीर से खींच निकाला। इसी क्षण सवार अफजल बेग आ गया। बेग ने उस पर भाले से प्रहार किया, इससे वह गिर गया और बेग को गालियां देने लगा। पारकर ने उसे पहचान लिया। उसके आदेश पर शाहमल का शरीर टुकड़े-टुकड़े कर दिया और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

क्रांतिवीर शाहमल की मृत्यु के सन्दर्भ में कई अन्य विवरण भी उपलब्ध हैं जिनमें एक अन्य विवरण में स्वाधीनता सेनानी आचार्य दीपांकर ने अपनी पुस्तक ‘स्वाधीनता आन्दोलन और मेरठ’ में लिखा है कि करम अली, जो मुसलमान राजपूत रांघड था, ने गुराना के जंगल में, जहाँ चिकनी मिट्टी होने के कारण शाहमल को घोड़ी दलदल में फंस गयी थी, पीछे से हमला कर उन्हें मार गिराया। इसके अलावा मेरठ गजेटियर में जो विवरण उपलब्ध है उसके अनुसार बड़ौत में डनलप ने मौर्चा संभाला। भयानक संघर्ष हुआ। शाहमल आमने सामने के इस भीषण संघर्ष से स्वतंत्रता के लिए लड़ते हुए शहीद हो गये।

शाहमल की शहादत ब्रिटिश अधिकारियों के लिए बड़ी विजय थी। उनकी नींद हराम करने वाला क्रांतिवीर शाहमल अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए युद्ध भूमि में शहीद हो गया। शाहमल की शहादत समय की शिला पर उकेरी गई एक ऐसी घटना है जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकता है, यह देशभक्ति और आजादी की मशाल का जीता जागता स्मारक है।

बागपत का खण्डवारी क्षेत्र, बागपत की टंकी वाला तालाब, बागपत में नांव के पुल वाला यमुना तट, बड़ौत की पुरानी तहसील, डौला और बसौद तथा बिजरौल आदि ऐसे अनेक स्थल हैं जो शाहमल के क्रियाकलापों से जुड़े हैं। इन्हें चिह्नित कर ऐतिहासिक महत्व दिया जाना अपेक्षित है। तभी यथार्थ रूप में शाहमल के मूल्य का अंकन हो सकेगा। यद्यपि नवम्बर 1857 तक अंग्रेजों ने क्रांति को क्रूरतापूर्वक कुचल दिया, परन्तु यह निर्विवाद है कि समाज के हर वर्ग ने, चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का रहा हो, क्रांति में सक्रिय भाग लिया। स्वतंत्रता के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किसानों द्वारा किया गया यह संघर्ष अद्वितीय था, यह एक महान संघर्ष था और इसने भारत से ब्रिटिश साम्राज्य की इतिश्री करने में योगदान दिया। विशेषकर मेरठ/बागपत में शाहमल का क्रांति में योगदान अविस्मरणीय है।

शांतिधर्मी मई 2016 अंक में प्रकाशित

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